‘द बिग बुल’ के बहाने, हेमन्त शाहों को पहचानें, जो हमारे सपनों का मोल-भाव कर रहे हैं

टीम डायरी, 9/4/2021

‘द बिग बुल’ अभिषेक बच्चन की फिल्म है। उन्होंने इसमें अपनी अभिनय क्षमता को खरा सोना साबित करने के लिए जी-तोड़ मेहनत की है। हालाँकि फिल्म कुछ दूसरे मोर्चा पर कमज़ोर पड़ी है। लेकिन यह कई सवालों को उठाने में कामयाब रही, इसमें कोई दो-राय नहीं। बशर्ते, हम हिन्दुस्तान के मुस्तकबिल को ध्यान में रखते हुए देखें, तो। अभिषेक के किरदार हेमन्त शाह की नियति चाहे जो रही हो, लेकिन फिल्म ने ये साबित करने की कोशिश की है कि वह परिस्थितियों में फँसकर मारा गया। हालाँकि इससे पहले उसने हमारी बैंकिंग प्रणाली में व्याप्त कमजोर पहलुओं को अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से पकड़कर करोड़ों कमाए। फिर एक बार जब पैसा मुँह लग गया, तो जी कहाँ मानता है?  वैसे, इस लेख को लिखने का मेरा मकसद हेमन्त शाह की कहानी (फिल्मवालों ने साफ नहीं बताया है कि ये हर्षद मेहता की कहानी है। बल्कि ये कहा है कि फिल्म सच्ची घटनाओं से प्रेरित है) की चर्चा करना नहीं है? बल्कि फिल्म देखने के बाद मन में उठे सवालों पर बात करने का है?

दरअसल, हमारा देश दोहरी मानसिकता का है। हमारे प्रधानमंत्री से लेकर माता-पिता तक, बच्चों को सिर्फ़ ज्ञान देते रहते हैं कि परीक्षा में पहले कठिन सवालों को हल किया जाना चाहिए। इसी के मद्देनज़र आज की परिस्थितियों में पूछा जाना चाहिए कि क्या हम कोरोना महामारी के संक्रमण की दूसरी लहर के लिए तैयार थे? क्या हमें अन्देशा नहीं था कि संक्रमण दोबारा फैल सकता है? मुश्किल सवाल हैं न? तो क्या जो सीख हमें दी गई, उसके मुताबिक सिखाने वाले ऐसे सवालों का हल पहले ढूँढ़ चुके थे? हर तरफ़ दिमाग दौड़ा देखें, ज़वाब ‘नहीं’ में ही मिलेगा। असल में हमारा ‘महान देश’ और उसे चलाने वाले भविष्य को लेकर ही तैयार नहीं है। उनको पता ही नहीं कि देश का मुस्तकबिल कैसा बनाना है? किस तरह का भविष्य गढ़ना है? और हम… इस देश के बाशिन्दे सिर्फ़ चमत्कार में विश्वास करते हैं। हमें एक नायक चाहिए, फिल्मी हीरो जैसा… या एक अवतार, जिसकी हम पूजा करते रहें और वह हमारी समस्याओं का चुटकियों में हल कर दे।

‘द बिग बुल’ के हेमन्त शाह में लोगों ने ऐसा ही अवतार देखा था। वो उनकी गरीबी दूर करने का ज़रिया बन गया था। तब 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में देश में शेयर बाज़ार नया-नया ही था। लिहाज़ा उस शेयर बाजार को आगे बढ़ाने के मकसद से बैंकों के लिए योजनाएँ आईं। लेकिन उन योजनाओं के लागू होने से क्या होगा, इस बारे में किसी ने नहीं सोचा था। बैंकों के लिए बनी सरकार की योजनाओं में तमाम तरह की ख़ामियाँ थीं और उन्हीं का हेमन्त शाह ने फायदा उठाया। वह पहले से ही इस शेयरों की ख़रीद-फ़रोख़्त के क्षेत्र में हाथ-पाँव मार रहा था। व्यवस्था का, ख़ामियों का फायदा कैसे उठाना है, वह ये अच्छी तरह सीख चुका था। उसे इस बारे में व्यवस्था में शामिल एक व्यक्ति ने ही सिखाया-पढ़ाया था। लिहाज़ा जैसे ही ढीले सिरे उसके हाथ लगे, वह उन्हें अपनी तरफ़ खींचता चला गया। ख़ुद भी माल कमाया और जो ‘ज़रूरतमन्द’ उससे जुड़े हुए थे, उन्हें भी मालामाल किया और उनका नायक बन गया। 

अब ज़रा गौर करें। क्या आज भी न जाने किस-किस क्षेत्र में न जाने कितने ‘हेमन्त शाह’ माल और पैसा बना नहीं रहे हैं? ठीक उसी तरह व्यवस्थाओं में ख़ामियों का फ़ायदा उठाकर? हमें मालूम तक नहीं होता कि उनके साथ कौन-कौन मिला है? लेकिन जाने-अनजाने उनके बाहरी चेहरों के आधार पर ही, हम उन्हें अपना  नायक मान बैठे हैं। उनके नायकत्व का उत्सव मनाते हैं। उन्हें हाथों-हाथ लेते हैं। पलकों पर बिठाते हैं।  

हम में से कितने लोग जानते हैं कि देश में कितने बच्चों के पास कम्प्यूटर साक्षरता है? कितने बच्चों को कम्प्यूटर चलाना नहीं आता है? कितने के घर में स्मार्टफोन हैं? तो कितने सालभर का रिचार्ज करा सकते हैं? संक्रमण के चलते लॉकडाउन में करोड़ों लोगों की आजीविका पर संकट मँडराया है। बच्चों की शिक्षा खतरे में पड़ गई है। नाममात्र की पढ़ाई ऑनलाइन चल रही है। नेता रैली में व्यस्त हैं। अफसर गाइडलाइन (दिशा-निर्देश, सुझाव, मानक संचालन प्रक्रिया आदि) जारी करने में। किसी को नहीं मालूम कि आज के हालात में जिन करोड़ों बच्चों का भविष्य दाँव पर है और अगर उनकी पढ़ाई छूट गई तो उनके भविष्य का क्या होगा? कितना पीछे चले जाएँगे वे? अध-कचरा ज्ञान किस तरह उनकी ज़िन्दगी को तबाह करेगा? व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी का शेयर कितना उछलेगा?

छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने हमारे दो दर्जन जवानों को मार डाला। क्या हमें इसका अन्दोशा नहीं था? क्या इस हमले को टालने के लिए बेहतर योजना की जरूरत नहीं थी? क्या उन सैनिकों को बचाया नहीं जा सकता था? 

महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण के चलते जो हालात हैं, देखकर तरस आता है, इस देश की जनता पर। क्या इसी दिन के लिए हमने सरकारें चुनी हैं कि वे कायदे के अस्पताल भी न बना पाएँ, जहाँ सबके लिए बिस्तर हों?

क्या सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया को इसीलिए सेलिब्रेट किया जाता है कि आज हमें वैक्सीन (टीका) की कमी का रोना, रोना पड़ रहा है? भारत बायोटेक की वैक्सीन को किसलिए आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति दी गई थी, जब देश में उसका इस्तेमाल ही सीमित हो रहा है? सब सीरम की ‘कोविशील्ड’ खोज रहे हैं। क्या इस देश के नीति-नियन्ता भविष्य नहीं देख पाए थे? 

कितनी चीजें हैं। कितनी शिकायतें हैं। क्या-क्या गिनाया जाए। कभी सोचकर देखें कि आज जो लोग धर्म के नाम पर राजनीति कर रहे हैं, वे इस देश का कैसा भविष्य गढ़ रहे हैं। आज का फ़ायदा कल का नुकसान है। आज कोई और मर रहा है। कल कोई और शिकार होगा। लेकिन, हमें इससे फर्क नहीं पड़ता, जब तक कि हमारी खिड़की पर देशद्रोही की चिल्लाहट के साथ पत्थर का टुकड़ा नहीं टकराता। 

एक परिवार का सदस्य जब कोरोना से पीड़ित होकर अस्पताल जाता है, तो घरवालों को भविष्य साफ दिख रहा होता है, मौत या ज़िन्दगी… उन्हें ज़िन्दगी बचानी होती है। वे दौड़-दौड़कर हाथ पैर जोड़कर अपने उस परिजन का इलाज चाहते हैं। लेकिन, ये देश अपने बीमार लोगों को पर्याप्त इलाज भी नहीं दे पा रहा है। लानत है इस व्यवस्था पर…जो अपना भविष्य नहीं देख पा रही है।

दुखद ये कि जनता भी अपना भविष्य नहीं देख पा रही है। जनता की प्राथमिकता क्या है? नेता की प्राथमिकता क्या है? सार्वजनिक स्वास्थ्य या विधानसभा चुनाव? सवाल टेढ़ा है, लेकिन जवाब सीधा है। सोचकर देखें, ‘हेमन्त शाह’ ऐसी ही व्यवस्थाओं की उपज होते हैं। वे कुव्यवस्था से फायदा उठाकर अपने अहम को सन्तुष्ट करते हैं। ऐसे हेमन्त शाहों को पहचानें, जो हमारे सपनों का मोल-भाव कर रहे हैं।
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(यह लेख #अपनीडिजिटलडायरी के पास व्हाट्स ऐप सन्देश के रूप में आया है। लिखने वाले डायरी के नियमित पाठक भी हैं। इसलिए वे ‘टीम डायरी’ के स्वाभाविक सदस्य भी हैं। उन्होंने लेख के साथ यह आग्रह भी भेजा है, “मैं नहीं चाहता कि लोग मेरी दुनियानवी पहचान से रू-ब-रू हों। बेहतर है कि कलम ही मेरी पहचान बने।” उनके आग्रह का सम्मान करते हुए यहाँ लेख के साथ उनका नाम नहीं दिया जा रहा है। सिर्फ़ उनके विचार सामने रखे जा रहे हैं।)

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