भारत से सती प्रथा ख़त्म करने के लिए अंग्रेजों ने क्या प्रक्रिया अपनाई?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 14/9/2021

इस तरह कंपनी के सैन्य कर्मचारी हों या फिर नागरिक प्रशासन से जुड़े, सभी में सती प्रथा के प्रति वितृष्णा बढ़ रही थी। इसका दबाव भारत सरकार और लंदन में बैठे कंपनी के निदेशक भी महसूस कर रहे थे। लिहाज़ा 17 जून 1823 को उन्होंने भारत के तत्कालीन वायसराय को पत्र भेजा। इसमें लिखा, “आप जानते हैं कि ब्रिटिश संसद और आम जनता का भी, पूरा ध्यान इन दिनों इसी विषय (सती प्रथा) पर है। ऐसा लगता है कि यह प्रथा भारत के विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग स्वरूप में है।… इसीलिए आपने ये नियम बनाया था कि अगर कहीं कोई महिला स्वेच्छा से सती होना चाहती है, तो धार्मिक आधार की पुष्टि के बाद उसे इजाज़त दी जाए। लेकिन अब हमें इस नियम पर संदेह हो रहा है। ज़िम्मेदार अधिकारियों से मिले विवरणों से हमारे संदेह की पुष्टि होती है। हमें लगने लगा है कि यह नियम सती प्रथा को नियंत्रित या ख़त्म करने के बज़ाय उसे बढ़ाने वाला साबित हो रहा है। इससे बड़ी बात ये है कि हिचकिचाहट के साथ सही, पर हमने जाने-अनजाने ब्रिटिश सरकार को सती प्रथा से जुड़े मामलों में जाहिर पक्ष होने की इजाज़त दे दी है। जबकि हम कानून निर्माता के तौर पर ही नहीं, ईसाई के रूप में भी ऐसे कृत्यों (सती प्रथा) से घृणा करते हैं।” हालाँकि इसके बावज़ूद निदेशकों ने अगले क़दम का फ़ैसला वायसराय के ऊपर ही छोड़ दिया। साथ में ताक़ीद भी की कि किसी भी फ़ैसले से पूर्व उसके परिणामों का अनुमान लगा लें।

उस समय वायसराय लॉर्ड एमहर्स्ट थे। उन्हें पूरा यकीन था कि किसी कानून के जरिए सती प्रथा को ख़त्म करने का अभी समय नहीं है। कुछ अफ़सर, जो सरकारी मंशा से बीच-बीच में सती प्रथा की घटनाएँ रोकने की कोशिश करते थे, उनके ख़िलाफ़ हिंदु समुदाय लगातार सरकार को ज्ञापन दे रहा था। उस समय बंगाल के जाने-माने समाजसुधारक राममोहन रॉय ने भी यह बताने की कोशिश की थी कि भारतीय शास्त्र सती प्रथा का अनुमोदन नहीं करते। उन्होंने इस बाबत पर्चे लिखे। लेकिन उनका इतना विरोध हुआ कि उनकी जान को ख़तरा पैदा हो गया। लिहाज़ा, एमहर्स्ट ने ‘देखो और इंतज़ार करो’ की नीति अपनाई। मग़र जब 1828 में विलियम बेंटिंक वायसराय बनकर आए तो माहौल काफ़ी बदल चुका था। लिहाज़ा, कंपनी के निदेशकों ने उन्हें निर्देश दिया कि वह सती प्रथा की समाप्ति के लिए कदम उठाएँ। लेकिन निर्णय अब भी बेंटिंक पर ही छोड़ दिया कि वह धीरे-धीरे इसे ख़त्म करना चाहते हैं या एक ही बार में। 

वैसे, बेंटिंक का अपना मिजाज़ एक ही बार में इस कुप्रथा को ख़त्म करने पर उन्हें विवश कर रहा था। लेकिन राममोहन रॉय और होरेस हेमैन विलसन जैसे सुधारक चाहते थे कि इसे धीरे-धीरे ख़त्म किया जाए। जिससे समाज में कोई असंतोष पैदा न हो। इत्तिफाक़ से उस समय चार्ल्स मैटकाफ़ वायसराय की सलाहकार परिषद के सदस्य थे। वे जब दिल्ली के प्रशासक थे तो उन्होंने वहाँ सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया था। लेकिन उस निर्णय के अनुभवों के बाद वह भी मानने लगे थे कि सती प्रथा एकदम से ख़त्म करने का फ़ैसला किया गया तो ‘असंतुष्ट लोग धार्मिक आधार पर उत्तेजना फैला सकते हैं।’ हालाँकि वह ये भी मानते था कि ऐसा समय जल्दी आएगा, जब “हिंदुस्तान के लोग इस बात को मानेंगे कि ब्रिटिश सरकार ने अगर कोई सबसे अच्छा काम किया है तो वह सती प्रथा का उन्मूलन।” 

इसके बाद आख़िर चार दिसंबर 1829 को बंगाल प्रांत में कानून के जरिए सती प्रथा को अवैध घोषित कर दिया गया। इस अधिनियम में प्रावधान किया गया कि जो स्वैच्छिक बलिदान के लिए किसी का सहयोग करेगा, उसे ग़ैरइरादतन हत्या का दोषी माना जाएगा। कोई अगर ऐसे बलिदान के लिए किसी महिला के साथ जोर-ज़बर्दस्ती या हिंसा करता है तो वह मौत की सज़ा का हक़दार होगा। फिर मद्रास में भी दो फरवरी 1830 को इसी तरह का अधिनियम पारित किया गया। बम्बई में भी इसे प्रभावी बनाने के लिए कदम उठाए गए। इस अधिनियम का बंगाल में पहले काफ़ी विरोध हुआ। बेंटिंक के सामने इसके ख़िलाफ़ एक अर्ज़ी लगाई गई। इसमें कानून की ज़ोरदार तरीके से मुख़ालिफ़त की गई। यहाँ तक कि लंदन स्थित प्रीवी काउंसिल में भी जनवरी 1830 में अपील की गई। लेकिन कंपनी के निदेशकों ने वहाँ मज़बूती से अपना पक्ष रखा। इस निर्णय का बचाव किया। राजा राममोहन राय ने भी उनका समर्थन किया। उन्होंने इंग्लैंड में अपनी तरफ़ से एक याचिका दायर की। इसमें सती प्रथा को ग़ैरकानूनी ठहराने के फ़ैसले को सही ठहराया। यह याचिका लगाने और उसके पक्ष में दलीलें देने का काम उन्होंने ख़ुद किया। इस सबके बाद कानून के ख़िलाफ़ की गई अपील ख़ारिज़ हो गई। इधर, भारत में भी कोई ख़ास बखेड़ा नही हुआ।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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