माँ की ममता से बड़ी कोई शक्ति नहीं

समीर पाटिल, भोपाल, मध्य प्रदेश से 15/4/2021

आज शाम गायत्री मन्दिर जाना हुआ। वहाँ जाता हूँ तो अक्सर कोई न कोई बुज़ुर्ग मिल जाता है। उनसे बातें करता हूँ, तो कुछ नया जानने को मिलता है। आज भी एक बुज़ुर्ग मिल गए। उनसे बातें करने लगा। उन्होंने एक कहानी सुनाई, जिसे मैं हू-ब-हू यहाँ डायरी में दर्ज़ कर रहा हूँ। वे बताने लगे…

कुछ हमारे खेत से आगे गोचर की ज़मीन लगी हुई थी और उसके आगे जंगल हुआ करता था। जंगल में नीम, बरगद, महुआ, पीपल, बेल, इमली, कबिट,आम, बेर के सैकड़ों दरख़्त थे। पास टीले पर सैकड़ों साल पुराना एक शिव मंदिर था, जो अब भी है। वहां से एक पहाड़ी नाला बहता। टीले पर इमली, खिरनी और गूलर के बहुत सारे पेड़ थे। वहाँ लंगूरों का एक कुनबा रहता था। 

बड़े बूढ़े बताते कि लंगूरों की यह बस्ती तब से थी, जब से गाँव भी नहीं बसे थे। यह कुनबा दिनभर में खेतों और जंगल से अपना पेट भरकर रात को टीले पर अपने घर लौट आता। इसी कुनबे में लंगूर माता थी, जो थोड़ा लंगड़ाकर चलती थी। एक दिन देखा कि वह लंगूर माता अपने बच्चे को हृदय से लगाती, तो कभी उसे अपने मुंह के पास लाकर सूँघती। 

वह बीमार लगता था। हैरान-परेशान माँ को देखकर दूसरी माँएं कभी उसे सांत्वना देतीं, तो कभी उदास आँखों से उसे देखती। शाम होते-होते बच्चे ने गर्दन पीछे छोड़ दी। उसकी आँखें पथरा गई थीं। शायद वह मर चुका था। लाचारी और निराशा की अंधेरी रात चढ़ रही थी। माँ की व्याकुलता भरी उछल-कूद और भाग-दौड़ बढ़ती जा रही थी। रात होते देख हम लोग घर को लौट आए। 

दो दिन बाद हम फिर लकड़ी और कंडे बीनने जंगल पहुँचे। देखा कि, वह लंगूर माता अपने बच्चे को अब भी सीने से लगाए घूम रही थी। दो-तीन महीने बीत गए। एक दिन हम कुछ संगी बेल और खिरनी लेने टीला चढ़े तो देखा कुनबे से दूर एक टहनी पर वह माँ अकेले बैठी थी। अब भी उसके वक्ष से कुछ चिपटा हुआ था। वह कुल मिलाकर एक खोपड़ी, उससे लटकती थोड़ी-सी खाल और पूँछ का टुकड़ा भर था। 

वह अब शान्त दिखती थी, लेकिन न जाने किस ममता के संस्कारवश वह बीच-बीच में बच्चे के सिर को हाथ लगाती। कुछ देर बार फिर इधर-उधर देखने लगती। गर्मी के बाद बरसात आई और हमारा ध्यान भी इस बात से हट गया था। 

एक दिन जब हम नाले पर गायों को चराने के लिए आए तो देखा कि उस लंगड़ी माता की गोद में नया बच्चा था। वह पूरे मनोयोग से बच्चे के साथ समय बिता रही थी। पिछले बच्चे के अवशेष योग्य स्थान पर पहुँच चुके थे और ममता का चक्र फिर घूम चुका था।

मैं वहाँ से चला आया और यही सोचता रहा कि वाकई, माँ की ममता से बड़ी कोई शक्ति नहीं है।

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(समीर एक निजी कंपनी में काम करते हैं। उन्होंने वॉट्सएप के ज़रिए यह कहानी #अपनीडिजिटिलडायरी को भेजी है।)
 

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