ए. जयजीत, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 9/9/2021
मेरे शहर में दो सड़कें हैं। वैसे तो कई सड़कें हैं,लेकिन आज हम इन दो सड़कों की बात ही करेंगे। एक ख़ास सड़क है। वह उतनी ही ख़ास है जितना कि ख़ास कोई नेता या अफ़सर या जज या इनकी पत्नियाँ होती हैं। इसे कहने को ‘वीआईपी रोड’ कह सकते हैं। वैसे ये ख़ास रोड है तो ‘हुजूर’, ‘सरकार’, ‘जी मालिक’, ‘जी मालकिन’ टाइप के सम्बोधन अधिक फ़बते हैं। दूसरी आम सड़क है। ऐसी आम सड़कों की भरमार है। जिधर देखो, उधर आम ही आम सड़कें। यह वैसी ही आम है, जैसे मैं और आप। चूँकि ये आम सड़क है तो इन्हें प्यार से ‘अबे’, ‘ओए’, ‘स्साली’ जैसा कुछ भी कह सकते हैं। ये बुरा नहीं मानती। हम इन पर थूक सकते हैं, कचरा फेंक सकते हैं। टेंट गाड़ने के लिए कुदाल चला सकते हैं। मतलब वह सबकुछ कर सकते हैं, जो आप करना चाहें। बड़ी सहिष्णु होती हैं ये आम सड़कें। उफ्फ़ तक नहीं करतीं। ये दोनों तरह की सड़कें किसी भी शहर में हो सकती हैं। होती ही हैं। ख़ासकर राजधानियों में। और आम-ख़ास की ये परम्परा भी तो कोई आज से नहीं है। तो फिर आज अचानक इनकी याद कैसे आ गई? बताते हैं हम…
दरअसल, हुआ यूँ कि चलते-चलते अचानक ख़ास और आम सड़क की मुलाक़ात हो गई। ख़ास सड़क ने बाजू ने गुजरती हुई आम सड़क को रोककर हालचाल पूछे। यह कोई मामूली बात है भला! कुछ तो ख़ास बात होगी। कोई ख़ास यूँ ही आम टाइप की चीजों से राब्ता नहीं बनाता…
“और कैसी हो आम सड़क?” ख़ास सड़क ने थोड़ी विनम्रता और थोड़े एटीट्यूड के साथ पूछा।
“ठीक ही हूँ, हुज़ूर । आज कैसे याद किया?” आम सड़क ने उतनी ही मिमियाती हुई आवाज़ में पूछा जितना कि एक ‘आम’ से अपेक्षित होता है।
“इन दिनों तो बड़े जलवे हैं। हर जगह तुम्हारी ही चर्चा है। सुन्दर-सुशील महिलाएँ कैटवॉक कर रही हैं। अख़बारों में तस्वीरें छप रही हैं। देखी हैं मैंने।” ख़ास सड़क ने बड़े ही ख़ास अन्दाज़ में कहा।
वैसे, यह एक सहज गुण है कि कभी किसी दिन गरीब को दो जून की रोटी से एक रोटी भी ज्यादा मिल जाए, तो अमीर के पेट में दर्द-सा उठ जाता है। ख़ास सड़क भी इससे परे नहीं है। दिनभर ख़ासों के साथ रहते-रहते यह ख़ासियत भी आ गई है उसमें।
“वो तो बस यूँ ही…।” आम सड़क शर्म से तनिक गुलाबी लाल हो गई। फिर जोड़ा, “मुझ पर से जो भी गुजरेगा, वह ऐसा ही लगेगा कि कैटवॉक कर रहा है। वे महिलएँ तो सिम्पली मुझ पर चलकर गई थीं, लेकिन उनकी वह वॉक ही कैटवॉक बन गई। अख़बारों में तस्वीरें छप गईं। अब देखिए न उस ऑटो को। कैसे बचता-बचाता चला आ रहा है और ऐसा लग रहा है कि कैटवॉक कर रहा है। सब बरसाती गड्ढों की महिमा है।”
“हूम….।” ख़ासों के साथ रहते-रहते ख़ास सड़क भी ‘हूम’, ‘हम्म’ करना सीख गई है। जब कुछ ज़वाब नहीं सूझता तो ‘हूम’, ‘हम्म’ से अच्छा कोई ज़वाब नहीं होता। ऐसे ज़वाब अक्सर ख़ास लोगों के मुँह से झरते रहते हैं। बहुत सुन्दर लगते हैं। देखिएगा कभी ध्यान से…
“वैसे शिवराज भैया जब चार साल पहले अमेरिका गए थे और कहा था कि अमेरिका की सड़कों से अच्छी तो हमारे यहाँ की सड़कें हैं तो वे आपकी ही तो बात कर रहे थे।” आम सड़क ने भी अपनी तारीफ़ के जवाब में ख़ास सड़क की तारीफ़ कर बात आगे बढ़ाई।
“हाँ, वो तो है।” एक हल्की-सी मुस्कान ख़ास के चिकने-चुपड़े चेहरे पर तैर गई। पर बरसाती गड्ढों को देखकर मुस्कान फिर रश्क में बदल गई। इसी ईर्ष्या में गड्ढों को लेकर सुनी-सुनाई बात उसकी ज़ुबान पर आ गई – “सुना है तुम्हारे इन गड्ढों को लेकर सरकार एक पायलट प्रोजेक्ट पर काम कर रही है?”
“अब ख़ास लोगों के साथ तो आप ही रहती हैं। तो आपने सही ही सुना होगा। हम क्या कहें। पर गड्ढों पर पायलट प्रोजेक्ट, यह क्या नया तमाशा है?” आम सड़क हो या आम आदमी, उसके लिए सभी प्रोजेक्ट तमाशे से ज्यादा नहीं होते।
“एक्चुअली, कल दो अफ़सर अपनी कार में बैठकर जा रहे थे और तुम्हारे इन्हीं गड्ढों के बारे में बात कर रहे थे। कह रहे थे कि गड्ढों से ग्राउंड वॉटर रिचार्ज करने के प्रोजेक्ट को सरकार ने स्वीकार कर लिया है। बारिश में इन गड्ढों का इस्तेमाल भूजल स्तर में बढ़ोतरी के लिए किया जाएगा।”
“अच्छा? और क्या कह रहे थे?” आम सड़क की दिलचस्पी अचानक उसी प्रोजेक्ट में जाग गई है जिसे वह कुछ देर पहले तमाशा कह रही थी।
“कह रहे थे कि अब सरकार ठेकेदारों को उसी तरह की सड़कें बनाने को पाबन्द करेगी जो पहली बारिश में ही पर्याप्त गड्ढेयुक्त हो जाएँ।”
“हाँ, यह तो ठीक रहेगा। अभी दो-तीन बारिश का पानी यूँ ही बह जाता है। तब जाकर थोड़े बहुत गड्ढे होते हैं। सेटिस्फैक्टरी गड्ढे होने में तो आधा मानसून ही बीत जाता है। पर इस प्रोजेक्ट से सरकार को क्या फायदा होगा?”
“अफ़सर कह रहे थे कि जब प्रोजेक्ट लागू हो जाएगा तो झीलों-तालाबों में फालतू-फोकट में पानी इकट्ठा करने की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी। पूरा पानी जब सीधे ज़मीन के भीतर ही चला जाएगा तो झील-तालाब की ज़मीनों का इस्तेमाल बिल्डरों के कल्याण कार्य हेतु किया जा सकेगा।” ख़ास सड़क ने बात ख़त्म की।
दरअसल, यही बताने के लिए ही तो ख़ास सड़क ने आम सड़क से बात शुरू की थी। गॉसिप्स किसी के भी पेट में टिकते नहीं। फिर वह इंसान हो या सड़क। ख़ास हो या आम।
“वॉव! आज पहली बार मुझे आम सड़क होने पर गर्व हो रहा है।” आम सड़क ने केवल सोचा, लेकिन कहा नहीं। क्या पता, ख़ास सड़क बुरा मान जाए।
ख़ास सड़क पहली बार अपनी क़िस्मत को कोस रही है। वह गड्ढेयुक्त होती तो यह प्रोजेक्ट ख़ुद ही हथिया लेती। हालाँकि कहा उसने भी कुछ नहीं। मन मसोसकर रह गई।
इसके बाद दोनों ने अपनी-अपनी राह पकड़ ली।
——
(ए. जयजीत देश के चर्चित ख़बरी व्यंग्यकार हैं। उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी के आग्रह पर ख़ास तौर पर अपने व्यंग्य लेख डायरी के पाठकों के उपलब्ध कराने पर सहमति दी है। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इसके लिए पूरी डायरी टीम उनकी आभारी है।)
पिता... पिता ही जीवन का सबसे बड़ा संबल हैं। वे कभी न क्षीण होने वाला… Read More
“Behind every success every lesson learn and every challenges over comes their often lies the… Read More
दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट टीम ने शनिवार, 14 जून को इतिहास रच दिया। उसने पाँच दिनी… Read More
अहमदाबाद से लन्दन जा रहा एयर इण्डिया का विमान गुरुवार, 12 जून को दुर्घटनाग्रस्त हो… Read More
क्या आपकी टीम अपने घर से दफ़्तर का काम करते हुए भी अच्छे नतीज़े दे… Read More
बीते महीने की यही 10 तारीख़ थी, जब भारतीय सेना के ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के दौरान… Read More