Categories: cover photo

कुछ और सोचिए नेताजी, भाषा-क्षेत्र-जाति की सियासत 21वीं सदी में चलेगी नहीं!

टीम डायरी

देश की राजनीति में इन दिनों काफ़ी-कुछ दिलचस्प चल रहा है। जागरूक नागरिकों के लिए ये सभी घटनाक्रम ‘रोचक-सोचक’ हैं और ‘सरोकार’ से जुड़े हुए भी। उदाहरणों की शुरुआत दक्षिण भारत से करते हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री हैं। उन्हें राजनीति में 1973 से लेकर अब तक 50 बरस से ऊपर हो चुके हैं। लेकिन पहचान के मामले में वह अब भी, मोटे तौर पर पिता की बनाई सियासी ज़मीन पर खड़े नज़र आते हैं। इसीलिए हो सकता है, उनमें अपनी अलग पहचान बनाने की छटपटाहट दिख रही है। अलबत्ता, इसके लिए रास्ता उन्होंने सदी पुराना चुना है।

भारत का सियासी इतिहास पलटें तो तमिलनाडु में ख़ासकर, हिन्दी भाषा के विरोध का लम्बा सिलसिला मिलेगा। लेकिन कब? 20वीं सदी में, 1937 और उसके बाद के कुछ सालों में। साथ ही, लगभग उसी दौर में दक्षिण-बनाम-उत्तर भारत का भेद भी वहाँ की सियासत पर हावी दिखेगा। उस सफल सियासी-सूत्र ने कई तमिल नेता उभारे। उनमें से एक मौज़ूदा मुख्यमंत्री के पिता भी रहे। इसीलिए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री का अनुमान है कि भाषा और क्षेत्र की वही पुरानी राजनीति उनकी छवि भी चमका सकती है। सो, राष्ट्रीय शिक्षा नीति और चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन के मुद्दों की आड़ लेकर पहले के माध्यम से वह हिन्दी विरोध और दूसरे से दक्षिण-बनाम-उत्तर की लड़ाई खड़ी कर रहे हैं।

दरअस्ल, राष्ट्रीय शिक्षा नीति में दक्षिण के राज्यों में उनकी अपनी मातृभाषा के साथ अंग्रेजी और हिन्दी मिलाकर तीन भाषाएँ पढ़ाए जाने का प्रावधान है। बदले हुए दौर की आवश्यकताओं के मद्देनज़र यह प्रावधान उपयोगी भी लगता है। लेकिन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री इसे जबरन हिन्दी थोपने की कोशिश बता रहे हैं। इस आधार पर उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू करने से इंकार कर दिया है। मगर दिलचस्प बात देखिए कि उन्हीं के राज्य के भीतर से उनके इस इंकार पर इंकार की आवाज़ें उठने लगीं। मिसाल देखिए। तमिलनाडु के ही चेन्नई से संचालित एक बड़ी कम्पनी है ‘ज़ोहो’। इसके संस्थापक श्रीधर वैम्बू ने इसी 26 फरवरी को खुला आह्वान किया, “राजनीति की अनदेखी करें, आइए हिन्दी सीखें। तमिल इंजीनियरों और उद्यमियों को तेज बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था में इससे लाभ होगा।”

ख़बर है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की इस मामले में सोशल मीडिया पर भी ख़ूब खिंचाई होने लगी हैं। उनसे जुड़ा एक वीडियो चल रहा है, यप्पा यप्पा, अय्यप्पा। उसमें हिन्दी विरोध के लिए उनका मज़ाक बनाया गया है। ऐसी ही स्थिति चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन के मामले में है। उसमें तमिलनाडु के मुख्यमंत्री यह दावा कर रहे हैं कि 2026 से होने वाले परिसीमन में दक्षिण के राज्यों की सीटें कम हो जाएगीं। जबकि सच्चाई यह है कि परिसीमन जनसंख्या के आधार पर होना है। देश के किसी राज्य में जनसंख्या कम तो हुई नहीं है। कहीं कम, कहीं ज़्यादा बढ़ी ही है। तो जहाँ कम बढ़ी है, वहाँ सीटें जस की तस रह सकती हैं। जहाँ ज़्यादा बढ़ी है, वहाँ कुछ बढ़ सकती हैं।

इसके बावज़ूद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री परिसीमन के मसले को दक्षिण-बनाम-उत्तर भारत का स्वरूप देने में लगे हैं। ये बात अलग है कि उसका भी दक्षिण भारत से ही विरोध हो चुका है। आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने साफ कहा है, “हर 25 साल में होने वाला परिसीमन अलग मसला है। जनसंख्या प्रबन्धन अलग मसला है इनका घालमेल नहीं करना चाहिए। मैं देशहित की बात कर रहा हूँ। इन मामलों की इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए।”

कुछ-कुछ यही हाल जाति की राजनीति की वक़ालत करने वालों का है। दो नेता हैं। उन्हें ‘यूपी के दो लड़के भी कहा जाता है। दोनों को भी उनकी राजनैतिक ज़मीन उनके पिताओं-पूर्वजों ने बनाकर दी है। वही उनकी पहचान है। उसी ज़मीन से उन्हें प्रेरणा मिलती है। इसलिए वे सदी पुरानी जाति की राजनीति की पैरोकारी भी जब-तब ख़ूब किया करते हैं। जातियों की जनगणना कराने की वक़ालत किया करते हैं। चुनावों में जाति आधारित प्रयोग भी करते हैं। ऐसा ही प्रयोग लोकसभा चुनाव-2024 में किया। उससे अयोध्या की सीट जीत भी ली। लेकिन फिर हुआ क्या?

अभी फरवरी में जब उसी अयोध्या की मिल्कीपुर विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुआ। उसमें स्थानीय मतदाताओं ने ‘यूपी के दो लड़कों की जाति आधारित सियासत को ठेंगा’ दिखा दिया। ‘दो लड़कों’ का चहेता प्रत्याशी चारों खाने चित हो गया। अलबत्ता, इसके बावज़ूद लगता नहीं कि ये सब ‘नेताजी’ इन उदाहरणों और अनुभवों से कुछ सीखेंगे। समझेंगे कि अब दौर बदल चुका है। देश बदल चुका है। पीढ़ी बदल चुकी है। बदलाव के इस दौर में सदी पुरानी भाषा-क्षेत्र-जाति आधारित ज़्यादा चलेगी नहीं, भले वह कभी-कुछ तात्कालिक फ़ायदा दे दे।

हालाँकि इन ‘नेताजी’ लोगों से अपेक्षा फिर भी है कि वे कुछ नया सोचें। नए दौर में, नई राजनीति करें। फि़ज़ूल, घिसे-पिटे सियासी नुस्ख़ों से विपक्ष की ज़मीन कमज़ोर न करें। नहीं तो सत्ता को तानाशाह होने से कोई रोक नहीं पाएगा।

सोशल मीडिया पर शेयर करें
From Visitor

Share
Published by
From Visitor

Recent Posts

सवाल है कि 21वीं सदी में भारत को भारतीय मूल्यों के साथ कौन लेकर जाएगा?

विश्व-व्यवस्था एक अमूर्त संकल्पना है और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले घटनाक्रम ठोस जमीनी वास्तविकता… Read More

2 days ago

महिला दिवस : ये ‘दिवस’ मनाने की परम्परा क्यों अविकसित मानसिकता की परिचायक है?

अपनी जड़ों से कटा समाज असंगत और अविकसित होता है। भारतीय समाज इसी तरह का… Read More

4 days ago

रिमोट, मोबाइल, सब हमारे हाथ में…, ख़राब कन्टेन्ट पर ख़ुद प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाते?

अभी गुरुवार, 6 मार्च को जाने-माने अभिनेता पंकज कपूर भोपाल आए। यहाँ शुक्रवार, 7 मार्च… Read More

5 days ago

ध्यान दीजिए और समझिए.., कर्नाटक में कलाकारों के नट-बोल्ट कसेगी सरकार अब!

कला, साहित्य, संगीत, आदि के क्षेत्र में सक्रिय लोगों को समाज में सम्मान की निग़ाह… Read More

1 week ago

विश्व वन्यजीव दिवस : शिकारियों के ‘सक्रिय’ दल, मध्य प्रदेश की जंगल-फौज ‘पैदल’!

“घने जंगलों में निगरानी के लिहाज़ से ‘पैदल’ गश्त सबसे अच्छी होती है। इसलिए मध्य… Read More

1 week ago

जाल में जेलेंस्की, मगर ज़िम्मेदार कौन? और अब अगला कौन?

विश्व के सबसे शक्तिशाली और समृद्ध देश अमेरिका के राष्ट्रपति भवन से इसी 28 फरवरी,… Read More

1 week ago