#अपनीडिजिटलडायरी के तीन साल, तीन ताल जैसे… कभी भरे, कहीं खाली!

विकास वशिष्ठ, मुंबई

तीन साल। तीन साल हो गए। हमें जुड़े हुए। जोड़े रखते हुए। आपकी #अपनीडिजिटलडायरी के तीन साल। एक फेसबुक पेज से हुई यह छोटी-सी शुरुआत आज जिस भी मक़ाम पर है, आपसे है। तो, पहली बधाई आपको। क्योंकि आप ही इस बधाई के असली हक़दार हैं। 

अपना तीन साल का यह सफ़र संगीत के ‘तीन ताल’ की तरह रहा है। हम सभी के लिए। जो संगीत से थोड़ा-बहुत भी वास्ता रखते हैं, वे जानते होंगे। ‘तीन ताल’ 16 मात्राओं की होती है। ये मात्राएँ चार-चार मात्राओं के चार ही विभागों में बँटी होती हैं। इनमें से पहले, दूसरे और चौथे विभाग को ‘भरा’ कहते हैं। लेकिन तीसरे को ‘खाली’। ये ‘भरे’ और ‘खाली’ की व्यवस्था बहुत दिलचस्प है। ‘भरे’ को भरा इसलिए कहते हैं क्योंकि इन तीनों विभागों की पहली मात्रा पर ताली बजाई जाती है। लेकिन ‘खाली’ वाले विभाग में तालवाद्य के बोल एक रिक्तता का आभास देते हैं। मात्राएँ गिनते वक़्त भी इस विभाग की किसी मात्रा पर ताली नहीं बजती। लेकिन तीसरे विभाग का यह ‘खालीपन’ ही वह सशक्त संकेत होता है कि अगले विभाग (चौथे) की चार मात्राएँ निकलते ही ‘सम’ आने वाली है। सचेत हो जाइए। ‘सम’ यानी वह मुहाना जिसके जरिए साधक, कलाकार किसी ताल-चक्र में प्रवेश करता है। 

‘लय’ के साथ ताल-मेल बनाए रखने के लिए, अपने सांगीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए इस ‘सम’ को, ताल के ‘मुहाने’ को ध्यान में रखना अनिवार्य होता है। नहीं तो गाड़ी पटरी से उतर जाती है। सुनने वालों को संगीत का आनन्द क़तई नहीं मिल पाता। #अपनीडिजिटलडायरी के बीते तीन साल के सफ़र में हम सबके साथ ‘तीन-ताल’ का यही क्रम चला है। ‘सम’ के साथ हम जोश से ‘भरे’ शुरू हुए। थोड़ा आगे बढ़े। लेकिन बीच में कुछ अन्तराल ‘खाली’ का आ गया। उसने हमें फिर सचेत किया। याद दिलाया कि ‘मुहाना’ आने वाला है। सचेत हो जाइए। नहीं तो, ताल-मेल बिगड़ जाएगा। गाड़ी पटरी से उतर जाएगी। हम फिर सचेत हुए। मुहाने पर वापस आए और ताल-चक्र के अगले आवर्तन में प्रवेश कर गए। यह क्रम ‘निरन्तरता’ से चल रहा है।

इस ‘निरन्तरता’ की प्रेरणा हमें उन ‘सप्त-ऋषियों’ से मिलती है, जिनका आज दिवस है। सनातन परम्परा में भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि ‘ऋषि पंचमी’ कहलाती है। यह सप्त-ऋषियों को समर्पित होती है। परिवार के बुज़ुर्ग बचपन से ही हमें आकाश के विभिन्न तारों की पहचान कराते रहे हैं, “देखो, वह ध्रुव तारा है। वह शुक्र है। वह बुध है। वह सात तारों का समूह सप्त-ऋषि कहा जाता है। ये सब हमारे पुरखे हैं। हमारे पूर्वज।” वे हमें अक़्सर यह भी ताक़ीद करते रहे हैं, “सुबह ब्रह्म-मुहूर्त (सुबह चार-पाँच बजे) में उठा करो। हमारे पुरखे हमें आशीर्वाद देते हुए ऊपर से गुजरते हैं।” शुरू में यह बात शायद समझ न आती हो। लेकिन बड़े होने तक, अगर सोचें तो समझ आने लगता है कि ये जो ऊपर तारे हैं, यही तो हैं जो रोज हम पर आशीष बरसाते जाते हैं।

हम सुबह उठें, न उठें। हम उन्हें देखें, न देखें। आसमान साफ़ हो या बादलों से ढँका हो। मौसम अनुकूल हो या प्रतिकूल हो। हमारे ये पुरखे, ये सप्त-ऋषि, ध्रुव, शुक्र, बुध, अपना क्रम, अपनी निरन्तरता कभी नहीं तोड़ते। तो हम क्यों तोड़ें? बीते तीन सालों में हमने अपने उद्देश्य की, प्रयास की, कर्त्तव्यों की निरन्तरता बनाए रखी है। क्योंकि हमारे साथ ईश्वरीय योजना का यह सुखद संयोग है कि तीन साल पहले जिस दिन #अपनीडिजिटलडायरी का लोकार्पण हुआ, वह दिन ‘ऋषि पंचमी’ का था। यक़ीन मानिए, हमने लोकार्पण के लिए इस दिन का इंतिज़ार नहीं किया था। हम तो गणेश-चतुर्थी से शुरू करना चाहते थे। लेकिन जैसा पहले कहा, ‘ईश्वरीय-योजना’ थी। इसलिए शुरुआत ऋषि-पंचमी से हुई। हमने ईश्वरीय संकेत, आदेश को स्वीकारा और इसी दिवस को #अपनीडिजिटलडायरी की सालगिरह के लिए सुनिश्चित किया। ताकि हमें अपने पुरखों की ऋषि-परम्परा कभी भूले नहीं।

बस, तभी से तीन-ताल की तरह भरे-खाली विभागों से गुजरते हुए हमारे प्रयासों की निरन्तरता बनी हुई है। हालाँकि  व्यावसायिक दौर में किसी व्यावसायिक उपक्रम के लिए तीन साल का समय लम्बा होता है। इतने वक़्त में कई उपक्रम अपने कारोबार के लिए पूँजी जुटाने, मुनाफ़ा कमाने के कई चरण पूरे कर लेते हैं। और अगर आगे सम्भावनाएँ ठीक न दिखें तो कई बार उपक्रम को बन्द कर, अगला शुरू कर देते हैं। लेकिन हम बिना पूँजी, बिना मुनाफ़े के भी बने हुए हैं। जब तक वश चलेगा, बने रहने वाले हैं। क्योंकि हमें जो मुनाफ़ा लेना है, उस तक पहुँचने का सफ़र ज़रा लम्बा है। हमें लोगों के दिल-ओ-दिमाग में जगह बनानी है। हमें ख़ुद को भीड़ से अलग रखना है। वक़्त तो लगेगा इसमें। काफ़ी लगेगा।वह हस्तीमल हस्ती साहब का मशहूर शे’र है न, ‘ज़िस्म की बात नहीं थी, उनके दिल तक जाना था। लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है।’ हम वाक़िफ़ हैं इस सच से। 

तसल्ली की बात है कि हमारे प्रयासों को कुछ प्रतिसाद मिलने भी लगा है। कुछ उदाहरण हैं ग़ौर करने के। मसलन- जब हम शुरू हुए, तो जयपुर के एक ‘वरिष्ठ पत्रकार’ ने हमें ताना दिया था, ‘अच्छा, तो अब डायरी लिखेंगे और लिखवाएँगे।’ हमने उन्हें कुछ नहीं किया। इस वाक़ि’अे के क़रीब डेढ़ साल बाद उन्हीं ‘पत्रकार’ साहब के घर के एक बच्चे ने किताब लिखी। उनकी अपनी बेटी ने उस पुस्तक की समीक्षा लिखी। लेकिन जब उस समीक्षा को प्रकाशित करने की बारी आई, तो उन्होंने हमें चुना। हमने भी उन्हें निराश नहीं किया। ऐसे ही प्रयागराज की एक संस्कृत शिक्षिका हैं। उन्होंने आशंका जताई थी कि व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में हम भी अपने उद्देश्य से भटक जाएँगे। लेकिन हम नहीं भटके। और अभी दो महीने पहले की ही बात है, उन्हीं शिक्षिका ने अपने लेखों को #अपनीडिजिटलडायरी पर प्रकाशित करने की अनुमति दी। सहर्ष और दिल से धन्यवाद के साथ।

यही नहीं। छठवीं कक्षा की बच्ची है अपूर्वी। और 11वीं में पढ़ने वाली बच्चियाँ- देवांशी, ज़ीनत ज़ैदी, खुशी अरोड़ा और वैष्णवी। ये लगातार #अपनीडिजिटलडायरी पर सक्रिय हैं। अपने लेख, अपनी आवाज़, अपने हुनर से इस मंच को समृद्ध कर रही हैं। वह भी तब जबकि माता-पिता बच्चों को मीडिया और सोशल मीडिया से दूर रखने की पूरी क़ोशिश करते हैं। मगर डायरी पर योगदान देने के लिए इन बच्चों के माता-पिता, गुरु इन्हें प्रोत्साहित करते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के साथ शुरुआत से ही जुड़े हुए हैंं, समीर शिवाजीराव पाटिल। सोशल मीडिया से निराश होकर लगभग सभी मंच छोड़ चुके हैं। पहले डायरी पर योगदान देने से भी झिझकते थे। लेकिन #अपनीडिजिटलडायरी के साथ अब उनके भी लेखों, कविताओं, कहानियों की निरन्तरता बन गई है। 

हमने किताबों की अच्छी श्रृंखलाएँ चलाई हैं। ऋचा लखेड़ा जैसी मशहूर लेखिका की पुस्तक ‘मायावी अम्बा और शैतान’ की श्रृंखला अभी चल ही रही है। उन्हीं की तरह लिंक्ड-इन पर हमेशा लिखने वाले बेंगलुरू के निकेश जैन हैं। उन्हीं के जैसे संदीप नाईक, इरफ़ान साहब जैसे मशहूर इन्फ्लूएंसर हैं। तुलसी के रामरचित मानस और वाल्मीकि रामायण का तुलनात्मक अध्ययन सामने रखने वाले कमलाकान्त त्रिपाठी जी जैसे अकादमिक लेखक हैं। ऐसे तमाम लोगों के साथ इन तीन वर्षों के दौरान हम जुड़े। उनकी सामग्री हमने इस्तेमाल की। यहाँ तक उनकी भाषा को भी अपने मापदंडों पर बदला। लेकिन हमारी ख़ुशक़िस्मती कि कभी हमारे इरादे पर किसी ने सन्देह नहीं किया। बल्कि लगातार हमें सहयोग ही दिया। हम पर अपना भरोसा बनाए रखा। 

यही असल मायने में हमारी कामयाबी है। और हमें अपनी इस कामयाबी पर नाज़ है। इस कामयाबी का एकमात्र सूत्र है, निरन्तरता और उद्देश्य की पवित्रता। हालाँकि, यह इतना सहज भी नहीं है। किसी प्लैटफॉर्म से एक नया पैसा न आने पर भी उसके लिए जी-जान से लगे रहने वालों (#अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक, इस पर लिखने और इसे प्रोत्साहित करने लिए के वक्त निकालने वाले) को कोई पागल ही कहेगा। मगर ये पागलपन भी है, तो अच्छा है। क्योंकि हम कभी अवमूल्यित न होने वाली मुद्रा कमा रहे हैं – भरोसा। 

तीन ताल जैसे इन तीन साल की शुभकामनाएँ।

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Neelesh Dwivedi

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