विजय मनोहर तिवारी की पुस्तक, ‘भोपाल गैस त्रासदी: आधी रात का सच’ से, 27/12/2021
अशोक वर्णवाल (मध्य प्रदेश के वरिष्ठ आईएएस अफसर) ने लिखा…
मोती सिंह के सामने विकल्प था कि वे किसे चुनें- ‘मैं नहीं तो कोई और’ या ‘मैं नहीं भले कोई और।’ उन्होंने पहला और आसान लगने वाला विकल्प चुना। कोई और उस काम को करने के लिए राजी हो सकता था तो वे क्यों नहीं।
भोपाल गैस त्रासदी के फैसले और तत्कालीन कलेक्टर सिंह के खुलासे के बाद वॉरेन एंडरसन को भगाने में कौन दोषी था और कौन नहीं, इस पर विवाद में जन्म ले लिया है। मोती सिंह यह कहकर शांत रह सकते हैं कि मुख्य सचिव के आदेश पर उन्होंने और पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी ने पंडरसन के भोपाल से निकलने की व्यवस्था की। मुख्य सचिव का तथाकथित आदेश निश्चित रूप से संवैधानिक अथवा न्यायिक या नियमों के मापदंड के अनुरूप नहीं था। फिर इन दोनों महानुभाव में उसके पालन में त्वरित सक्रियता क्यों दिखाई?
हादसे के तीन दशक बाद हम और आप बड़े ही विवेकपूर्ण तरीके से से एंडरसन को भगाने के निर्णय की समीक्षा कर सकते हैं। पर कल्पना कीजिए उस वक्त की जब यह हादसा हुआ था। हादसे के तत्काल बाद जिला प्रशासन पूरी तरह से राहत कार्यों में लगा होगा। हर तरफ लाशों का अंबार और उनका सुरक्षित निराकरण जिला प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती रही होगी। रोते कलपते परिवार और नाकाफी चिकित्सा व्यवस्था किसी भी शख्स की रूह को हिला देने के लिए काफी होंगे। ऐसे माहौल में कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक के लिए, जो इन राहत कार्यों के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार रहे हों और अंजाम दे रहे हों और जिनके लिए एक-एक क्षण कीमती हो, क्या चंद घंटे उस शख्स के लिए निकालना संभव था, जो इन सबके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार था? पर नहीं, उन्होंने न केवल राहत कार्यों को छोड़ा, बल्कि एंडरसन को भगाने के भी सारे इंतजामात किए और वह भी एक मौखिक गैरकानूनी आदेश के पालन के लिए। आखिर क्यों?
इन सारे प्रश्नों के पीछे वह सच छिपा है, जो हमारी व्यवस्था को खाए जा रहा है और जिसके कारण हमारे समाज का शक्तिशली तबका अपनी मनमानी करने में लगा है। मोती सिंह चाहते तो मुख्य सचिव को आदेश से मना कर सकते थे। एंडरसन शायद तब भी भोपाल से भाग जाता क्योंकि मुख्य सचिव शायद मोती सिंह के स्थान पर किसी अन्य को कलेक्टर बना देते जो उनका गैरन्यायिक आदेश मानने के लिए तैयार होता। पर तब कम-से-कम मोती सिंह अपनी अंतरात्मा पर बोझ डाले अपना कार्यकाल नहीं पूरा करते। उनके सामने विकल्प था कि वे किसे चुनें ‘मैं नहीं तो कोई और’ या ‘मैं नहीं भले कोई और।’ उन्होंने पहला और उस समय आसान लगने वाला विकल्प चुना कोई और यदि उस काम को करने के लिए राजी हो सकता था तो वे क्यों नहीं! शायद अब यह चुप्पी उन्होंने इसलिए तोड़ी है क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्होंने जो किया, सही किया। प्रत्येक नौकरशाह अपने कार्यकाल में अनेक बार इस स्थिति से टकराता है। हर किसी को, जिसे विकल्प चुनने की स्थिति से नहीं गुजरना होता, दूसरा विकल्प ही अच्छा लगेगा। चर्चाओं में भी बड़ी आसानी से कह दिया जाता है कि अफसरशाही समझौता क्यों करती है और दूसरा विकल्प क्यों नहीं चुनती? पर क्या यह इतना सरल है?
पूर्व नौकरशाह एमएन बुच कहते हैं कि यदि वे मोती सिंह के स्थान पर होते तो मुख्य सचिव को गिरफ्तार कर लेते। बुच साहब की छवि ईमानदार और कर्मठ अधिकारी की रही है पर वे भी यदि अपनी उपलब्धियों का हिसाब लगाने बैठेंगे तो पाएंगे कि उनके लगभग तीन दशक के कार्यकाल में भोपाल के मास्टर प्लान के अलावा शायद ही कोई ऐसी चीज ध्यान में आएगी, जिसके वृहत और दूरगामी लाभ हुए हों। तात्पर्य यह है कि एक आदमी से सारा तंत्र नहीं बदल सकता । जो लोग कठिन विकल्प ‘ मैं नहीं भले कोई और’ चुनते हैं, वे भी आखिर कब तक ऐसा करने की क्षमता रख पाते हैं? एमएन बुच को भी अंतत: समय से पहले इस्तीफा देना पड़ा। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में नवमनोनीत सदस्य हर्ष मंदर ने जब पंचायतों के भ्रष्टाचार की जांच की तो उन्हें भी विकल्प चुनने का अवसर दिया गया। कठिन विकल्प चुनने पर उनकी कलेक्टर पद से विदाई हो गई और नए कलेक्टर ने आसान विकल्प चुन लिया। अंतत: हर्ष मंदर ने भी सरकार से बाहर अपना रास्ता चुन लिया।
अमेरिकी सरकारी तंत्र ने 11 सितंबर के बाद कानून की आड़ निर्दोषों के साथ जैसे सलुक किए, वह उनका एक अलग चेहरा था। वही अमेरिका एंडरसन को बचाने के लिए दूसरों पर दबाव बनाता है, यह भी उसी का एक चेहरा है। वस्तुतः यह अकेले अमेरिका का दोहरा चरित्र नहीं बल्कि जो शक्तिशाली हैं, संभवतः उनका यही चरित्र है।
हालांकि यह कहना भी एक निराशावादी नजरिया होगा कि जो कठिन विकल्प चुनते हैं, उनके लिए हमेशा बुरा ही होता है। समझदार शासकों ने ऐसे लोगों को भी अच्छे अथवा अपना हित साधने के उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया है और ऐसे इस्तेमाल से तंत्र को कुछ न कुछ नया मिला भी है। परंतु दुर्भाग्य यह है कि इस आधुनिक भौतिकतावादी दुनिया में तंत्र द्वारा ‘मैं नहीं तो कोई और’ को तरजीह देने से दूसरे विकल्प अपनाने वालों का मनोबल क्रमश: घटता जाता है। तंत्र द्वारा आसान राह अख्तियार करने वालों को प्रोत्साहन से एंडरसन को भगाने जैसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी. शायद यह कहना गलत होगा।
( जारी….)
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(नोट : विजय मनोहर तिवारी जी, मध्य प्रदेश के सूचना आयुक्त, वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। उन्हें हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार ने 2020 का शरद जोशी सम्मान भी दिया है। उनकी पूर्व-अनुमति और पुस्तक के प्रकाशक ‘बेंतेन बुक्स’ के सान्निध्य अग्रवाल की सहमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर यह विशेष श्रृंखला चलाई जा रही है। इसके पीछे डायरी की अभिरुचि सिर्फ अपने सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकार तक सीमित है। इस श्रृंखला में पुस्तक की सामग्री अक्षरश: नहीं, बल्कि संपादित अंश के रूप में प्रकाशित की जा रही है। इसका कॉपीराइट पूरी तरह लेखक विजय मनोहर जी और बेंतेन बुक्स के पास सुरक्षित है। उनकी पूर्व अनुमति के बिना सामग्री का किसी भी रूप में इस्तेमाल कानूनी कार्यवाही का कारण बन सकता है।)
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श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ
11. भोपाल गैस त्रासदी घृणित विश्वासघात की कहानी है
10. वे निशाने पर आने लगे, वे दामन बचाने लगे!
9. एंडरसन को सरकारी विमान से दिल्ली ले जाने का आदेश अर्जुन सिंह के निवास से मिला था
8.प्लांट की सुरक्षा के लिए सब लापरवाह, बस, एंडरसन के लिए दिखाई परवाह
7.केंद्र के साफ निर्देश थे कि वॉरेन एंडरसन को भारत लाने की कोशिश न की जाए!
6. कानून मंत्री भूल गए…इंसाफ दफन करने के इंतजाम उन्हीं की पार्टी ने किए थे!
5. एंडरसन को जब फैसले की जानकारी मिली होगी तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी रही होगी?
4. हादसे के जिम्मेदारों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए थी, जो मिसाल बनती, लेकिन…
3. फैसला आते ही आरोपियों को जमानत और पिछले दरवाज़े से रिहाई
2. फैसला, जिसमें देर भी गजब की और अंधेर भी जबर्दस्त!
1. गैस त्रासदी…जिसने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को सरे बाजार नंगा किया!