डॉ रवि प्रभात, रोहतक, हरियाणा से, 12/3/2021
#अपनीडिजिटलडायरी पर भारतीय दर्शन श्रृंखला का पहला लेख पढ़ा। शुरुआत बहुत अच्छी है।
मेरी भी यही मान्यता है कि भारतीय संस्कृति अपने उदातग स्वरूप में, समृद्ध चिन्तन परम्परा में, ज्ञान विज्ञान की उन्नति में, वाद-प्रतिवाद, तर्क-वितर्क, इन सब में तभी विकसित हो पाई, जब हम भौतिक ऐश्वर्य से युक्त हो चुके थे। जीवन व्यवस्थित था। कोई न कोई शासन, न्याय प्रणाली आकार ले चुकी थी। कभी भी भूखा, कबीलाई, घुमक्कड़ समाज इतना उत्कृष्ट चिन्तन नहीं दे सकता।
सबसे बड़ी बात भौगोलिक दृष्टि से भी देश के प्रत्येक भाग में ज्ञान-विज्ञान, चिन्तन-मनन की एक सी अथवा एक से बढ़कर एक परम्परा के चिह्न विकसित होते हैं।
कल्पना करें, बाकी विश्व खाने और पहनने की सही दृष्टि भी जब विकसित नहीं कर पाया था, तब भारतीय ऋषि आत्मस्थ चिन्तन में रत थे।
आपको इस श्रृंखला के लिए अनेकशः शुभकामनाएँ। हम सब लाभान्वित होंगे।
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(डॉ रवि प्रभात, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक, हरियाणा के संस्कृत विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। उन्होंने यह प्रतिक्रिया डायरी के कमेंट सेक्शन में भेजी है।)
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