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‘ग़ैरमुस्लिमों के लिए अन्यायपूर्ण वक़्फ़’ में कानूनी संशोधन कितना सुधार लाएगा?

समीर पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश

भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव उतार पर है। इसके बाद आशंका है कि वक़्फ़ संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ फिर देश के भीतर धीरे-धीरे विरोध के सुर बुलन्द हो सकते हैं। ठीक उसी तरह जैसे भारत-पाकिस्तान तनाव शुरू से पहले हो रहे थे। वक़्फ़ (संशोधन) अधिनियम संसद से चार अप्रैल 2025 को पारित हुआ। उसके साथ ही विपक्ष, उदारपन्थी देशी-विदेशी मीडिया और अदालत-ए-उज़्मा ने इसे मुस्लिमों की मज़हबी स्वतंत्रता और कौमी मामलों में हस्तक्षेप बताना शुरू कर दिया था। जबकि धर्मनिरपेक्षता की चाशनी में डूबे लोगों में कोई भी गहराई से यह समझने की कोशिश नहीं करता कि वक़्फ़ का अधिकार गैर-मुस्लिमों के खिलाफ एक घातक हथियार से कम नहीं।

साफ और ज़ाहिर बात है कि ‘वक़्फ़ की अवधारणा’ किसी भी ज़मीन-सम्पत्ति को अल्लाह की बनाकर अनन्तकाल के लिए मुस्लिमों के लिए आरक्षित कर देती है। फिर भी यदि आँखों में सूरज की तेज रोशनी की तरह चुभने वाली इस अवधारणा को हम मज़हबी स्वतंत्रता मान लेते हैं, तो फिर हमें बचाने वाला कोई नहीं बचता। कारण कि हम यह देख नहीं पा रहे हैं कि इसके जरिए दिन-पर-दिन, साल-दर-साल धीरे-धीरे दुनियाभर की ज़मीन सिर्फ़ मुस्लिमों के उपभोग के लिए आरक्षित हो रही है। इस अवधारणा का मतलब है कि यदि किन्हीं कारणों से किसी भू-भाग में मुस्लिमों की आबादी भारी घट जाए या ग़ैर-मुस्लिमों की तादाद में भारी वृद्धि हो जाए, यहाँ तक कि वक़्फ़ करने वाले परिवारों का नाम-ओ-निशां तक मिट जाए, तब भी वहाँ की सम्पत्ति मुस्लिमों के लिए ही, उन्हीं की रहेगी। 

वहीं अगर यदि मुस्लिमों की आबादी नैसर्गिक रूप से बढ़ती रहे तो एक दिन ग़ैर-मुस्लिमों के लिए संसाधनों भारी कमी पड़ जाएगी। यह इसलिए होगा क्योंकि वक़्फ़ की ख़ैरात से मुस्लिमों की प्रमादी, कमज़र्फ़ आबादी पनपती और बढ़ती रहेगी। जबकि अन्य मज़हबों की कमज़ोर आबादी के पास वक़्फ़ के समान कोई तंत्र नहीं होगा। बराबरी की बात करें तो अन्य धर्मों के ट्रस्ट, मन्दिर, देवोत्तरों को भी उनके लिए सुरक्षित किया जाना चाहिए। जबकि हमारी जनतांत्रिक सरकार और अदालतें संविधान से हजारों साल पुराने प्राचीन मठ-मन्दिरों की देवोत्तर सम्पत्तियों को बेहयाई से ठगने और लूटने का यत्न करती हैं। ऐसा करने वालों को संरक्षण और प्रोत्साहन भी देती है।

अब आते हैं सबसे अहम मुद्दे पर जिसे कोई राजनीतिक दल, कोई अदालत कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। तीन परिस्थितियों के आलोक में इसको परखने का प्रयास करते हैं।

• एक सज्जन चोरी और डकैती के पैसे कमा कर उससे एक वक़्फ़ बना देते हैं। अदालत में जैसे कि होता ही है, सालों बाद फैसला आता है कि मोमीन हजरात ने कुछ गैर-मुस्लिमों के यहाँ चोरी और डकैती से इकट्ठा पैसा ही वक़्फ़ कर दिया था। तो अब बताएँ कि उस वक़्फ़ का क्या होगा? पीड़ितों के हक की क्या स्थिति होगी?

• यदि कोई वयस्क किसी 16 साल की गैरमुस्लिम लड़की को उसके हीरे जवाहरात और गहनों के साथ भगा ले जाता है। निकाह कर उसके गहने बेचकर इमारत-जमीन ख़रीद कर वक़्फ़ कर देता है। इसके बाद लड़की के वयस्क होने पर वह उसे तलाक दे देता है, ऐसी स्थिति में वक़्फ़ और उस लड़की की सम्पत्ति की क्या स्थिति होगी?

• कोई बड़ा प्रशासनिक अफ़सर अमानत में ख़यानत कर सरकारी कोष से धन की ठगी करता है। लगभग आठ करोड़ रुपयों से ज़मीन खरीदकर उसको वक़्फ़ कर देता है। सालों बाद जाँच में यह बात साबित हो जाती है, अब वक़्फ का क्या किया जा सकता है?

यह तीनों उदाहरण काल्पनिक हैं किन्तु असम्भव नहीं। संविधान और अदालती समझ से जाएँ तो वक़्फ़ की सम्पत्ति हमेशा के लिए अपरिवर्तनीय रूप से अल्लाह की हो जाने से उसमें किसी प्रकार का बदलाव सम्भव नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि वक़्फ़ की अवधारणा नैसर्गिक न्याय के सोच के विरुद्ध है। यह एक ऐसा विधान है जिसे एक बार मान लेने पर वह शासन, संविधान और अदालत से भी ऊपर हो जाता है। ऐसा विधान एक इस्लामी राष्ट्र में मान्य हो सकता है क्योंकि वहाँ न्याय की अवधारणा जिस शरीया से आती है उसमें ग़ैर-मुस्लिम और काफ़िरों के अधिकारों की स्थिति को लेकर कोई सन्देह ही नहीं। लेकिन एक ग़ैर-इस्लामी या कि धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र में तो यह उन्हीं बहुसंख्यकों के ख़िलाफ़ ज़िहाद का माध्यम होता है। इधर, हमारे संविधान के साथ समस्या यह है कि वह इस्लाम को जैसा है, वैसा देखना गवारा नहीं करता। औपनिवेशक हित और प्रभाव के चलते वह इस सत्य से रूबरू नहीं होना चाहता कि इस्लाम ख़ुद को कैसे देखता, समझता और महसूस करता है। अपने बरक्स गैर-मुस्लिमों को कैसे देखता, समझता है। 

इस पूरे तमाशे को एक जनहित याचिका ने बेनक़ाब कर दिया। मामला है 1985 का। चाँदमल चोपड़ा ने 29 मार्च 1985 को क़ुरआन के कुछ असुविधाजनक पहलुओं के विरुद्ध अदालत-ए-आलिया कलकत्ता में एक जनहित याचिका लगाई। इसमें याचिका में क़ुरआन के विविध संस्करण और अनुवादों में अन्य धर्म-मज़हबों के ख़िलाफ़ वैमनस्य और हिंसा के निर्देशों के उद्धरण देते हुए इसे प्रतिबन्धित करने की याचना की गई थी। इस घटनाक्रम से केन्द्र सरकार से लेकर बंगाल तक में उथल पुथल मच गई। सरकार और अदालती व्यवस्था इसे रोकने में लग गई। देश और बंगाल के सबसे बड़े सरकारी वक़ीलों ने इसके ख़िलाफ़ ज़िरह की। अन्त में अदालत-ए-आलिया कलकत्ता ने सुनवाई कर तमाम तकनीकी गलियों का सहारा लेते हुए याचिका में उठाए मूल मुद्दे से किनारा कर लिया।

इस विद्रूप प्रहसन से सिद्ध हो गया कि संविधान की समानता का अर्थ यह है कि एक न्याय का पालन करने वाले नैतिक नागरिक, और किसी चोर, लुटेरे, डाकू, हत्यारे, या ठग के अधिकार समान हैं। धर्मनीतिनिरपेक्ष संविधान में समानता की यह अवधारणा रूढ़ हो गई है कि भारत में एक सभ्य मेहनती, नागरिक को संस्कृति, नीति और सदाचार आधारित जीवन जीने का हक़ है। ठीक उसी प्रकार, उसी अनुपात में एक वहशी, लुटेरे, आततायी व्यक्ति को भी अपने हित के अनुसार नीति-कदाचार आधारित जीवन जीने का भी हक़ है। बल्कि आततायी का हक़ शायद थोड़ा ज़्यादा इसलिए मान सकते हैं कि वह तो अपनी नीचता, बर्बरता और दुष्टता से आप पीड़ित है। ऐसे में सभ्य, सुसंस्कृत समाज के अभिजात्य मूल्यधारक यदि कुछ अतिरिक्त सहन कर उसे ऊपर उठाने की क़वायद करते हैं तो यह उनका कर्त्तव्य है।

अन्त में विशेष बात। यह आलेख से वक़्फ़ की असम्यकता पर चिन्तन जागृत करने का प्रयास है। रात गहरी है। लड़ाई बहुत लम्बी है। कहीं कोई गुमान नहीं कि इस एक लेख से कोई प्रभाव होगा। बस एक उम्मीद है। संविधान और अदालत द्वारा चौपट इस अंधेर नगरी में बदलाव के लिए कसमसाने वाले मानस को यथार्थ को समग्रता से देखने का एक अवसर।

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(नोट : समीर #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना से ही साथ जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं। सनातन धर्म, संस्कृति, परम्परा तथा वैश्विक मसलों पर अक्सर श्रृंखलाबद्ध लेख भी लिखते हैं।) 

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