डॉ.अजय आर्य, रायपुर, छत्तीसगढ़ से, 30/4/2022
हमारा ‘विक्रम संवत्’ ईसवी संवत् से 57 वर्ष पुराना है। महराज विक्रमादित्य ने शकों को हराकर नहीं अपितु खगोलीय घटना के आधार पर विक्रम संवत् प्रारंभ किया था। आज हमारे पास बहुत सारे सॉफ्टवेयर हैं, जिससे हम देख कर सकते हैं। अश्विनी नक्षत्र से रेवती नक्षत्र के बीच विशू का परिवर्तन हुआ था। उसे सूचित करने के लिए विक्रमादित्य ने नववर्ष का आरम्भ किया था। इसके बाद 1,045 वर्ष तक रेवती और अश्विनी नक्षत्र एक-दूसरे से दूर जाते रहे। हमारे यहाँ सूर्यवर्ष और चंद्रवर्ष का चक्र 95 वर्ष में पूरा होता है। जबकि 25,800 वर्ष में यह पुनः बदलता है। इन सब गणनाओं के उल्लेख का मतलब क्या है? यह कि आज बड़े-बड़े यंत्र से भी जिस गणना को सटीक रूप से नहीं किया जा सकता, उसे भारत के प्राचीन खगोलविद्प पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं। यह दुनिया का बड़ा आश्चर्य है।
ये जानकारी दी डॉक्टर पार्थसारथी ने। वे दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध महाराजा अग्रसेन महाविद्यालय में भौतिकी विभाग के सह-आचार्य हैं। ‘भारतप्रज्ञाप्रतिष्ठानम्’, नई दिल्ली और ‘हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय’ की ओर से आयोजित ऑनलाइन राष्ट्रीय संगोष्ठी में उन्होंने ऐसी और भी कई रोचक जानकारियाँ दी। शनिवार 30, अपैल को हुए इस आयोजन का विषय था, ‘भारतीय खगोल शास्त्र एवं पंचांग की प्रामाणिकता।’ इस आयोजन में जनसंचार सहयोगी के तौर पर #अपनीडिजिटलडायरी भी सहभागी हुई। भारतीय संस्कृति, साहित्य, भाषा, कला, आदि से जुड़े अपने सरोकारों के चलते। इसमें करीब 10 से अधिक विश्वविद्यालयों के विद्वानों ने भाग लिया। देश के कोने-कोने से लोग इसमें शामिल हुए। सहभागी बने और विशेषज्ञों के जरिए पंचांग से जुड़ी जानकारियों को समृद्ध किया।
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता के रूप में डॉ. पार्थसारथी ने बताया, “कुछ लोग भारतीय कालगणना को ग्रीस बेबिलोनिया और मिस्र से प्रभावित बताते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि 320 ईसवी पूर्व भारतीय ज्योतिष विद्या ने ग्रीक लोगों को इसकी जानकारी दी थी। इसी तरह, खगोलविद् पहले पृथ्वी की आयु कुछ हजार साल पहले की ही मानते थे। लेकिन भारतीय विद्वानों ने इसकी आयु 4.3 अरब वर्ष पुरानी बताई है। और आज यह बात आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार की है। हमारा सप्तऋषि कैलेंडर दुनिया का सबसे पुराना कैलेंडर माना जाता है। कश्मीर में इसका उपयोग अब भी जारी है। इसमें 2,718 वर्ष की गणना है। भारतीय कालगणना इतनी सटीक और वैज्ञानिक है कि इसमें एक-एक क्षण तथा नक्षत्र, सूर्य, चंद्र की स्थितियों की स्वच्छ और सूक्ष्म स्थितियों तक की चर्चा की गई है।”
डॉक्टर पार्थसारथी के मुताबिक, “हमारी परंपरा दुनिया की सबसे प्राचीन और सुनियोजित परंपरा है। हमारा नगर नियोजन, हमारी चिकित्सा, कृषि, आदि जैसे सभी क्षेत्र सुनियोजित और सुविचारित रहे हैं। इस नियोजन और विचार के क्रम में हमारी कालगणना, पंचांग, खगोल शास्त्र सबसे सशक्त और प्रभावी माध्यम बना। हमारा पंचांग यानि कैलेंडर चंद्र और सूर्य पर आधारित बनाया गया है। जैसे, हमारे खगोलविदों को मालूम था कि चंद्रमा का कक्ष अंडाकार है और वहाँ का 1 दिन हमारे 20 से 27 घंटे के बराबर होता है। इसी आधार पर यहाँ उन्होंने पंचांग में 1 तिथि को इतनी ही समयावधि के हिसाब से तय किया। इस बात को पश्चिम के विद्वानों ने भी बाद में सही माना। हमारे वैज्ञानिक यह भी जानते थे और हमारे लिए उल्लेख भी कर गए हैं कि हर 95 वर्ष के अंतराल में चंद्र वर्ष और सौर वर्ष समान हो जाया करता है। लेकिन इसकी जानकारी पश्चिमी देशों में आज भी सम्भवत: नहीं है।”
कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रोफेसर देवी प्रसाद त्रिपाठी जी ने सँभाली। वे उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलपति हैं। उन्होंने बताया कि आज जो ज्योतिष विद्या प्रचलित है, वह अपने मूल रूप का बहुत छोटा स्वरूप है। जबकि सच्चाई ये है कि इसमें खगोल, भूगोल और गणित की समस्त विद्याएँ समाहित हैं। निहित है। इसीलिए इसे वैदिक ज्ञान-विज्ञान की आँख के रूप में भी विभूषित किया जाता है। इसी तरह अन्य विद्वानों ने भी ‘भारतीय खगोल शास्त्र और पंचांग की प्रामाणिकता” विषय से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर रोशनी डाली।
कार्यक्रम के संयोजन की जिम्मेदारी डॉ.भावप्रकाश गाँधी जी ने निभाई। वे ‘भारतप्रज्ञाप्रतिष्ठानम्’ के गुजरात प्रान्त के संयोजक हैं। गाँधीनगर, गुजरात के राजकीय कला महाविद्यालय में संस्कृत विभाग के सहायक आचार्य और विभागाध्यक्ष भी हैं। कार्यक्रम की शुरुआत में डॉक्टर बृहस्पति मिश्र ने अतिथियों का स्वागत किया। वे हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष हैं। जबकि अन्त में ‘भारतप्रज्ञाप्रतिष्ठानम्’ के छत्तीसगढ़ प्रान्त के सह-संयोजक डॉ अजय आर्य सभी ने को धन्यवाद ज्ञापित किया।
कार्यक्रम में उत्तराखंड, कांगड़ा, लखनऊ, गुजरात, छत्तीसगढ़ आदि से अनेक शिक्षाविदों, खगोलविदों ने भाग लिया। इनमें प्रो.डॉ योगेंद्र धामा, डॉ.वेद वर्धन जी, डॉ. वेदव्रत जी (संयोजक,भारतप्रज्ञाप्रतिष्ठानम्), डॉ सत्यकेतु, अनुजराज पाठक आदि प्रमुख रहे।
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