सब भूलना है, क्योंकि भूले बिना मन मुक्त होगा नहीं

संदीप नाइक, देवास, मध्य प्रदेश से, 19/2/2022

भूलना है बहुत कुछ। मसलन- वे रास्ते जो अब भी ख़्वाबों में भटकते हुए आ जाते हैं। वे बेज़ुबान आँखें जो रास्ता खोज रही थीं। सम्भवतः मंज़िलें भी। पर मैं आसमान से हट ही नहीं रहा था, ज़मीन पर खड़े होकर। मेरे कान उस टिटहरी की ओर लगे थे, जहाँ से अब उसके लौटने की उम्मीद नहीं थी। उन सूनी दुपहरियों को भूलना चाहता हूँ, जहाँ तेज गर्मी में पीपल और बरगद के नीचे गाँव के गाँव खाली पड़े थे महीनों से। और जो लोग चैत काटने गए थे लौटे नहीं थे। कुछ बुज़ुर्गों ने फिर भी मुझसे गुफ़्तगू की थी। एक बच्चे ने हैंडपम्प से खींचकर पानी पिलाया था। उस मिठास और ठंडेपन को भूलना चाहता हूँ। 

गैस के चूल्हे के सामने एक दिन खड़े-खड़े पूरा दूध उफन गया था। हाथ में पकड़े पोस्टकार्ड में दर्ज थी लिखावट तुम्हारी, कि तभी सब कुछ इतना धुँधला हो गया। और दूध उफन कर यूँ बह गया, जैसे जीवन से नमक। और बेस्वाद सा हो गया सब कुछ। सागौन के पत्ते, निम्बोलियों के फूलों और यूकेलिप्टस के छोटे फूलों की भूरी छोटी-छोटी तिकोनी टोपियों को बीनते हुए इतनी दूर चला गया था कि उस दूर गाँव में बसे मिशनरी की वो सिस्टर आकर झिंझोड़ती नहीं और युवा पादरी होटल छोड़ने नहीं आता, तो शायद यह सब आज लिखने का संत्रास ना होता। 

पहाड़ों में कितना भी चल लो या जंगल की पगडंडियों पर भी। यदि आपकी देखने-समझने और चाहने की क्षुधा शान्त न हो, तो न पहाड़ ख़त्म होते हैं, न पगडंडियों की धूल। थका हारा, बिन पानी के चलता जाता था, दूर से क्षितिजनुमा धुएँ के छल्ले दिखते तो आस बँधती थी। नथुनों में गर्म सिंकती रोटी की सुवास, पत्थर पर रगड़ी जाने वाली लाल मिर्च और लहसन की कलियों के साथ बजते गीत ऐसे लगते मानो कही से स्त्रियों के झुंड भोर में उठकर नदियों की ओर जा रहे हों। हाथ में काँसे की थाली में शाश्वत अग्नि का दीया जलाकर जल, जंगल या ज़मीन पूजने। या शाम के समय तुलसी चौबारे पर बूढ़ी औरतें चुहल करती हुईं कोई भजन गुनगुना रही हों, समवेत स्वरों में। जिसमें वो सब प्रायश्चित्त सिलसिलेवार दर्ज़ है, जो वे जीवन में कर न सकीं। मैं कभी कोई गीत नहीं गा पाऊँगा क्योंकि प्रायश्चित्त ही समाहार है, जीवन का अब। 

समुद्र किनारे मछलियों को पकड़कर सैलानियों के सामने मारकर आग में सेंककर खिलाने वाली कर्कशा औरतों के चेहरे याद आते हैं। उनकी झगड़ती, उगलती भाषा शैली और जीवन के प्रति मोह कितना वैभवशाली था। बड़ी छोटी डोंगी में झींगे और केंकड़े पकड़कर ग्राहकों को संतुष्ट करने वाले निर्दयी पुरुष याद आते हैं, जो असंख्य जीवों की हत्या कर बदले 3-4 पेट पालने का खर्च निकालते हैं। उस ऐतिहासिक शिला पर वैभव और सुख-चैन खोजने आए देशी-विदेशी उन बच्चों पर बिल्कुल दया नहीं करते जो उनके फेंके सिक्के खोजने गहराई में उतर जाते हैं और कई बार लौटते भी नहीं हैं। और सिर्फ़ समुद्र नहीं, पापनाशिनी गंगा के तट पर भी देखा है। इन बच्चों को वहीं ठीक पीछे स्थित मणिकर्णिका में कम लकड़ियों में भस्म कर दिया जाता है। हाँफता हूँ, पसीना-पसीना हो जाता हूँ। आधी रात को वहशत से भर जाता हूँ। डरता हूँ और कमरा छोड़कर छत पर आ जाता हूँ। आसमान ताकने लगता हूँ और शुक्र तारे की बाट जोहता हूँ। लगता है ये सब मेरी छाती पर बैठ हिसाब पूछ रहे हैं कि जब मैंने यह सब देखा था तो क्या किया, सत्यमंगलम के जंगल, कोच्चि और चंद्रभागा का समुद्र। कोणार्क के शिखर, द्वारका और रामेश्वरम के खारेपन से घिरी रेत में मीठे पानी के कुंड, तवांग या मंडी के पहाड़ या दंडकारण्य के घने जंगलों में ताड़ के ऊँचे पेड़ों पर चढ़कर सूर्योदय से पहले ताड़ी उतारते लोगों के मासूम चेहरे याद आते हैं, जो कई बार ऊँचे पेड़ से गिरकर मर जाते हैं। और उनका नाम किसी इतिहास में दर्ज़ नहीं होता। 

सब भूलना है। क्योंकि भूले बिना मन मुक्त होगा नहीं। देह, मन, वचन और कर्म से शुद्ध हो, यह कहा गया है। अन्तिम समय में सभी प्रकार के मोह एवं माया से दूर होना चाहिए। पर जितना कोशिश करता हूँ, उतना ही स्मृति दंश चुभता है। छोड़ने के क्रम में संग्रह प्रवृत्ति बढ़ती है। निर्मोही और निस्पृह होने के बजाय आसक्ति बढ़ रही है। कुछ है जो खींचता है। कुछ है, जो तिरोहित करने से रोकता है। कुछ है, जो निरुत्तर कर देता है। 

हम सब बेचैनियों के शिकार हैं। हम जीवन को लेकर आश्वस्त हैं कि यह स्थाई है। हम सब वहाँ हैं, जहाँ हमें नहीं होना था। हम अति-आशावान हैं और अपने होने को लेकर, अपनी सत्ता और अपने स्पेस को लेकर भयानक भ्रम में हैं। एक जगह घेरकर हर कोई बैठा है और उसे लगता है कि वह व्योम का सर्वेसर्वा है। इस नाते वह दूसरे पर हक़ जता रहा है। वह कह भी नहीं पा रहा अपनी बात कि वह किसी और से कितना प्रेम करता है। यह दर्प ख़त्म कर रहा है शनै: शनै: हम सबको। और हम हैं कि कुछ भी भूलना नहीं चाहते। 

मैं इस सबसे पार निकलकर अपने स्पेस को और अपने घेरे को ख़त्म कर देना चाहता हूँ। सब कुछ विस्मृत करके। ज़ल्दी ही, बहुत ज़ल्दी। सम्भवतः आज या अभी। 

“खुसरो शरीर सराय है, क्यों सोवे सुख-चैन
कूच नगारा साँस का, बाजत है दिन रैन।” 
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 46वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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विशेष आग्रह : #अपनीडिजिटलडयरी से जुड़े नियमित अपडेट्स के लिए डायरी के टेलीग्राम चैनल (लिंक के लिए यहाँ क्लिक करें) से भी जुड़ सकते हैं।  
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं : 
47. एक पल का यूँ आना और ढाढ़स बँधाते हुए उसी में विलीन हो जाना, कितना विचित्र है न?
45.मौत तुझसे वादा है…. एक दिन मिलूँगा जल्द ही
44.‘अड़सठ तीरथ इस घट भीतर’
43. ठन, ठन, ठन, ठन, ठन – थक गया हूँ और शोर बढ़ रहा है
42. अपने हिस्से न आसमान है और न धरती
41. …पर क्या इससे उकताकर जीना छोड़ देंगे?
40. अपनी लड़ाई की हार जीत हमें ही स्वर्ण अक्षरों में लिखनी है
39. हम सब बेहद तकलीफ में है ज़रूर, पर रास्ते खुल रहे हैं
38 जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला! 

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