संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से, 24/7/2021
पैदा होने के बाद ग़लत स्कूल में चला गया। वहाँ तीन ग़लत प्राचार्यों और 50-60 ग़लत शिक्षकों ने ग़लत पढ़ा दिया। गणित के बदले जीव विज्ञान विषय गलती से भर दिया प्रवेश फॉर्म में तो भुगतना पड़ा आजतक जीवन में। माध्यमों के खेल में असली खेल सीख ही नहीं पाया कभी। एक दिन जवाहर चौक, देवास में ग़लत जगह खड़े होकर केरल से आए नुक्कड़ नाटक के दल का भोपाल गैस त्रासदी पर नाटक देख लिया और जीवन देखने की दृष्टि ही बदल गई। उस दिन एक गलत बस में बैठा था और वह मुझे उस गाँव ले गई, जहाँ से बदलाव और विकास का नया रास्ता चुना मैंने।
कुछ ग़लत दोस्तों की सोहबत का असर था कि पटरी ग़लत चुन ली। फिर जीवन की रेल किसी मकाम पर नही पहुँच सकी। उन ग़लत दोस्तों को आजतक ढोता रहा और अब वे मेरी आत्मा पर प्रेतात्माओं की तरह नृत्य कर मेरी शान्ति भंग करते हैं। ग़लत किताबों ने उल्टे पुल्टे सिद्धान्तों से दिमाग़ खराब किया। ग़लत विचारधारा अपनाने से मार्ग अवरुद्ध हुआ। उन रास्तों पर चला गया, जहाँ काँटे ज़्यादा और पत्तियाँ कम थीं। फूल तो छोड़ ही दीजिए। आज रॉबर्ट फ्रॉस्ट को याद करता हूँ तो मुस्कुराकर ‘रोड नॉट टेकन’ कविता गुनगुना लेता हूँ।
‘कुबला खान’ की तरह विचार मानो खलबली मचाते हैं हर पल। सब समान थे, यह अजीब लगा। बजाय इसके कि मैं हर जगह अलग और ग़लत क्यों दिखता हूँ? सब भीड़ में हैं। संग साथ है हर कोई, हर किसी के और मैं भीड़ में होकर भी अकेला क्यों हूँ? लोग सहस्र धाराएँ नर्मदा के किनारे खोजते थे। पक्के घाटों पर सौन्दर्य निहारते थे। चाहे वह नर्मदा का महेश्वर घाट हो, होशंगाबाद का सेठानी घाट या गंगा का असी घाट या लखनऊ में गोमती का किनारा। पर मैं रेत घाट या मणिकर्णिका पर लाशों के जलने की पीड़ा को महसूसता था।
पूरी भीड़ जब तंत्र-मंत्र और भविष्य जानने को उत्सुक थी, साधु सन्तों के द्वारों पर, तो मैं श्मशान में सिद्धि सिद्ध कर रहे अघोरियों के बीच हड्डियों के खेल देखता था। आधी रात को अकेला और उनसे कभी नहीं डरा। पचमढ़ी का धूपगढ़ हो या कन्याकुमारी का समुद्र तट। एक भीड़ उगते सूरज से ऊर्जा पाने और देखने को लालायित रहती थी। वहीं, मैं मरीना बीच, ब्रम्हापुत्र के किनारे, सूखी महानदी या खत्म होती माही नदी के किनारे खड़ा होकर डूबता सूरज देखता था। लोग पूजा आरती के समय सीधे हाथ के पंजे को बाएँ पंजे पर पीटकर ताली बजाते हैं। मैं बाएँ हाथ के पंजे से सीधे हाथ के पंजे पर पीटते हुए ताली बजाने की कोशिश करता हूँ पर निराश नहीं होता। कहा न, मेरी अयोग्यताओं की कोई सीमा नही है इस जीवन में। अस्तु न मैं रहूँगा, न मेरा बीज इस संसार में। सब कुछ मेरे साथ ही खत्म हो जाएगा।
तैर नहीं पाया आज तक। कितनी बार कितनी नदियों, तालाबों और समुद्र में उतरा पर तैर नहीं पाया। शायद यह सब संसार होने के पर्याय ही थे। यहाँ वही शख्स तैर पाता है, जिसमे हिम्मत होती है। इस पार से उस पार तक साँस रोककर जाने की, गहरे पानी में डूबकर हाथ-पाँव हिलाते हुए सन्तुलन बनाकर झटके से निकल जाने की। पर बोला न, पूरा बचपन ही ग़लत जगहों में रहा। ग़लत संगत से घिरा और आधी अधूरी यात्राओं में बैठता रहा। इसलिए अपने भीतर वो साहस और जज़्बा पैदा ही नहीं कर पाया। हर जगह से अपने को हकालते-धकेलते यहाँ तक चला आया हूँ, जहाँ ज़िन्दगी एक बार फिर चार कमरों की दीवारों में कैद होकर रह गई है। वैसे ही बिलख रहा हूँ जैसे पैदा होते ही सम्भवतः रोया था।
यह सब करने के लिए भी बहुत हिम्मत चाहिए थी, जो नकारात्मक ऊर्जा के कारण संचित होती रही और आज वह इतनी हो गई है कि एक ढूह सी होकर मेरे भीतर समा गई है। यह नैराश्य और यह नश्वरता का संजीदा भाव इन सघन अनुभूतियों के भीतर मुझे मथता है। कोई है, जो मेरी आत्मा पर एक बोझ बनकर हरदम मेरे भीतर लम्बी परछाई सा पसरा रहता है। डाँटता-डपटता, हरदम खाल खींचता सा। इस अंधेरे बन्द कमरे में मेरी देह के साथ कोई रहता है, निस्तेज और अविचल सा, जो झकझोर कर कहता है कि सब कुछ ग़लत था। यही प्रारब्ध था, तुम्हारा और यही अब शेष भी है।
कहीं सुना था कि ग़लत रेल कभी सही मंजिल पर भी ले जाती है। पर अब लगता है कि जीवन गलतियों का ही दूसरा नाम है। हम सब कहीं न कही ग़लत हैं। बस, यह सोचकर हम चुप हो जाते हैं कि यदि हमने इस सच को स्वीकार कर लिया तो हमारी राह में उजाले खत्म हो जाएँगे। हम उजालों से इसलिए मुतमईन हो जाते है कि हम वहाँ सुरक्षित हैं। फूलों के आँगन में अपनी घिन और बदबू छुपा सकते हैं पर जीवन उजालों और सुवास का पर्याय ही नहीं मात्र। हमारी यात्रा लम्बी और अनथक है। इसमें अंधेरे और सीलन भरे कक्ष है, जहाँ चींटियों की कतारें हैं। उल्टे लटकते चमगादड़ हैं। मुंडेर पर बैठे गिद्ध हैं, जो सिर्फ हमारे ‘बॉडी’ (शव) बनने का इन्तज़ार कर रहे हैं ताकि भरपूर नोच सकें।
मैं अपने को आज इन सबके हवाले करता हूँ और कहता हूँ अपने आपसे कि उजालों का अर्थ अंधेरे से दूर होना नहीं, बल्कि अँधेरों के अस्तित्व पर एक चादर ओढ़कर आश्वस्त होना है कि जीवन जुगनुओं और सितारों के बरक्स ज़्यादा महफ़ूज है, कि गलतियों में ही जीवन मुकम्मल है और कि हमारी राह यहीं से निकलेगी। सुबह हो जाने से रातें खत्म नही होतीं। जैसे सूरज के उग जाने से अँधेरों का साम्राज्य खत्म नहीं होता। किसी को लगता है कि यह सब इतना सहज है तो एक बार फिर से पिछली साँझ में लौटकर निरभ्र आकाश में उड़ती एक अकेली चिड़िया को देख लेना चाहिए।
—
(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 20वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
—
इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
19वीं कड़ी : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!
18वीं कड़ी : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!
मेरे प्यारे बाशिन्दे, मैं तुम्हें यह पत्र लिखते हुए थोड़ा सा भी खुश नहीं हो… Read More
पाकिस्तान के ख़िलाफ़ चलाए गए भारत के ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ का नाटकीय ढंग से पटाक्षेप हो… Read More
अगर आप ईमानदार हैं, तो आप कुछ बेच नहीं सकते। क़रीब 20 साल पहले जब मैं… Read More
कल रात मोबाइल स्क्रॉल करते हुए मुझे Garden Spells का एक वाक्यांश मिला, you are… Read More
यह 1970 के दशक की बात है। इंग्लैण्ड और ऑस्ट्रेलिया के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई… Read More
भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव उतार पर है। इसके बाद आशंका है कि वक़्फ़ संशोधन अधिनियम… Read More