लड़ना न पड़े, ऐसी व्यवस्था आज तक हम किसी सभ्यता में बना नहीं पाए हैं

संदीप नाइक, देवास, मध्य प्रदेश से, 12/3/2022

खुशियाँ छोटी थीं इतनी कि नजर नहीं आती थीं। शायद दरवाज़े पर ‘शुभ-लाभ’ लिखा होने या सुबह माँ की बनाई रंगोली में लक्ष्मी के पाँव देखकर लौट जाती हों। कम खर्च और मितव्ययिता का अर्थ तो अब इस उम्र में मालूम पड़ रहा है। पर उस समय में लम्बा चलना या मन मसोसकर रह जाना, मानो जीवन का स्थाई भाव था। लम्बी-लम्बी बहसों का परिणाम यह होता कि कामरेड लोग कहते कि तुम सुखी हो, जो इतना कुछ है तुम्हारे पास। यह कहकर वे लोग एक लम्बी गाड़ी में, जिसमें विदेशी किस्म की शराब भरी होती, एसी लगा होता, में बैठकर चले जाते। उनके घरों के गमले और पौधों का खर्च मेरी एक माह की तनख़्वाह के बराबर होता था। उनके घरों के एक कप, जो अक्सर हर बार नए देखने को मिलते थे, की कीमत शायद मेरे बदन पर उपलब्ध कुल सामग्री की कीमत के बराबर होती थी। पर फिर भी समाजवाद था और लाल परचम हर जगह लहर जाने की पूरी उम्मीद बरकरार थी और कामरेड लोग समाज में मेरे जैसे युवाओं को जोड़कर अक्टूबर क्रान्ति का दम भरते थे।

उस वक़्त घर में एक थान खरीदा जाता। उसी से हम तीनों भाई, तीनों चचेरे भाई-बहन और पिता सहित तीनों काका कपड़े सिलवाते थे। स्लीपर ख़रीदने को नई चप्पल कहा जाता था। मोहल्ले में कुछ परिवार थे, जिनके बच्चे स्लीपर घर में पहनते थे। थोड़े बड़े होने पर यह फ़र्क जब समझ आया तो बहुत देर हो चुकी थी। कोई कहता कि तुम्हारी माँ बड़ी महान थी। एक जोड़ साड़ी में बीटीआई कर लिया उसने, अप-डाउन करके। पिता तो जीवन भर सफ़ेद शर्ट और काला या भूरा पेंट पहनते रहे। इसलिए कभी मालूम नहीं पड़ा कि उनके पास कितने कपड़े थे, कब नए सिलवाए। हाँ, दिवाली में ‘पारिवारिक गणवेष’ देखकर लोग और रिश्तेदार समझ लेते थे कि इस बरस वसंता और उसकी पत्नी ने नब्बे, ढाई सौ के वेतन से बहुत रुपए बचाए हैं।

नौकरी लगी तो कुछ कमाने लगे। अपने शौक पूरे किए। मसलन- साइकिल ली, किश्तों पर चाँद भाई अल्ला बक़्श वालों से। उनके तीन बच्चों को दो साल तक ट्यूशन देनी पड़ी, घर जाकर। बड़े ज़हीन लोग थे। हफ्ते में एक बार चाय पिला देते थे और पानी बग़ैर नागा रोज मिलता था। गर्मी में कूलर चला देते थे क्योंकि उनके साहबज़ादे को गर्मी बहुत ज्यादा लगती थी। दो कौड़ी की नौकरी में मिलने वाली तनख़्वाह में यह ट्यूशन की कमाई एक तरह का बोनस थी। इससे अपने निजी खर्चे निकलते थे। 

बड़ी हिम्मत करके, 10 रुपए खर्च करके स्टेट बैंक में खाता खुलवाया था। एक किराएदार थे। उनकी पत्नी बैंक में थीं और यहीं रहीं जब तक वे देवास में रहे। उन्होंने जो खाता खोला था, वह आज भी क़ायम है। गाहे-बगाहे जब उसमें सालाना ब्याज के 7-8 सौ रूपए और कभी-कभी तो 250 रुपए जमा हो जाते हैं, तो ख़ुद को मुकद्दर का सिकंदर मानने लगता हूँ। 

पिता की मृत्यु के बाद उनके देयक लेने के लिए बरसों चक्कर लगाता रहा। फिर माँ का देहान्त हुआ। उनके देयक लेने के लिए विभाग से लेकर भारत सरकार तक से लड़ा। इस लड़ाई में इतना पक्का हो गया कि मित्रों के घरों में किसी का देहान्त हो जाए, तो उनका पीएफ निकलवाने से लेकर अनुकम्पा नियुक्ति दिलवाने तक का निशुल्क ठेका लेता था। पर अफ़सोस कि उन्होंने कभी पलटकर न देखा और न धन्यवाद कहा। बल्कि वे आज इस बात से भी इंकार कर दें कि कौन संदीप कौन सी मदद, तो कोई बड़ी बात नहीं। पर साक्षी है उन कागजों की नक़ल, जो आज भी सुरक्षित है मेरे पास। 

लड़ता आज भी हूँ। भाई कि मृत्यु के बाद शिक्षा विभाग से लड़ा। जहाँ काम करने को मिलता है, वहाँ लड़ लेता हूँ क्योंकि कहीं पढ़ा था कि मजदूर को उसकी मेहनत का रुपया, उसका पसीना सूखने के पहले मिल जाना चाहिए। अपने ही रुपए लेने के लिए लड़ना न पड़े, ऐसी व्यवस्था आज तक हम किसी सभ्यता में बना नहीं पाए हैं। अब आयकर विभाग से लड़ता हूँ। धमकी देता हूँ कोर्ट जाने की। तब कहीं 10–20 हजार रुपया रिफंड मिलता है। कैसी व्यवस्था हमने बना ली है कि सब कुछ कागज़ के नोट पर आधारित है। सब कुछ इसी से तय होता है। और बावज़ूद इसके अपना ही रुपया लेने में आपको महीनों इंतज़ार करना पड़ता है, चिरौरी करना पड़ती है, बाबू किस्म के लोगों से। हाथ जोड़ने पड़ते हैं। उफ्फ़, कितना भयावह है, यह सब।  
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 50वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं :
49. मार्च आ गया है, निश्चित ही ब्याज़ आएगा, देर-अबेर, उम्मीद है, फिर…
48. एक समय ऐसा आता है, जब हम ठहर जाते हैं, अपने आप में 
47.सब भूलना है, क्योंकि भूले बिना मन मुक्त होगा नहीं
46. एक पल का यूँ आना और ढाढ़स बँधाते हुए उसी में विलीन हो जाना, कितना विचित्र है न?
45.मौत तुझसे वादा है…. एक दिन मिलूँगा जल्द ही
44.‘अड़सठ तीरथ इस घट भीतर’
43. ठन, ठन, ठन, ठन, ठन – थक गया हूँ और शोर बढ़ रहा है
42. अपने हिस्से न आसमान है और न धरती
41. …पर क्या इससे उकताकर जीना छोड़ देंगे?
40. अपनी लड़ाई की हार जीत हमें ही स्वर्ण अक्षरों में लिखनी है
39. हम सब बेहद तकलीफ में है ज़रूर, पर रास्ते खुल रहे हैं
38 जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला! 

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