अपने हिस्से न आसमान है और न धरती

संदीप नाइक, देवास, मध्य प्रदेश से, 15/1/2022

आसमान खाली है, एक सिर्फ़ सूरज चमक रहा है। सुबह से सन्देश आ रहे हैं कि आज छह ग्रह एक पंक्ति में रहेंगे और यह समय 500 वर्षों बाद आया है। अर्थात फिर आएगा। हो सकता है तब हम सब ग्रह नक्षत्रों के साथ एक पंक्ति में साथ खड़े हो जाएँ। फिर सब कुछ ख़त्म भी हो जाए। मैं कल्पना करता हूँ कि किसी अज्ञात जगह और किसी व्योम में सब टँगे हैं और चर- अचर में भेद मिट गया है। 

सब बदलता है… समय, दृष्टि, दृष्टिकोण, परिप्रेक्ष्य और निश्चित ही हम भी बदलते हैं आख़िर पर बदलता नहीं तो संसार। इसके अपने नियम और क़ायदे होते हैं। हम सबकी जेबें इन्हीं सब क़ायदों से भरी हुई हैं। ख़ाली होते-होते जीवन ख़त्म हो जाता है। पर इनमें सही चीज़ नही भरी जाती कभी। यह देह से चिपकी हुई आत्मा है, जो क्षण-क्षण विदा होती रही पर न इससे हम जुड़ पाए, न अलग हो पाए। 

इन दिनों कभी शाम होते-होते बादल घिर आते हैं। खूब तेजी से पानी गिरता है और पूरा माहौल बेभान हो जाता है। पत्तियाँ हरी हो जाती हैं भीगकर। फूल मानो नहा उठते हैं और देर तक अमृत की नेह बूँदें उनसे यूँ चिपकी रहती हैं, जैसे किसी देह में बरसों बरस रही आत्मा देह जलते समय विलग होने से द्रवित हो जाती है। सुबह से असंख्य तितलियाँ आ जाती हैं और मै उन रंगों में जीवन ढूँढता हूँ। 

मैं इस कड़ी धूप में धरती के किसी कोने में अकेला खड़ा होकर अपना आसमान खोजता हूँ और निराश होता हूँ। मेरे उस टुकड़े पर पक्षियों का झुंड मँडरा रहा होता है। मैं देर तक उन्हें देखता हूँ और लगता है उनमें ही शामिल हो जाऊँ। 

अपने हिस्से न आसमान है और न धरती। हम सब जा रहे हैं। सब बदल रहा है। और इसकी शाश्वती है मुझे। 

अपने को सज़ा दी है मैंने। कभी वो भी कम लगती है। फिर धीरे से कबीर याद आते हैं…

देस-देस का बैद बुलाया 
लाया जड़ी और बूटी,
जड़ी बूटी थारे काम न आई
जद राम के घर से छूटी ..
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 42वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं : 
41. …पर क्या इससे उकताकर जीना छोड़ देंगे?
40. अपनी लड़ाई की हार जीत हमें ही स्वर्ण अक्षरों में लिखनी है
39. हम सब बेहद तकलीफ में है ज़रूर, पर रास्ते खुल रहे हैं
38 जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला! 

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