रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से, 5/6/2021

रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है। चाहे नरम धूप हो या कड़क। सब देह को ही सहना है। धूप जब भीतर आत्मा तक छनकर पहुँचेगी तो हम छाँव की तलाश करेंगे। किसी घनी छाया वाले पेड़ के नीचे जाएँगे। वह मौलश्री का हो, बबूल या देवदार का। छाया का कोई रंग नही होता। धर्म और विश्वास तो बिल्कुल नहीं। 

पर रास्तों पर तो चलना ही होगा। अपने पूरे एकांत और तन्मयता के साथ। इसलिए जब भीतर से ठंडे हो जाओ और लगे कि अपने दोनों पग फिर तैयार हैं, तो निकल पड़ो फिर से। पर ध्यान रहे कि पेड़ की छाया का दायरा है। पेड़ स्थिर हैं। छाया कुछ दूर तक चल सकेगी, जब तक पेड़ की धुरी रहेगी। क्योंकि पेड़ की छाया उसके साम्राज्य के साथ बँधी रहती है। वह पेड़ को नहीं छोड़ सकती। लिहाज़ा एकांत के इस निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा। 

वैसे, एक भीड़ भी चलती है हमेशा, संग-साथ। बाहर और भीतर। लेकिन यह हम पर निर्भर करता है कि हम कहाँ और किसके साथ चलते हैं। सच तो ये है कि शायद हम कभी-कभी अपने आपके साथ भी नहीं चल पाते और वितान बुनते रहते हैं कि आगे खतरे हैं। सतर्क रहें, छुपते रहें और आवाज़ करते हुए डर भगाएँ पर हम अपनी ही आवाजों के प्रतिध्वनि से टकराते हैं बार-बार, बारम्बार। 

कोलाहल है, हलचल है, एक डर है, अवसाद के सायों में टकराती छायाएँ हैं, जो सर्वकालिक हैं। पर इस सबसे बचते-बचाते हुए हमें निकलना है। एक खोल में बन्द करके अपनी देह को यूँ बचा ले जाना है, जैसे नृत्य करती काया बचा लेती है। महीन से महीन आवाज़, जो घुँघरुओं के बजाय साँसों के आरोह-अवरोह को पहचानती है। नियंत्रित करती है और छोटे से मंच पर घूमने का दायरा तय करती है। हालाँकि यही दायरा हमें वृहद् बनाता है। यश और कीर्ति की पताकाएँ फहराता है। 

लम्बी दूरी कई बार सड़कों, वायु या जलमार्ग की ही नहीं होती। यह दूरी अपने भीतर से अपने आपको सच दिखाने और स्वीकारने की भी होती है। यह सब करने और उस मकाम तक पहुँचने के लिए अपने अन्दर के ख़ौफ़ मारना पड़ते हैं। सामने आने के लिए भीषण प्रतिज्ञाएँ लेना होती हैं। तभी हम यह सब पाट भी पाते हैं। सर्वज्ञ या पारंगत होने की ज़रूरत नहीं। बस, सहज होने की आवश्यकता होती है। 

अपने एकांत को अपने भीतर ही समझने की ज़रूरत है। बगैर किसी को कोई स्पष्टीकरण दिए। बगैर किसी तरह की स्वीकारोक्ति किए। अपनी निजता को बनाए रखते हुए। स्वयं को आगाह करते हुए कि यह सब मेरा निज है। यही मेरे साथ जाएगा। जितना बहिर्मुखी बनकर अर्जित किया था, वो यहीं रहना है। अपने किसी नामित के हवाले करते हुए, हम सब कुछ दे देते हैं। पर जो भीतर है, जो लगातार बज रहा है, चेता रहा है और सतर्क कर रहा है, जिसने भीतर ही भीतर संचित कर बड़ा ढूह बना दिया है, उसे खुद ही बाँटना है। उसे ही अपने साथ ले जाना है। क्योंकि जैसा कि बोला, लम्बे रास्ते पर अकेले ही चलते जाना है। 

इस समय जब हर कहीं से आवाज़ों का शोर हावी हो रहा है। अफ़रा-तफ़री मची है। एक स्वार्थ सब पर तारी हो रहा है, तो हमें अपनी यात्रा, धुरी, धूप, छाँव और रास्ते के पेड़ों के बारे में सोचना जरूरी है। इस आपाधापी में हम निकल तो पड़े हैं, पर अपने नामित के नाम हमने कुछ किया है या नहीं। अपने भीतर झाँककर देखा है कि नहीं। लम्बे सफर के लिए प्रार्थनाओं की गठरी भरी है या नहीं। मन के मैल को धोकर सुखाया भी है या नहीं। दिल-दिमाग़ में वो सूफी संगीत की लहरियाँ कंठस्थ कर ली हैं या नहीं, जिन्हें विपदा में होठों से बुदबुदाना है। हाथों में झाँझ और मंजीरे हैं कि नहीं। पीठ पर अपने ढूह का बोझ और एक श्वेत शुभ्र महीन वस्त्र भी है या नहीं, जो सिर पर डाल सकें। ताकि हमारे सारे कर्म छुप जाएँ। यह सब संग रख लिया है न? 

मैं निकल पड़ा हूँ इस भीड़ में रहकर भी अपने एकांत के साथ। मालूम नही कहाँ पहुँचूँगा। पर इतना विश्वास है कि कम से कम अपने आपको इस मोड़ पर स्वीकार कर लिया है और इससे मैं खुश हूँ ….

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 13वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली  कड़ियाँ  ये रहीं : 

12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं

11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है

10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!

नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…

आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…

सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे

छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो 

पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!

चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा

तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!

दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…

पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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