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हे राम… अब नैवेद्य और प्रसाद भी दूषित!

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश

भला हो कि तिरुपति देवस्थानम् ट्रस्ट का। यदि इस देवस्थान के लब्धप्रतिष्ठित लड्डु प्रसाद में मत्स्य, गौ और शूकर की वसा की पुष्टि न हुई होती तो मुझ-आप जैसे भोंदू-विश्वासियों का प्रमाद भला कौन कभी उजागर कर पाता। और फिर यह आलेख लिखने का कोई कारण भी न बचता। लड्डुओं में पशुओं की वसा कोई रहस्य नहीं। यह तो उसका एक छोटी-सी झाँकी मात्र है। भंग तो पूरे कुएँ में पड़ी हुई है। यह अलग बात है कि नैतिक-निरपेक्षता को उपलब्ध हो चुके हम लोग इस बात को जानते हुए भी स्वीकार नहीं करते। लेकिन यह हमारी सभ्यता के अस्तित्त्व के संकट का काल है। इसलिए इसी बहाने एक मीमांसा नैवेद्य-प्रसाद की, इसके पीछे छिपे उन वास्तविक मुद्दों की…

हम सब जानते है कि कि तिरुपति के लड्डुओं में गौ-शूकर आदि की वसा कोई एक अपवादस्वरूप की घटना नहीं। यदि जाँच कराई जाए तो मथुरा-वृन्दावन के खुरचन पेढा, अलवर कलाकन्द जैसे शुद्ध और पवित्र कहे जाने वाले मिष्ठान्न भी अपमिश्रित मिलेंगे। जबकि यह सभी पदार्थ भगवान को प्रसाद के रूप में भोग में निवेदित किए जाते हैं। इन्हें पवित्र समझकर उपवास और व्रतादि में भी इनका सेवन होता है। इसीलिए नैसर्गिक प्रश्न उठता है कि नैवेद्य की मर्यादा क्या है? वह महत्वपूर्ण क्यों है? इसका संरक्षण क्यों आवश्यक हैं? और सबसे मौजूँ कि इसे हम कैसे कर सकते हैं?

नैवेद्य की मर्यादा

इष्ट को जो फल, फूल, आहारादि अर्पित किया जाता है वह नैवेद्य या भोग कहलाता है। वैदिक, पौराणिक, तांत्रिक या लौकिक विधि से इष्ट द्वारा भोग ग्रहण करने (वैष्णव शब्दावली में आरोगने) के बाद वही नैवेद्य प्रसाद बन जाता है। प्रसाद यानि जो प्रसन्नता दे। यहाँ ध्यान देने की बात यह कि वैदिक, शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य, सौरादि – पौराणिक, तांत्रिक या लौकिक विधि तक किसी भी मत-सम्प्रदाय की बात करें, उसमें प्रधानता भाव की होती है। सभी सम्प्रदायों की पद्धति में भाव ही वह प्राण है, जो भोग को परम चेतना से जोड़कर चैतन्य प्रसाद बना देता है। जैसे माला – प्रसादी माला, इत्र – प्रसादी सुगंध तो फल-आहारादि व पेय पदार्थ – अधरामृत प्रसाद बन जाते हैं।

चाहे जो परम्परा हो, प्रत्येक आस्तिक सम्प्रदाय अपने इष्ट को जगत का प्रधान, प्रिय, नियन्ता, भोक्ता या परमेश्वर मानता है। चूँकि सृष्टि उसकी है, तो सिद्धान्त यह रहता है कि उस सत्ता को अनिवेदित या अनिवेदनीय कोई पदार्थ हमारे द्वारा ग्रहण न हो जाए। इसके विपरीत जो पदार्थ मानव अपने भोग के लिए पाता है उसे पाप माना जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- “भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पच्चन्त्यात्मकारणात्” अर्थात्- जो अपने आनन्द के लिए भोजन पकाते हैं, वे वास्तव में पाप ही खाते हैं। 

भाव के आधार पर वैष्णव, शाक्त, शैव, वैदिकादि सम्प्रदायों में अलग-अलग पदार्थ निवेदित होते हैं। बहुत सम्भव है कि एक सम्प्रदाय का व्यक्ति दूसरे का प्रसाद ग्रहण न कर सके। लेकिन इससे सनातन सम्बन्ध बाधित नहीं होता। क्योंकि सनातन परम्परा में सम्बन्ध जन्मना जाति बोध से ही है। सनातन धर्म के प्रत्येक सम्प्रदाय के मतावलम्बी को यह स्वतंत्रता है कि वह अपनी परम्परा के नियमानुसार दूसरे सम्प्रदाय का प्रसाद ग्रहण करे या न करे। वह उसका पूर्ण सम्मान कर अपनी असमर्थता जता सकता है। यह विराट् सहिष्णुता का भाव हमारे अनुवांशिकी का अंग है।

नैवेद्य सम्बन्धी विधि-निषेध अनिवार्य

नैवेद्य के लिए मत-सम्प्रदाय के पूजा-उपासना- भोगादि के लिए अनिवार्य विधि-निषेध नियम हैं। ये नियम उस सम्प्रदाय के दार्शनिक सिद्धान्त और सदाचार-नीति से बनते हैं। इनके अनुसार ही नैवेद्य-भोग का चयन या बनाने का विधान है जो दैनिक जीवनचर्या में नैतिकता के व्यवहारिक प्रयोग पवित्रता और शौचाचार का सिद्धान्त से परिचालित होता है। पवित्रता और शौचाचार माध्यम से हम नैवेद्य-प्रसाद की अवधारणा को समझ सकते हैं। नैवेद्य के चयन और तैयार करने में यह सिद्धान्त उस-उस परम्परा के धर्मशास्त्र करते हैं। उदाहरण के लिए पवित्रता शब्द और अवधारणा का स्रोत धर्म-शास्त्र है। यानी धर्म के पालन करने से से जो निर्दोषिता आती है, वह पवित्रता कहलाती है। तो अगला प्रश्न उठता है कि वह धर्म क्या है? इस पर चिन्तन कर मनीषी इस निष्पत्ति पर पहुँचते हैं कि “व्यवहारिक जीवन में किसी उपकार के बदले प्रत्युपकार ही सनातन धर्म है”। यथा – कृते च प्रतिकर्तव्यमेष धर्मः सनातनः (वा.रा.)।

धर्म और पवित्रता के इस भाव का प्रकटीकरण मनुष्य के वृषभ और गाय से सम्बन्ध द्वारा होता है। यदि हम इस प्रतीक को नहीं समझते तो धर्म की किसी भी विधि में हमारी पैठ नहीं हो सकती। धर्म के स्वरूप के रूप में वृषभ की ख्याति हमारी परमपरा में रूढ़ है। इसी तरह गाय पवित्रता का मूर्तिमन्त प्रतीक है। पृथ्वी को भी गौरूपा ही देखा गया है। गौवंश हमारे लिए जीवनदायी है। गाय और उसके प्रति आर्यजनों का भाव ही पवित्रता की कसौटी है। यज्ञ, उपासना के पदार्थों की पवित्रता या शुद्धि पंचगव्य से होती है। पंचगव्य भारतीय गाय के दूध, दही, घी, मूत्र और गोमय के सम्मिश्रण से तैयार होता है। दूध और उससे बने पदार्थ को पवित्र माना जाता है। देवों के लिए यज्ञ में समर्पित होने वाला हव्य और पितरों के लिए दिया जाने वाले कव्य पदार्थ गौघृत के बिना सम्भव नहीं।

मनुष्य के आचार-विचार और नीति के सम्बन्ध में पवित्रता को शुचिता कहते हैं। इसके लिए शास्त्र विधि यानी करने योग्य कर्म और निषेध यानी न करने योग्य कर्म का उपदेश करते हैं। जीवनचर्या में इसके आचरण को शौचाचार कहते हैं। इसके दो पक्ष है- एक भौतिक और दूसरा आंतरिक शौचाचार। भौतिक शुचिता के भी दो पक्ष हैं – प्रत्यक्ष और परोक्ष। इनमें प्रत्यक्ष शुचिता वैयक्तिक साफ-सफाई से सम्बद्ध है। इसके आचार नियम शास्त्रों में निर्दिष्ट हैं। परोक्ष शुचिता कर्ता, कर्म और उपयोग में लाए जाने वाले पदार्थों की नैतिकता और पवित्रता को लेकर है। आन्तरिक शुचिता हमारे उद्देश्य और उसके साधन की नैतिकता से सम्बन्ध रखती है। हमारे देवकर्म, नैवेद्य का उद्देश्य क्या है? उसके लिए धन का स्रोत और कर्म पवित्र है या नहीं? – इन सबका आधार शास्त्र के वे नियम है जो पिंड-ब्रह्मांड, जीव-आत्मा, सत-असत्, पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म के विवेक की मूल अवधारणा से निकलते हैं। साधारण दृष्टि से यह बात समझने में दुरुह लगे किन्तु स्पृश्यास्पृश्य विवेक आचार-विचार विहीन विधर्मी या शौचाचार विहीन समुदायों के प्रति नियमन का ही रूढ़ स्वरूप हैं। यदि हम प्रामाणिकता से चिन्तन करें तो यह हमारी सामाजिक और राजनीतिक नैतिक चेतना की वास्तविकता को उजागर कर देती है।

हावी हाइजीन में फैलती अपवित्रता

यदि कोई सोचता है कि यह सिर्फ मिलावट या बेईमानी का मामला है तो यकीकन उसे अपनी भोंदूगिरी की चिकित्सा करवा लेने की जरूरत है। भारत के अधिकांश शहर-कस्बों में बिकने वाले घी में पशु वधखानों से निकलने वाली सस्ती वसा की मिलावट हो रही है। उत्तरभारत में यह एक उद्योग है। इसमें अनाश्रित पशुओं को ही नहीं वरन् किसान-पशुपालकों के पशुओं को गाड़ियों में भरकर उठा लिया जाता है। कुछ ही घंटों में उनको खंड-खंड कर खाद्य आहार के रूप में बेचा जा चुका होता है। दुनियाभर में दुग्ध पशुओं के माँस विक्रय में अग्रणी बने भारत में यदि यह सारी अपवित्रता आहार पदार्थों न मिले तो ही यह आश्चर्य का विषय होगा। लेकिन यह यह तो बहुत स्थूल और उथली दृष्टि है। बाजार पदार्थ और जीवनशैली को हाइजीन के नाम पर बेचता है। हाइजीन जो नीति-निरपेक्ष होती है। लेकिन धर्म तो परम गहन गति की विचारणा करता है। हमने देखा वह पवित्रता और शुचिता के स्तर पर चलती है। इसलिए बाजार में प्रचलित सुपर हायजेनिक तथाकथित शुद्ध नैवेद्य भोग को परखें तो इनमें से अधिकांश त्याज्य ही पाएं जाएँगे।

आधुनिक डेयरी उद्योग में कृत्रिम गर्भधान, वर्णसांकर्य, अप्राकृतिक आहार और असंख्य कष्टों के बीच गाय-भैंसों को दूध के लिए पाला जाता है। बछड़े को मारकर या उनके दूध पर के हक को मारकर अथवा गाय-भैंसों को हानिकारक हार्मोंन के इंजेक्शन द्वारा दूध निकाला जाता है। बूढ़े कमजोर बीमार मवेशियों को वधशालाओं के लिए बेच दिया जाता है। ऐसा दूध और उससे बने पदार्थों को धर्मनीति-निरपेक्ष सरकार और तमाम बाजारू ताकतें हाइजेनिक, शुद्ध, ऑर्गेनिक होने का दावा कर बेचती है। सनातन परम्परा का कौन-सा सम्प्रदाय ऐसे अपवित्र और अग्राह्य पदार्थ को नैवेद्य भोग के लिए मान्य कर सकता है। वधशालाओं से निकले पदार्थों को परावर्तित कर धड़ल्ले से साबुन प्रसाधन-श्रृंगार सामग्री, औषधि, और अन्यान्य वस्तुओं में खपाया जाता है। सुगन्धित तेल में मिनरल ऑयल, दन्त मंजन पावडर या पेस्ट में अस्थिचूर्ण, मूँगफली-तिल जैसे खाद्य तेलों में घटिया और सस्ता तेल जैसे अनगिनत मिलावटों को कानूनी जामा पहनाया जाता है। यही स्थिति शाक, फल, कन्द, मूल और फूल-वनस्पति की है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए इनमें जो बदलाव कर रहे हैं, धरती में जो जहर और रसायनों डाल रहे हैं, उनसे पवित्रता और शुचिता के बचने की कोई संभावना नहीं है। नि:सन्देह नैवेद्य सम्बन्धी यह सब नियम अनुल्लंघनीय है। तो प्रश्न उठता है ऐसा अपवित्र नैवेद्य को हमारे इष्ट क्या कभी ग्रहण करेंगे? वह क्या कभी प्रसाद कहे जाने योग्य होगा? इसीलिए प्रसाद के नाम पर हम जो लड्डू-पेड़ा, मिष्ठान्न, आदि चढ़ाया जा रहा हैं, वह खालिस पाप ही है। ऐसे पापों का मोचन ही हमारा कर्म संकल्प होना चाहिए।

प्रसंग से शिक्षा

यह प्रसंग हमें शिक्षा और एक अवसर भी देता है। उदाहरण के लिए समझें तो नैवेद्य के महात्म्य के अनुरूप उसकी पवित्रता की रक्षा ही हमें कई विभ्रमों से मुक्त करा सकती है। उपनिवेशी आधुनिकता ने भारतीयों को धार्मिक से हटाकर क्षुद्र राजनीतिक जीव बनाकर रख दिया है। इसके चलते हम समस्याओं को समग्र रूप में देखने का अभ्यास भूल गए है। उन्हें हिस्से-हिस्से में देखकर जूझते रहते हैं। अस्ल में हमारा गणतंत्र और संविधान ही औपनिवेशिक शोषण का शिकार है। संवैधानिक समझ मूलत: घोर उपभोगवादी हैं। उसका पारम्परिक नैतिक मूल्यों से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं। भारत गणराज्य अपने अस्तित्व के कई विचार उसी उपनिवेशियत से लेता है, जिससे व मुक्त होना चाहता था।

धर्मनिरपेक्षता के नाम पर नैतिक और समग्र धार्मिक सामुदायिक पहचान अंग्रेजी फूट डालो शासन करो की नीति के तहत कमजोर की गई है। इन प्रयासों को कानूनी और बौद्धिक प्रकरण दिए गए हैं। कोई दो शताब्दियों से आधुनिक शिक्षा के माध्यम से पश्चिमी उपनिवेशी मूल्य और संस्कारों को संविधान और कानून के सहारे दुनियाभर में स्थापित किए जाने के प्रयास अनवरत जारी हैं। संस्कृति के युद्ध क्षेत्रों में ऐसी कई छोटी-बड़ी लड़ाइयाँ चल रही है। उपनिवेशी वैश्विक सोच एक-एक कर हमारी परम्परा और सम्प्रदाय और पहचान को लीलने के लिए तैयार है। अभी वैष्णव, तो कभी ठाकुर, शूद्र तो कभी आदिवासी, अभी स्त्री तो कभी कृषक जैसे तमाम विभेदों में हित और अधिकारिता के छद्म में आपस में विद्वेष की आग में झोंक रही है।

ऐसे में अपने निजी जीवन में तथाकथित मानवता की आड़ में सस्ती भोगवादिता को नितान्त अस्वीकार कर ही हम अपने मूल्यों रक्षा कर सकते हैं। हर तंत्र में कुछ मूलभूत सिद्धान्त अपरिहार्य या नॉन-निगोशिएबल होते हैं। वर्णाश्रमधर्म सनातन धर्म का नॉन-निगोशिएबल पहलू हैं। यहाँ कर्तव्यबोध आधारित सोच की विरासत हमारी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक चेतना है। हमारे समस्त श्रेष्ठ विचार इसी दर्शन में उद्भुत हुए है और इसीलिए इनको मिथ्या अपवादों में घेरकर तोड़ना उपनिवेशवादियों का सबसे प्रधान लक्ष्य रहा है।

एक समुदाय के रूप में हमें अपने धर्मस्थान और परम्पराओं को इन उपनिवेशी प्रभावों से मुक्त कर उस आस्तिक सम्प्रदाय को जीने-मरने वालों के हाथ में सौपना होगा। हमें अपने भूतकाल और परम्परा का अधिकार विरोधी और छद्म शुभचिन्तकों से अपने हाथों में लेना है। तभी हम हमारी भावी यात्रा की पतवार सँभाल सकेंगे। इसके लिए हमारे मन्दिर, ज्ञान परम्पराओं और संस्थाओं में अपनी नीति, बुद्धि और संसाधन निवेशित करना होंगे।

तथाकथित आधुनिक-प्रगतिशील सोच उपनिवेशी मूल्य और हितों से उपजी और उसकी समर्थक विचारधारा है। इसके निदान के लिए यदि हमें अपने इतिहास संस्कृति और दर्शन में जाना पड़े तो जाना होगा। इसके लिए संघर्ष और त्याग के लिए तैयार रहना होगा। आपसी मतभेद और क्षुद्र निजी या जातिगत हितों से ऊपर उठकर सनातन संस्कृति के आदर्शों को मूल स्रोत और प्रमाणिक आचार्यों के निर्देशन में पुनः हस्तगत करना होगा। उपनिवेशियत को ढोता गणराज्य और संविधान अब यथार्थ और विधायी परिवर्तन की राह देख रहा है।

इति… 

——–

(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना के समय से ही जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं।)

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