कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 31/8/2021

श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर कृष्ण के विविध रूपों की लोगों ने अपने-अपने मतानुसार आराधना की। प्राय: श्रीक़ष्ण का बाल रूप और उनके उस स्वरूप की लीलाएँ हर व्यक्ति के मन को मोह लेती हैं। सभी के मन को आकृष्ट करती हैं। इसका कारण है कि बाल स्वभाव, बाल रूप सहज, सरल और मोहक ही होता है। लेकिन वही बालक जब बड़ा होकर युवक बन जाता है और समाज में अपनी पहचान स्थापित करता है, तब वह हर किसी के लिए मोहक नहीं रह जाता। कारण कि युवा अपनी योजना, अपनी शैली, अपने विचारों का पुंज होता है। इसलिए उससे सम्बन्धित लोग उसकी इन तमाम चीजों को देखते हैं, आकलन करते हैं, फिर उससे अपने सम्बन्ध स्थापित करते हैं। 

जैसे युवा कृष्ण। उनके विराट व्यक्तित्त्व के दर्शन हम महाभारत युद्ध में करते हैं। वह कृष्ण सरल और सहज नहीं हैं। वह एक तरफ कूटनीतिज्ञ हैं, योद्धा हैं। दूसरी तरफ़, दार्शनिक और गुरु। वह महाभारत युद्ध के मस्तिष्क हैं। साथ ही वैदिक धर्म- दर्शन के स्थापक, समुद्धारक भी। इस रूप में अर्जुन को माध्यम बनाकर विश्व-कल्याण के लिए गीता का उपदेश करते हैं।

कहते हैं, गीता समस्त उपनिषदों का सार है। 

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत।।
अर्थात्- “समस्त उपनिषद गौओं के समान हैं, उन्हें दुहने वाला ग्वाला कृष्ण हैं। उस दुग्ध का प्रथम आस्वादन करने वाला अर्जुन उसका बछड़ा हैं और बछड़े से बचे दूध को पान करने वाले अन्य शुद्ध बुद्धि वाले जन हैं।”

यह युद्ध के मैदान में दिया गया शान्ति का उपदेश है। यह जानकर किसी को भी आश्चर्य होगा कि महाभारत ग्रन्थ का साहित्यिक दृष्टि से मुख्य रस शान्त है। शान्ति का वास्तविक अनुभव घोर कोलाहल के बाद ही तो होता है। जैसे ‘चण्ड अशोक’ कलिंग युद्ध के बाद ‘बौद्ध अशोक’ बन जाता है। 

हालाँकि बुद्ध और श्रीकृष्ण में कुछ मौलिक अन्तर है। जैसे- बुद्ध केवल अपने मत को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और अहिंसा का उपदेश देते हैं। लेकिन भगवान कृष्ण समाज का हित और सनातन धर्म की परम्पराओं को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उसके लिए जो बन पड़े, वह कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं। यही कारण है कि बौद्ध होने के बाद अशोक तलवार त्याग देते हैं। लेकिन श्रीकृष्ण की शरण में जाकर अर्जुन गाण्डीव का संधान करते हैं। बुद्ध आत्म को क्षणिक मानते हैं और राज्य त्याग की बात करते हैं। जबकि श्रीकृष्ण आत्म को नित्य मानते हैं और धर्म-सम्मत राज्य की स्थापना करते हैं। 

श्रीकृष्ण के लिए सनातन के विरुद्ध कथन महत्त्व नहीं रखता। वहीं, बुद्ध अपने नियमों को किसी भी प्रिय के लिए बदल देते हैं। उदाहरण के लिए, विनय पिटक में किन-किन को प्रवर्ज्या नहीं देनी है, इस सन्दर्भ में महाराज बिम्बिसार से उनके संवाद का प्रसंग है। बिम्बिसार के योद्धा युद्ध से बचने के लिए प्रवर्ज्या ले रहे थे। तब बिम्बिसार बुद्ध से शिकायत करते हैं कि आपके भिक्षुक हमारे सैनिकों को संन्यास की दीक्षा दे रहे हैं।  बुद्ध यह जानकर सैनिकों को प्रवर्ज्या देने का निषेध कर देते हैं।( विनय पिटक 1/3/4)

विद्वान लोग कहते हैं कि बुद्ध के सम्मत कथनों पर उपनिषदों का प्रभाव है। जबकि कृष्ण के गीता-ज्ञान को भी ‘उपनिषदों का सार’ कहा जाता है। अन्तर बस, दृष्टि का है। एक दृष्टि अपने मत की दृढ़ता को महत्त्व देती है। पुरातन सनातन दृष्टि की अवहेलना कर समाज को शिथिल कर देती है। वहीं, दूसरी दृष्टि समाज को स्थिर और समृद्ध कर देती है।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 26वीं कड़ी है।)
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं….

25वीं कड़ी : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24वीं कड़ी : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23वीं कड़ी : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22वीं कड़ी : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21वीं कड़ी : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20वीं कड़ी : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19वीं कड़ी : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18वीं कड़ी : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17वीं कड़ी : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16वीं कड़ी : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15वीं कड़ी : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14वीं कड़ी : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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