मैंने जीवन में अब तक जो भी कहा, उससे कभी विमुख नहीं हुआ : सावरकर

अनुज राज पाठक, दिल्ली से

‘विनायक दामोदर सावरकर’ स्वतंत्रता आन्दोलन के वह क्रान्तिकारी, जो अपने समय के क्रान्तिकारियों के लिए प्रेरणास्रोत रहे है। लेकिन सोचनीय बात है कि एक समय में अछूतोद्धार के लिए आन्दोलन करने वाले सावरकर आज भारत के स्वतंत्र नागरिकों के लिए ‘अछूत-से’ हो गए हैं। हालाँकि यह भी गौरतलब है कि हमेशा से लोग सावरकर के या तो प्रशंसक रहे या फिर विरोधी। यानि उन्हें नजरंदाज करना, उनके समय के और उनके बाद के लोगों के लिए भी लगभग मुश्किल रहा है। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि ‘भारतीय इतिहास में विदेशी वस्तुओं की होली जलाने वाले सावरकर पहले व्यक्ति थे। साथ ही किसी शिक्षण संस्थान से राजनैतिक कार्य करने के कारण निष्कासित होने वाले पहले विद्यार्थी भी।’ मगर उससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि उनके जिन प्रधानाचार्य (सर रघुनाथ पुरुषोत्तम परांजपे) ने उन्हें 1905 में महाविद्यालय से निष्कासित किया, उन्हीं ने 38 वर्ष बाद सावरकर प्रसंशा की। उन्होंने कहा,  “सावरकर गहरी बौद्धिकता और लेखन क्षमता से भरे थे। मुझे याद है कि उनका राष्ट्रप्रेम गहरा था।”

सावरकर के ख़ाते में बहुत सी ऐसी बातें हैं, जो भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में ‘सबसे पहले’ करने वाले के तौर पर दर्ज हैं। अपने लन्दन प्रवास के दौरान ‘11 मई 1907’ को ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ की हुतात्माओं को ‘ओ! हुतात्माओ!’ कहकर श्रद्धांजलि अर्पित करने वाले वही थे। ध्यान दे सकते हैं कि मई 1907 की पहली तारीख को ही 1857 की गदर में मारे गए अंग्रेज सैनिकों और अफसरों की याद में ‘थैंक्सगिविंग डे’ के तौर पर मनाया जा रहा था। और 1907 तो 1857 की क्रान्ति का स्वर्ण जयन्ती वर्ष भी था। उसी दौरान छह मई 1907 के ‘डेली टेलीग्राफ’ अख़बार की सुर्खी थी, “अब से 50 वर्ष पहले, इसी सप्ताह, यह (अंग्रेजों का) साम्राज्य वीरता (अंग्रेजों की) के कृत्यों से बचा।” ऐसी स्थिति में भारत और उससे बाहर इस स्वतंत्रता संग्राम की भारतीय हुतात्माओं की स्मृति में मात्र सावरकर ही थे जिनकी अगुआई में लन्दन में पहला कार्यक्रम हुआ। सावरकर ने तब कहा था, “सन् 1857 का यह युद्ध तब तक नहीं थमेगा, जब तक पितरों का प्रतिशोध लेने के लिए एक भी पुत्र जीवित रहता है। तब तक ऐसे युद्ध का का अन्त नहीं हो सकता।”

सावरकर ने इसी क्रम में एक पुस्तक लिखी, ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’। उस पर प्रकाशन से पूर्व ही ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया था। आगे चलकर इसी पुस्तक के संस्करण भीकाजी कामा, लाला हरदयाल, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस तथा भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों ने विविध अन्तराल से निकाले। इसी तरह सन् 1907 में ही जर्मनी में अन्तर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस का आयोजन हो रहा था। इंडिया हाऊस की तरफ से भारतीय प्रतिनिधि के तौर पर भीकाजी कामा और सरदार सिंह राणा को भेजने का निर्णय हुआ। उस आयोजन के लिए स्वतंत्र भारत के ध्वज की संकल्पना सावरकर ने ही तैयार की। भारत के प्रतिनिधि के रूप में भीकाजी ने वही ध्वज जर्मनी में 18 अगस्त 1907 को फहराया।

गौर करने लायक यह भी है कि अंडमान की जेल में कैद के दौरान वहाँ विद्यालय खोलने की अपील भी सावरकर ने ही की। और कैदियों के लिए प्राथमिक विद्यालय शुरू हुआ भी। उन्हीं के प्रयासों से उर्दू की जगह हिन्दी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनी। सन् 1920 में अंडमान जेल में पहली बार गुरु गोविन्द सिंह की जयन्ती मनाई गई। अंडमान में देवनागरी लिपि शुरू करने वाले भी सावरकर पहले व्यक्ति थे। उससे पहले सरकारी रिकॉर्ड उर्दू में दर्ज होते थे। एक और मामला पाँच जुलाई 1909 का। लन्दन कैक्स्टन हॉल में मदनलाल ढींगरा की आलोचना के लिए भारतीय समुदाय के गणमान्य बड़ी संख्या में उपस्थित थे। उन्होंने आलोचना ही नहीं, ढींगरा के विरोध में सर्वसम्मति से प्रस्ताव भी पारित किया। तब उस सभा में अकेले सावरकर थे, जिन्होंने ढींगरा के पक्ष में मत दिया। इस कारण बाद में उन पर हमला भी हुआ।

सन् 1909 में ही सावरकर के भाई बाबाराव को कालापानी की सजा भी होती है। वहीं 30 जनवरी 1911 को सावरकर को दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है। सजा की घोषणा के बाद सावरकर कहते हैं, “मैं बिना शिकायत आपके कानून के अनुसार सजा भोगने को तैयार हुँ। क्योंकि मेरा विश्वास है कि कष्ट और बलिदान से ही हमारी मातृभूमि निश्चित तौर पर विजय की ओर अग्रसर होगी।” इसीलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि सावरकर के आलोचकों को 1909 से लेकर 1911 तक के ब्रिटिश, जर्मन और फ्रांसीसी अखबारों को उठाकर पढ़ लेना चाहिए। जिससे कि वे सावरकर के योगदान और बलिदान तथा महत्त्व का सही मूल्यांकन कर सकें।

इन आलोचकों का सबसे बड़ा आरोप यह है कि सावरकर ने ‘अपनी रिहाई के लिए अंग्रेज सरकार के सामने याचिकाएँ’ लगाईं। वैसे तो यह विवादित विषय है। फिर भी, अगर हम उन याचिकाओं की भाषा और रिहाई के बाद की भाषा और कार्यों पर दृष्टि डालें, तो निश्चित यह कहा जा सकता है कि सावरकर की याचिकाएँ जेल से निकलने के लिए मात्र युक्तिपूर्ण माध्यम भर थीं। ताकि फिर अपने जीवन को राष्ट्र निर्माण के योगदान में लगा सकें। इस बात को हम पाँच जनवरी 1924 को दिए गए उनके वक्तव्य से समझ सकते हैं। अपनी रिहाई के दिन जेल के अपने साथियों से उन्होंने कहा था, “मेरे भाइयो,.., पीड़ा के अधीन चौदह वर्ष…अंडमान में…। मैंने अपने जीवन में अब तक जो भी कुछ कहा है, उससे कभी विमुख नहीं हुआ।… आइए, सब मिलकर बोलें, स्वातंत्र्य देवी की जय, भारत माता की जय।”

वस्तुत: जब हम खुद बेहतर नहीं हो सकते और हम में कुंठा घर कर जाए, तो हम प्राय: अपने से बेहतर लोगों की निन्दा कर काम चला लेते हैं। मेरे विचार से सावरकर के मामले में यही स्थिति है। क्योंकि सावरकर को निकट से देखने वाले जानते हैं, समझते हैं कि वह एक क्रान्तिकारी के तौर पर, चिन्तक के रूप में, सामाजिक आन्दोलन के अगुवा की हैसियत से और हमेशा दूरदृष्टि वाले नायक की तरह हिन्दुस्तान के आसमान पर जगमगा रहे हैं।

मैं सावरकर तथा उन जैसे असंख्य ज्ञात-अज्ञात हुतात्माओं को सहस्र: नमन करता हूँ। 
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(अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटडायरी के संस्थापकों में से एक हैं। वीर सावरकर के बारे में उन्होंने अपने ये विचार 28 मई को सावरकर-जयन्ती के अवसर पर लिखे थे।)

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