शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी की दहाड़ से जब औरंगजेब का दरबार दहल गया!

बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से

मुगल छावनी अब आराम फरमा सकती थी। खुद मिर्जा राजा भी रात को घड़ी दो घड़ी गंजिफा खेलने में मशगूल हो सकते थे। क्योंकि सन्धि प्रस्ताव के मुद्दे मसूदे लगभग तैयार हो गए थे। मन तनाव से मुक्त हो गया था। एक दफा मिर्जा राजा, निकोलाओ मनुची तथा रायभान पुरोहित गंजिफा खेल रहे थे। इतने में शिवाजी महाराज अचानक वहाँ पधारे। सभी हैरत में पड़ गए। खेल छोड़कर मिर्जा राजा उठ गए। उन्होंने महाराज का स्वागत किया। महाराज के आने का मकसद था निकोलाओ मनुची की पहचान करा लेना। यह इतालियन युवक मिर्जा राजा की छावनी में काम करता था। मिर्जा राजा ने महाराज से उसका परिचय करा दिया। महाराज ने मनुची की तारीफ की, उससे पहचान बढ़ायी। बातों ही बातों में मनुची से यूरोप के राजाओं और राज्यों की काफी जानकारी हासिल की। सभी प्रकार के ज्ञान का उपयोग करना था स्वराज्य को समृद्ध, समर्थ और सजग बनाने के लिए (दिनांक 13 जून 1665)।

सन्धि हो गई। मुख्य रूप से उसमें यहीं तय हुआ कि महाराज मुगलों को अपने 23 किले दे दें। सम्भाजी राजे को पाँच हजार की मनसब मिले और महाराज दक्षिण के मुगली सूबेदारों की सैनिकी सहायता करें। महाराज लौट आए (14 जून 1665)। जल्दी ही सिंहगढ़, लोहगढ़ आदि किलों पर मुगलों का अधिकार हो गया। स्वराज्य के पंख काट दिए गए। इसके बाद साढ़े तीन महीने बीते। मिर्जा राजा ने महाराज से आग्रह किया, “आप  बादशाह औरंगजेब से मिलने दरबार चलिए। इससे नुकसान कतई नहीं होगा। उल्टे राजनीतिक लाभ ही होगा। आपका बाल भी बाँका न होगा। इसका जिम्मा मैं और मेरा बेटा रामसिंह लेते हैं। हम आपको वचन देते हैं। आप बस चल ही दीजिए।”

महाराज ने तुरन्त हामी नहीं भरी। महाराज जानते हो थे कि औरंगजेब किस बला का नाम है। सो वह सोच-विचार में डूबे रहते। मिर्जा राजा सुरक्षा का वचन दे रहे थे। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? सफर की परेशानी! लेकिन इससे फायदा ही होगा। नुकसान या दगा तो होगा ही नहीं। फिर आगरा जाने में हर्ज ही क्या है? आखिर महाराज ने मिर्जा राजा को अपनी स्वीकृति दे दी। मिर्जा राजा ने यह योजना औरंगजेब को लिखकर भेजी। महाराज को औरंगजेब का निमंत्रण आया। मिर्जा राजा चाहते थे कि शिवाजी की शूरता का उपयोग औरंगजेब का राज्य बढ़ाने के लिए हो। इसीलिए वे उन्हें आगरा, औरंगजेब के पास ले जाना चाहते थे। पर शिवाजी ने जाने के लिए हामी भरी थी तो स्वराज्य की ही खातिर।

सो, योजना के मुताबिक राजकाज की जिम्मेदारी आऊसाहब तथा मोरोपन्त, नीलोपन्त, प्रतापराव को सौंपकर महाराज राजगढ़ से निकल पड़े (दिनांक 5 मार्च 1666)। साथ में 350 मावले थे। सबके सामने चल रहा था गेरुए झंडे का हाथी। नौ साल के सम्भाजी राजे को भी साथ में ले लिया गया था। महाराज औरंगाबाद मार्ग से आगरा जा रहे थे। राह में औरंगजेब का ही फरमान महाराज को मिल, “आप पधारें। आपका अच्छी तरह सम्मान करके आपको रुखसत करेंगे।” इसके बाद महाराज आगरा से करीब तीन कोस पर (छह मील) मुलुकचन्द की सराय के पास पहुँचे।

अपेक्षा थी कि शाही रिवाज के अनुसार स्वागत के लिए कोई वरिष्ठ दरबारी आएगा। लेकिन शिवाजी का स्वागत चौथे-पाँचवें दर्जे के सरदार से भी न हो, ऐसी कुत्सित योजना थी बादशाह की। इसीलिए स्वागत के लिए जाना तो चाहिए था रामसिंह और मुखलीस खान को। लेकिन चूँकि उन्हें बादशाह के खास महल में पहरे का काम था, सो महाराज के स्वागत के लिए भेजा गया रामसिंह के मुंशी गिरिधारी लाल को (दिनांक 11 मई 1666 की शाम)।

दूसरे दिन सुबह (दिनांक 12 मई) महाराज दरबार जाने के लिए तैयार हो गए। उस वक्त स्वागत सम्मान की तो कौन कहे, सामान्य रीति-रिवाज तक निभाया न गया। महाराज को शहर लिवा लाने के लिए भेजा गया फिर से मुंशी गिरिधारी लाल को ही। यह दूसरा धक्का था। फिर भी अनास्था, अव्यवस्था का कड़वा घूँट, उदार मन से पीकर महाराज निकले। कई घपलों के कारण महाराज बहुत देर में दरबार पहुँचे। देरी के कारण रामसिंह और खान, महाराज को लेकर बादशाह के गुसलखाने में होने वाले तीसरे दरबार में ही हाजिर हो पाए। दरबार खचाखच भरा हुआ था।

महाराज और सम्भाजी ने रिवाज के अनुसार बादशाह को सलाम किया। नजराने दिए। लेकिन इसके जवाब में औरंगजेब मुस्कराया तक नहीं। पूछताछ तो खैर की ही नहीं। महाराज के आने की सुध भी नहीं ली। कैसा घोर अपमान। फिर भी महाराज ने अपने आप को जब्त किया। बाद में इन पिता-पुत्र को बहुत दूर, पाँचहजारी मनसबदारों की कतार में खड़ा कर दिया गया। महाराज ने देखा कि उनके सामने खड़े थे जसवंतसिंह राठौड़। अब महाराज आगबबूला हो गए। कोंचे हुए शेर की तरह दहाड़ उठे, ‘रामसिंह हमसे भी आगे यह कौन खड़ा है?” शिवाजी महाराज की लरजती आवाज़ से औरंगजेब का दरबार दहल गया। 
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।) 
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ 
35- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठे थके नहीं थे, तो फिर शिवाजी ने पुरन्दर की सन्धि क्यों की?
34- शिवाजी ‘महाराज’ : मरते दम तक लड़े मुरार बाजी और जाते-जाते मिसाल कायम कर गए
33- शिवाजी ‘महाराज’ : जब ‘शक्तिशाली’ पुरन्दरगढ़ पर चढ़ आए ‘अजेय’ मिर्जा राजा
32- शिवाजी ‘महाराज’ : सिन्धुदुर्ग यानी आदिलशाही और फिरंगियों को शिवाजी की सीधी चुनौती
31- शिवाजी महाराज : जब शिवाजी ने अपनी आऊसाहब को स्वर्ण से तौल दिया
30-शिवाजी महाराज : “माँसाहब, मत जाइए। आप मेरी खातिर यह निश्चय छोड़ दीजिए”
29- शिवाजी महाराज : आखिर क्यों शिवाजी की सेना ने तीन दिन तक सूरत में लूट मचाई?
28- शिवाजी महाराज : जब शाइस्ता खान की उँगलियाँ कटीं, पर जान बची और लाखों पाए
27- शिवाजी महाराज : “उखाड़ दो टाल इनके और बन्द करो इन्हें किले में!”
26- शिवाजी महाराज : कौन था जो ‘सिर सलामत तो पगड़ी पचास’ कहते हुए भागा था?
25- शिवाजी महाराज : शिवाजी ‘महाराज’ : एक ‘इस्लामाबाद’ महाराष्ट्र में भी, जानते हैं कहाँ?
24- शिवाजी महाराज : अपने बलिदान से एक दर्रे को पावन कर गए बाजीप्रभु देशपांडे
23- शिवाजी महाराज :.. और सिद्दी जौहर का घेरा तोड़ शिवाजी विशालगढ़ की तरफ निकल भागे
22- शिवाजी महाराज : शिवाजी ने सिद्दी जौहर से ‘बिना शर्त शरणागति’ क्यों माँगी?
21- शिवाजी महाराज : जब 60 साल की जिजाऊ साहब खुद मोर्चे पर निकलने काे तैयार हो गईं
20-  शिवाजी महाराज : खान का कटा हुआ सिर देखकर आऊसाहब का कलेजा ठंडा हुआ
19- शिवाजी महाराज : लड़ाइयाँ ऐसे ही निष्ठावान् सरदारों, सिपाहियों के बलबूते पर जीती जाती हैं
18- शिवाजी महाराज : शिवाजी राजे ने जब अफजल खान के खून से होली खेली!
17- शिवाजी महाराज : शाही तख्त के सामने बीड़ा रखा था, दरबार चित्र की भाँति निस्तब्ध था
16- शिवाजी ‘महाराज’ : राजे को तलवार बहुत पसन्द आई, आगे इसी को उन्होंने नाम दिया ‘भवानी’

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Neelesh Dwivedi

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