बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से
शूर मराठा सरदार रिश्तों में बँधकर एक हो जाते। फिर भी आँखों पर पट्टी बाँधकर अँधेरे को बुलावा भेजते। और सभी उस अँधेरे में गिरते-पड़ते रहते। आपस में जूझते रहते। इसी आलम में देवगिरि में एक हादसा हो गया। निजामशाह का दरबार बर्खास्त हुआ था। सरदार, जागीरदार बाहर आने लग गए। लखुजी जाधवराव घर लौटे। शहाजी राजे, उनके भाई, सरदार दत्ताजी जाधवराव (लखुजी जाधवराव के बड़े पुत्र), खंडागले वगैरा, सब दरवाजे से बाहर निकल रहे थे। भीड़ के कारण रेलमपेल हो रही थी। इतने में खंडागलों का हाथी बिगड़ उठा। महावत से हाथी सॅंभाला नहीं जा रहा था। भीड़ में घुसकर वह लोगों को बेरहमी से पटकने लगा। तब दत्ताजी जाधवराव और उनके सैनिकों ने हाथी को काबू में लाने के लिए उस पर हमला किया। लेकिन हाथी ने दत्ताजी के सैनिकों को ही कुचलना शुरू कर दिया।
मारे गुस्से के दत्ताजी खुद ही हाथी की ओर बढ़ गए। भोसलों, खंडागलों ने दत्ताजी को रोकने की कोशिश की। कहा, “हाथी को मत मारो। उसे हम देख लेंगे।” पर अब हाथी तथा दत्ताजी की आँखों में खून उतर आया था। एक-दूसरे की जान के प्यासे होकर वे भिड़ गए। जीत दत्ताजी की हुई। हाथी कटकर मर गया। इसके बाद तो दत्ताजी पर जैसे जुनून-सा सवार हो गया। हाथ में नंगी तलवार लिए वह भोसले भाईयों पर टूट पड़े। अप्रत्याशित रूप से लड़ाई शुरू हो गई। इस लड़ाई में सम्भाजी भोसले की तलवार दत्ताजी के लहू से रंग गई। दत्ताजी ने देवगिरि दरबार के सामने ही दम तोड़ दिया। एक हाथी के कारण रिश्तों में कभी न पटने वाली दरार आ गई। कुछ ही साल पहले की बात। जाधव और भोसले प्यार से एक-दूसरे के गले मिले थे। दो मराठी ताकतें एक हुई थींं। महाराष्ट्र को आस बँधी थी कि एकसूत्र में बँधे ये मराठा-कुल सुल्तानी जुल्म से उसे छुटकारा देंगे। पर हाय रे दुर्भाग्य। एक छोटी-सी बात के लिए वे एक-दूसरे के बैरी बन बैठे।
दत्ताजी जाधवराव सम्भाजी भोसले की तलवार की भेंट चढ़ गए। आनन-फानन बात फैल गई। खबर सुनकर लखुजी जाधवराव की आँखों में खून उतर आया। वे नंगी तलवार लिए बाहर निकले। बदले की आग सीने में धधक रही थी। उसमें रिश्ते-नाते, विवेक, दूरदर्शिता सबकी आहुति पड़ गई थी। तलवार का पहला वार शहाजी राजे पर ही हुआ। घायल राजे नीचे गिरे, इसलिए बच गए। वरना पिता के ही हाथों बेटी विधवा हो जाती। इसके बाद लखुजी और सम्भाजी भोसले एक-दूसरे से भिड़ गए। लखुजी ने सम्भाजी की गर्दन काट दी। इतने में सुल्तान निजामशाह शाही छज्जे में आया। वहाँ से गुर्राया, “क्या हो रहा है? दफ़ा हो जाओ यहाँ से।”
क्षणार्ध में सब ढेर हो गए। एक ही झड़प में जिजाऊसाहब का एक भाई तथा एक देवर मर गए। रोए तो किसकी खातिर रोए? अविचार के कारण, छोटी-सी बात के लिए दो शक्तिशाली घरानों में बैर ठन गया। अविवेक की भूल-भूलैया में भटकने से, जन्म से पहले ही क्रान्ति का दम घुट गया। पर यह चित्र मराठा मुल्क में आम था। बादशाही नौकरी में मराठा लोग मर-मरकर जी रहे थे और जीतेजी मर रहे थे। उनके स्वार्थी, अविवेकी चित्त को स्वाभिमान, स्वत्व, अस्मिता का स्पर्श तक नहीं था। स्थिति की भयावहता से जिजाऊसाहब उदास थीं। बेचैन थीं। वे देख रही थीं कि मराठा बहादुर अविचार, अपमान, गुलामी और सुल्तानी अत्याचारों के कुचक्र में जा रहे हैं। मरते दम तक के कीड़े- मकोड़ों की लाचार ज़िन्दगी जी रहे हैं। दुःखी मन से वह सोचती कि क्या यह चित्र कभी नहीं बदलेगा? मराठा भाग्य की दुर्गा भवानी, विचार की सरस्वती, पूजा घर में निश्चेत पड़ी हुई थी। वह जाग कर कभी पूजाघर से बाहर भी आएगी? मराठा मस्तिष्क में कभी यह विचार भी उभरेगा कि बगावत का झंडा उठाकर खुद ही राजकर्ता, पातशाह बने?
जिजाऊसाहब के मन में उथल-पुथल हो रही थी। पर अनन्त हाथों वाली सशस्त्र रणदुर्गा अभी पूजाघर में ही विराजमान थीं। इन दिनों जिजाऊसाहब के पाँव भारी थे। कुछ ही दिनों में उनके एक बेटा हुआ। बेटे का नाम रखा गया सम्भाजी राजे। यह था उनका ज्येष्ठ पुत्र। पूजाघर में विराजमान भवानी माता के सामने आँचल फैलाकर जिजाऊ प्रार्थना कर रही थी, “हे माते! तू महिषासुरमर्दिनी है। राक्षसों का कलिकाल है। नौ रातें, नौ दिन रणकन्दन कर तूने कभी राक्षसों का निःपात कर दिया था। भक्तों का क्लेश हर लिया था। वही दीप्तिमान रूप फिर से धारण कर। मराठों के बाहुओं में शूरता भर दे। उनके सोए हुए स्वाभिमान को जगा दे। उन्हें अन्यायी, क्रूर मुस्लिम सुल्तानों को विनष्ट करने की प्रेरणा दे। महाराष्ट्र के पहाड़, नदी-नाले, खेत-खलिहान, लोग-बाग स्वतंत्रता के उज्वल आलोक से आलोकित हों।”
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ
4- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठाओं को ख्याल भी नहीं था कि उनकी बगावत से सल्तनतें ढह जाएँगी
3- शिवाजी ‘महाराज’ : महज पखवाड़े भर की लड़ाई और मराठों का सूरमा राजा, पठाणों का मातहत हुआ
2- शिवाजी ‘महाराज’ : आक्रान्ताओं से पहले….. दुग्धधवल चाँदनी में नहाती थी महाराष्ट्र की राज्यश्री!
1- शिवाजी ‘महाराज’ : किहाँ किहाँ का प्रथम मधुर स्वर….
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