हिन्दुस्तान में ‘भारत सरकार’ ने काम करना कब से शुरू किया?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 3/9/2021

बेंटिंक ने जब प्रशासनिक सुधार शुरू किए तो सभी प्रमुख विचारों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की। उन्होंने कार्यपालिक और न्यायिक शक्तियों को मिलाने पर जोर नहीं दिया। उन्हें एक-दूसरे पर निर्भर बनाया। बंगाल में अब तक कलेक्टर-न्यायिक दंडाधिकारी हर जिले में नियुक्त हो चुके थे। उनके ही नियंत्रण में पुलिस थी। लगान से जुड़े मामलों में न्यायिक शक्तियाँ भी थीं। जिला न्यायाधीश अलग थे। वे कलेक्टर-न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा भेजे गए आपराधिक मामलों की सुनवाई करते थे। निचली भारतीय अदालतों के विरुद्ध दीवानी मामलों की अपील पर सुनवाई करना भी उनके जिम्मे था। अब तक निचली अदालतों के न्यायाधीशों को भी काफ़ी न्यायिक शक्तियाँ मिल चुकी थीं। इस व्यवस्था में आगे मैकॉले जैसे विचारकों को संतुष्ट करने की मंशा से कुछ सुधार हुए, जो मानते थे कि आधिकारिक पदों से भारतीयों को बाहर नहीं रखना चाहिए। इनका असर ही था कि मद्रास और बम्बई प्रांतों में अच्छी संख्या में निचली अदालतों में भारतीय न्यायाधीश नियुक्त किए गए।

इस तरह, बेंटिंक एक हद तक प्रशासनिक कार्यक्षमता को बढ़ाने में सफल रहे। हालाँकि अंग्रेजों के प्रभुत्व वाले सभी इलाकों की शासन पद्धति में एकरूपता न होने की समस्या अब भी थी। बेंटिंक क्या, अब तक के कोई भी वायसराय शासन पद्धति में एकरूपता लाने में सफल नहीं हो सके थे। कारण कि प्रांतीय सरकारों में वायसराय का अधिकार क्षेत्र क्या और कितना होगा, यह ब्रिटिश संसद ने तय किया था। उसे सिर्फ संसद बदल सकती थी। इसीलिए ज़्यादातर लोगों में अब तक यह स्पष्ट धारणा बन चुकी थी कि जब तक किसी सर्वोच्च विधायी प्राधिकरण की कमी रहती है, भारत सरकार में भ्रम की स्थिति बनी रहेगी। 

आख़िरकार इस आमधारणा ने ब्रिटिश संसद का ध्यान खींचा और 1833 के ‘अधिकार पत्र कानून’ में कई अहम प्रावधान जोड़े गए। इन प्रावधानों के ज़रिए सही मायने में ‘भारत सरकार’ जैसी व्यवस्था बनी, जिसके पास विधायी परिषद भी थी। वायसराय अब ‘भारत के वायसराय’ बन चुके थे। जबकि पहले उनका पदनाम ‘फोर्ट विलियम, बंगाल के वायसराय’ था। लेकिन नए पदनाम के जरिए स्पष्ट तौर पर वायसराय सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्थापित कर दिए गए। इसके साथ यह भी साफ हो गया कि अब प्रांतों की सरकारें अपने अलग कानून नहीं बना सकतीं। अब वे सिर्फ़ इतना कर सकती थीं कि अगर कोई कानून बनाना ज़रूरी लगता है तो उसका मसौदा या प्रस्ताव तैयार कर वायसराय परिषद को सौंप दें।

हालाँकि विधायी परिषद के गठन, उसके स्वरूप को लेकर विरोध अब भी था। भारत में ज़्यादातर विचार इस पक्ष में थे कि लोकप्रिय आधारों पर विधायी परिषद गठित होनी चाहिए। इसमें वायसराय की ‘कार्यकारी परिषद’ के सदस्य हों। दो न्यायाधीश, हर प्रांत के प्रतिनिधि और संभव हो तो एक ग़ैरअधिकारी स्थानीय शख़्सियत को भी शामिल किया जाए। लेकिन यह लोकतांत्रिक विचार उपयोगितावादी सिद्धांतों के उलट था। जैसे, जेम्स मिल का मानना था कि सक्षमता के लिहाज़ से विशेषज्ञों की छोटी संस्था कहीं अधिक प्रभावी हो सकती है। उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यानि दूसरे शब्दों में, सरकार का कामकाज विशेषज्ञों पर छोड़ देना चाहिए। लेकिन उनका सुझाव आंशिक रूप से ही माना गया। 

ब्रिटिश संसद ने जब चार सदस्यों वाला विधि आयोग बनाया तो विशेषज्ञों की छोटी संस्था से संबंधित मिल के सुझाव पर अमल किया। वायसराय की तीन सदस्यीय कार्यकारी परिषद में भी कानून के एक जानकार को सदस्य बनाया। मगर साथ में यह बंदोबस्त भी कर दिया किया कि कानून का जानकार परिषद के सदस्य के रूप में तभी सक्रिय होगा, जब कोई कानूनी मसला विचार के लिए लाया जाएगा। साथ में यह भी कि वह सदस्य कंपनी कर्मचारी नहीं होगा। इंतज़ाम ऐसा रखा गया कि जब कानून का जानकार शामिल हो तो चार सदस्यों वाली वायसराय की कार्यकारी परिषद को ही ‘विधायी परिषद’ कहा जाए। 

इसके बाद वायसराय की कार्यकारी परिषद में कानून के जानकार सदस्य के रूप में पहली नियुक्ति थॉमस बेबिंगटन मैकॉले की हुई। उनके लिए कानून में सुधार बड़ा तात्कालिक लक्ष्य था। यह कार्यक्षमता से जुड़ा मसला भी था। वे व्यावहारिक व्यक्ति थे। यही कारण था कि उन्होंने अंतर्निहित अधिनायकवादी तत्त्व के कारण जिस उपयोगितावादी विचार का विरोध किया, उसी से राजनीति विज्ञान के व्यावहारिक दृष्टिकोणों को स्वीकार भी किया। उदाहरण के लिए, उपयोगितावादी मानते थे कि कानून आसान तरीके से व्यक्त किया जाना चाहिए। अधिकारी अपने अधिकारों का दुरुपयोग न कर सकें, इसलिए कानून बनाए जाने के लिए ज़िम्मेदार कारणों का अधिक से अधिक प्रचार किया जाना चाहिए। मैकॉले ने 11 मई 1835 की बैठक के अपने ब्यौरे में इस विचार का स्पष्ट समर्थन किया था। 

इसका परिषद के एक सदस्य अलेक्जेंडर रॉस ने भी उल्लेख किया था। उन्होंने लिखा था, “हिंदुस्तान शायद दुनिया का अकेला देश है, जहाँ स्वेच्छारी सरकार होने बावज़ूद पत्रकारिता स्वतंत्र है। अन्य देशों में जहाँ ऐसी सरकारें हैं, वहाँ लेखक सरकारी फ़ैसलों/कदमों की तीखी आलोचना करने से डरते हैं। वहीं जिन देशों में स्वतंत्र राजनीतिक बहस की इजाज़त होती है, वहाँ अक़्सर सभा, सम्मेलन होते रहते हैं। इनमें कानून लिखने वालों के सामने अवसर होता है कि वे सबको इसके कारणों के बारे में बता सकें। उन्हें सही ठहरा सकें। मसलन, अगर रूस का सम्राट कोई आदेश जारी करे तो कोई भी रूसी इसके बारे में कुछ लिखता नहीं। सिर्फ़ उसे स्वीकार करता है। लेकिन अगर इंग्लैंड या फ्रांस में मंत्री कोई कानून लाए तो उसके सामने अवसर होता है कि वह संसद या सभाओं में उसे बहस के लिए पेश करे। इस दौरान वहाँ वह कानून के पक्ष में जो दलीलें देता है, उन्हें चंद घंटों में ही सैकड़ों-हजारों लोग पढ़ लेते हैं। हम (अंग्रेज) शायद दुनिया के इकलौते शासक हैं, जो सियासी सवालों पर चुप रह जाते हैं। हमारे सभी विषयों से मुँहबंदी हटी हुई है। हमारे कानून खुले तौर पर स्वतंत्र पत्रकारिता का सामना करते हैं। इस रूप में, वे दुनिया के इकलौते ऐसे कानून होते हैं।”

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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