शिवाजी ‘महाराज’ : शिव-समर्थ भेंट हो गई, दो शिव-सागर एकरूप हुए

बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से

दिंडोरी की जीत के आठ ही दिन बाद मोरोपन्त पिंगले ने त्र्यम्बकगढ़ जीत लिया (दिनांक 25 अक्टूबर 1670)। अगले ही महीने (नवम्बर) में महाराज विदर्भ में ‘लाडाचं कारंज’ को आए। कारंजे में महाराज ने अपार दौलत जुटाई। बैल और गधे मिलाकर 4,000 जानवरों पर लादकर महाराज उस दौलत को ले चले। इसके बाद महाराज और मोरोपन्त बागलान में मिले। तुरन्त दोनों ने मिलकर साल्हेरगढ़ को घेर लिया। किले का मुगली किलेदार फत्तुल्लाह खान हमले में मारा गया। साल्हेरगढ़ को बचाने के लिए मुगल सरदार दाऊद खान कुरैशी जल्दी-जल्दी साल्हेर आ रहा था। मुल्हेर पहुँच भी गया था। तभी साल्हेरगढ़ पर मराठों का निशान लग गया (दिनांक 5 जनवरी 1671)।

हालाँकि महाराज को कोंकण में इस बार भी मुँह की खानी पड़ी। जंजीरा का सिद्दी बहुत दिलेर और जाँबाज दुश्मन था। वह बहुत ही अच्छा लड़वैया था। सिद्दी ने बहुत बहादुरी से, बला की कुशलता से, महाराज के कब्जे से दंडा और राजपुरी थाने छुड़ा लिए (लगभग 10 फरवरी 1671) इधर, साल्हेरगढ़ को फिर से जीतने के लिए बहादुर खान और दिलेर खान ने किले को अच्छी तरह से घेर लिया। उनके अधीन कम से कम 50 सरदार और लगभग 75,000 की फौज थी। तब महाराज ने मोरोपन्त और प्रतापराव को साल्हेरी का घेरा तोड़ने का आदेश भेजा। पन्त तुरन्त कोंकण से पठार पर आए और प्रतापराव के साथ मिलकर साल्हेरी के नीचे जुटे मुगलों पर टूट पड़े।

घनघोर युद्ध हुआ। दोनों पक्षों के कुल 10,000 लोग मारे गए। साल्हेरी का युद्ध दिंडोरी से ज्यादा भयानक था। इसमें मुगलों के तीन सरदार कैद हुए। मराठों ने लक्षावधि की युद्ध सामग्री पर कब्जा किया। मुगलों की करारी शिकस्त हुई। खुद इख्लास खान कैद हुआ। मोरोपन्त मानाजी मोरे, खंडोजी जगताप, रूपाजी, आनन्द राव भोसले, सूर्यराव काकड़े आदि ने जान की बाजी लगाई। कुरुक्षेत्र ही हुआ समझो। लेकिन इस रण में एक हीरा लोप हो गया। युद्ध में महाराज के बालसखा सूर्याजी काकड़े की आहुति पड़ी (साल 1672, फरवरी का प्रारम्भ)। सूर्यराव की मौत का धक्का जबर्दस्त था। महाराज बेहद दुःखी हुए। स्वराज की हर विजय महाराज के आँसुओं से भीगी थी। युद्ध की विजय ऐसी ही होती है।

हालाँकि मराठों ने शीघ्र ही मुल्हेरगढ़ भी जीत लिया। प्रतापराव और मोरोपन्तजी ने महाराज को जीत की खबर लिख भेजी। इससे महाराज खुश हुए। महाराज ने खबर लाने वाले हरकारे के हाथ में सोने के कड़े पहनाए। गढ़ पर शक्कर बाँटी। इसी दौरान समर्थ रामदास स्वामी गाँव-गाँव, जंगल-जंगल भटक रहे थे। लोकस्थिति, देशस्थिति, सुल्तान की राजनीति और अनगिनत स्वकीय, परकीय जनमानस का जायजा ले रहे थे। उनके मन में व्याकुल, परेशान जनता का उद्धार करने की तड़प थी। अकुलाहट थी कि सद्धर्म, सुसंस्कृति, और तीर्थक्षेत्र, इनकी रक्षा हो। लोग होशियार चतुर हों। स्वाभिमानी, सशक्त, नीतिनिपुण, सजग, निष्ठावान् हों। गुणवान्, हुनर वाले हों। उनमें भले-बुरे को परखने की शक्ति हो।

स्वामी जी इन बातों के लिए जनसमुदाय को तैयार भी कर रहे थे। उनके शिष्य दूर-दूर तक घूम रहे थे। समर्थ स्वामी खुद भी एक जगह पर ज्यादा नहीं रहते थे। गहन गुफाएँ और शिखर उन्हें बहुत भाते थे। उनकी सुखसम्पदा थी देशसेवा और लोकसेवा में। महाराष्ट्र में शिवाजीराव भोसले ने स्वराज्य स्थापित करने का भगीरथ उद्यम शुरू किया था। समर्थ को इस बात की बड़ी प्रसन्नत थी। लेकिन कई तपों से महान लोककार्य, देवकार्य करने वाले श्री समर्थ और तलवार हाथ में लेकर यही कार्य करने वाले शिवाजी महाराज की मुलाकात अभी तक नहीं हुई थी। हैरत की ही बात है।

अफजल वध से पौने दो साल पहले महाराज ने समर्थ के चाफल राम मन्दिर के उत्सव के लिए प्रतिवर्ष 200 होन देने की नामजदगी दी थी। इसके सिवा 500 होन अर्पण भी किए थे उन्होंने (दिनांक 13 फरवरी 1658)। लेकिन आमने-सामने कभी मुलाकात नहीं हुई थी। सो, तभी समर्थ ने महाराज के देवधर्म, राजकार्य की प्रशंसा करने वाला एक बहुत ही अप्रतिम पत्र लिखा, “हृदयस्य हुआ नारायण। प्रेरणा दी। महाराष्ट्र धर्म आप ही के कारण। धन्य धन्य कीर्ति आपकी, विश्व में फैली है हर कहीं।” समर्थ ने महाराज की तारीफ की, “शिवकल्याण राजा”, इस शब्द से। समर्थ की वाणी और कलम आनन्द से गद्-गद् हुए। समर्थ ने सपने में जो देखा, वह प्रत्यक्ष हो रहा था। यह देख वह फूले नहीं समा रहे थे।

इसके बाद महाराज खाम तौर से, पवित्र श्रावणमास में समर्थ से मिलने चाफल आए। आकाश और महासागर गले मिल रहे थे। मन में श्रद्धा संजोए महाराज, समर्थ से मिलने चले। सन्तों के साथ महाराज विनम्र होते थे। चाहे वे किसी भी जाति, धर्म के हो। शिव-समर्थ भेंट हो गई। दो शिव-सागर एकरूप हुए। महाराज और समर्थ रामदास स्वामी की ये ऐतिहासिक भेंट चाफल के समीप, शिंगणवाड़ी में हुई थी। रामदास स्वामी जी से मिलकर महराज के मन को अपार शान्ति मिली। भक्ति के उत्सव में भजन-पूजन-कीर्तन के समारोह में, महाराज तल्लीन हो गए। समर्थ स्वामीजी का अनुग्रह प्राप्त करने की इच्छा उनके मन में जगी और वह अब पूरी भी हो चुकी थी।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।) 
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ 
44- शिवाजी ‘महाराज’ : दुःख से अकुलाकर महाराज बोले, ‘गढ़ आया, सिंह चला गया’
43- शिवाजी ‘महाराज’ : राजगढ़ में बैठे महाराज उछल पड़े, “मेरे सिंहों ने कोंढाणा जीत लिया”
42- शिवाजी ‘महाराज’ : तान्हाजीराव मालुसरे बोल उठे, “महाराज, कोंढाणा किले को में जीत लूँगा”
41- शिवाजी ‘महाराज’ : औरंगजेब की जुल्म-जबर्दस्ती खबरें आ रही थीं, महाराज बैचैन थे
40- शिवाजी ‘महाराज’ : जंजीरा का ‘अजेय’ किला मुस्लिम शासकों के कब्जे में कैसे आया?
39- शिवाजी ‘महाराज’ : चकमा शिवाजी राजे ने दिया और उसका बदला बादशाह नेताजी से लिया
38- शिवाजी ‘महाराज’ : कड़े पहरों को लाँघकर महाराज बाहर निकले, शेर मुक्त हो गया
37- शिवाजी ‘महाराज’ : “आप मेरी गर्दन काट दें, पर मैं बादशाह के सामने अब नहीं आऊँगा”
36- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी की दहाड़ से जब औरंगजेब का दरबार दहल गया!
35- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठे थके नहीं थे, तो फिर शिवाजी ने पुरन्दर की सन्धि क्यों की?
34- शिवाजी ‘महाराज’ : मरते दम तक लड़े मुरार बाजी और जाते-जाते मिसाल कायम कर गए
33- शिवाजी ‘महाराज’ : जब ‘शक्तिशाली’ पुरन्दरगढ़ पर चढ़ आए ‘अजेय’ मिर्जा राजा
32- शिवाजी ‘महाराज’ : सिन्धुदुर्ग यानी आदिलशाही और फिरंगियों को शिवाजी की सीधी चुनौती
31- शिवाजी महाराज : जब शिवाजी ने अपनी आऊसाहब को स्वर्ण से तौल दिया
30-शिवाजी महाराज : “माँसाहब, मत जाइए। आप मेरी खातिर यह निश्चय छोड़ दीजिए”
29- शिवाजी महाराज : आखिर क्यों शिवाजी की सेना ने तीन दिन तक सूरत में लूट मचाई?
28- शिवाजी महाराज : जब शाइस्ता खान की उँगलियाँ कटीं, पर जान बची और लाखों पाए
27- शिवाजी महाराज : “उखाड़ दो टाल इनके और बन्द करो इन्हें किले में!”
26- शिवाजी महाराज : कौन था जो ‘सिर सलामत तो पगड़ी पचास’ कहते हुए भागा था?
25- शिवाजी महाराज : शिवाजी ‘महाराज’ : एक ‘इस्लामाबाद’ महाराष्ट्र में भी, जानते हैं कहाँ?

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Neelesh Dwivedi

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