शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी ने जब गोलकोंडा के बादशाह से हाथ मिलाया, गले मिले

बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से

तमिल प्रान्त के तंजावर में शिवाजी महाराज के छोटे सौतेले भाई, एकोजी राजे अपनी जागीर का कारोबार देखते थे। वह खुद बहादुर थे। कर्तृत्त्ववान थे। सुसंस्कृत भी थे। लेकिन शिवाजी महाराज से न जाने क्यों वह हमेशा परायापन ही बरतते थे। कई बार वह खुद महाराज के विरोध में आदिलशाह के सरदार की हैसियत से लड़े भी थे। छोटा भाई बहादुर होते हुए भी बादशाह की खिदमत करता है, रुखाई से पेश आता है, इस बात का महाराज को दुःख था। इसी समय शहाजी राजे के समय से कारोबार देखने वाले रघुनाथ पन्त हनुमन्ते के साथ एकोजी की पटरी नहीं बैठ रही थी। 

तब महाराज ने सोचा कि दक्षिण में जाकर एकोजी से मिल लिया जाए। उनसे अपनत्त्व की चार बातें करें। अयोग्य सलाहकारों को एकोजी से अलग करें। इसी यात्रा में भागानगर, गोलकोंडा के कुतुबशाह बादशाह से मिलकर उससे स्नेह का रिश्ता जोड़ने का भी उनका इरादा था। इस यात्रा पर महाराज निकले ही इस उद्देश्य से थे कि दक्षिण के छत्रपति और कुतबशाह बादशाह आदि सत्ताधीश एकसूत्र में बाँध दिए जाएँ। ताकि आगे चलकर औरंगजेब को दक्षिण में आने की हिम्मत न हो। और अगर वह आ भी गया तो सब इकठ्ठे उसका मुकाबला करें (दिनांक 6 अक्तूबर 1676)। 

इसी समय कर्नाटक के कोप्पल परगने में आदिलशाही सूबेदार जुल्म ढा रहे थे। हुसैन खान और अब्दुर्रहीम खान मियाना, ये दो भाई कहर बरपा रहे थे। कन्नड़ प्रजा इससे हैरान-परेशान थी। वह बार-बार महाराज से विनती कर रही थी कि इस अत्याचार से हमें मुक्त कीजिए। महाराज ने कोप्पल को उन जालिमों के जुल्म से मुक्त करने का संकल्प किया। हम्बीर राव के साथ कोप्पल के लिए फौज भेजी। इस फौज में नागोजी जेधे और धनाजी जाधवराव नाम के दो जवाँ मर्द थे। नागोजी मावल के कान्होजी जेधे का पोता था। तेजतर्रार था।

मराठी और मियाना पठानों की मुठभेड़ लिंगसूर में हुई। भयंकर रणक्रन्दन मचा। हुसैन खान हाथी पर सवार था। हाथी के साथ वह मैदान से भागने लगा। तब नागोजी ने उस पर बरछा फेंका। खान तो बच गया लेकिन उसके जवाबी बाण से नागोजी मर्माहत हुए। दूसरे ही क्षण निष्प्राण हुए। यह देख धनाजी ने जोरदार हमला किया। खान और उसके भाई को गिरफ्तार किया। बहुत बड़ी विजय मिली। कोप्पल परगना आजाद हुआ (जनवरी प्रारम्भ 1677)। नागोजी के पिता सर्जेराव जेधे भी इस जंग में लड़ रहे थे। जवान बेटे ने बाप के सामने दम तोड़ दिया। सर्जेराव का कलेजा कलप उठा। नागोजी की पत्नी गोदूबाई, कारोगाँव में ही सती हो गई। 

कोप्पल की विजय सचमुच ही शानदार थी। मियाना पठानों की प्रचंड फौज को हम्बीर राव के केवल डेढ़ हजार जवानों ने करारी मात दी। बाद में हम्बीर राव, धनाजी और फौज के साथ महाराज से मिलने गेरुआ झंडा लेकर जीत की खुशी मनाते हुए पहुँचे। महाराज इन विजयी वीरों से मिले। महाराज ने धनाजी जाधवराव की पीठ थपथपाई। कहा, “तुमने पराक्रम की चरम सीमा दिखा दी। हौसला रखोगे तो तुम प्रतिसृष्टि निर्माण करोगे।” कोप्पल की आजादी के कारण कन्नड़ मराठों में मैत्री का रिश्ता कायम हो गया। इसके बाद महाराज ने बड़ी शान से भागानगर में प्रवेश किया। 

भागानगरवासी छत्रपति की शानो-शौकत देख दंग रह गए। महाराज सिंहासनाधीश्वर छत्रपति और तख्तनशीन शहंशाह कुतुबशाह दादमहल में बड़े प्यार से, एक-दूसरे से मिले। दोनों गले लगे। महाराज रायगढ़ के ‘पातशाह’ थे। अबुल हसन कुतुबशाह गोलकोंडा के पातशाह थे। कुतुबशाह के वकील थे मादण्णा पिंगली ‘सूर्यप्रकाश राव’। बहुत कुशल वजीर थे। दूरदर्शी थे। महाराज की महानता वह जानते थे। महाराज का मुकाम यहाँ लगभग एक महीना रहा। (लगभग पाँच फरवरी से 10 मार्च 1677 तक)। इस बीच दोनों पक्षों में स्नेह का रिश्ता बन गया। मित्रता के राजनीतिक करार भी किए। दोनों ने एक-दूसरे का मानसम्मान अच्छी तरह से किया। भागानगर में महाराज की वकालत थी। प्रह्लाद निराजी वहाँ के वकील थे। वकील प्रह्लाद निराजी और वजीर मादण्णा ने इस स्नेह बन्धन को कारगर बनाया। 

फिर कुतुबशाह से विदा लेकर महाराज भागानगर से दक्षिण में गए (दिनांक 10 मार्च के करीब)। कृष्णा और तुंगभद्रा के संगम पर आकर महाराज ने इस तीर्थ में स्नान किया। इसके बाद महाराज श्रीशैल गए। बारह ज्योतिर्लिंगों में समाविष्ट इस शिवस्थान की तलहटी में कृष्णामाता का प्रवाह है। कृष्णा में स्नान करने के बाद महाराज ने नदी किनारे एक सुन्दर घाट बनाने का निश्चय किया। योजना बनाई। इस घाट को नाम दिया ‘श्रीगंगेश’। एक धर्मशाला और श्रीशैल पर एक गोपुर बाँधने का भी महाराज ने इन्तजाम किया। इसके बाद श्रीशैलमल्लिकार्जुन मन्दिर में महाराज ने प्रवेश किया। विजयनगर के पुण्यश्लोक सम्राट कृष्णदेवराय के बनाए उस मन्दिर में, अक्षयदीपों के मन्द आलोक में शिवजी का दिव्य ज्योतिर्लिंग दमक रहा था। वहाँ की आह्लादक हवा, प्राकृतिक सुषमा, धार्मिक तथा पौराणिक महत्ता आदि बातों से महाराज रोज को व्यस्त जिन्दगी को भूल से गए। प्रसन्नता में उनके मन-प्राण डूब गए।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ
54- शिवाजी ‘महाराज’ : परधर्मो भयावहः, स्वधर्मे निधनं श्रेयः…अपने धर्म में मृत्यु श्रेष्ठ है
53- शिवाजी ‘महाराज’ : तभी वह क्षण आया, घटिकापात्र डूब गया, जिजाऊ साहब चल बसीं
52- शिवाजी ‘महाराज’ : अग्नि को मुट्ठी में भींचा जा सकता है, तो ही शिवाजी को जीता जा सकता है
51- शिवाजी ‘महाराज’ : राजा भए शिव छत्रपति, झुक गई गर्वीली गर्दन
50- शिवाजी ‘महाराज’ : सिंहासनाधीश्वर, क्षत्रियकुलावतंस महाराज शिवछत्रपति
49- शिवाजी ‘महाराज’ : पहले की शादियाँ जनेऊ संस्कार से पहले की थीं, अतः वे नामंजूर हो गईं
48- शिवाजी ‘महाराज’ : रायगढ़ सज-धज कर शिवराज्याभिषेक की प्रतीक्षा कर रहा था
47-शिवाजी ‘महाराज’ : महाराष्ट्र का इन्द्रप्रस्थ साकार हो रहा था, महाराज स्वराज्य में मगन थे
46- शिवाजी ‘महाराज’ : राज्याभिषिक्त हों, सिंहानस्थ हों शिवबा
45- शिवाजी ‘महाराज’ : शिव-समर्थ भेंट हो गई, दो शिव-सागर एकरूप हुए
44- शिवाजी ‘महाराज’ : दुःख से अकुलाकर महाराज बोले, ‘गढ़ आया, सिंह चला गया’
43- शिवाजी ‘महाराज’ : राजगढ़ में बैठे महाराज उछल पड़े, “मेरे सिंहों ने कोंढाणा जीत लिया”
42- शिवाजी ‘महाराज’ : तान्हाजीराव मालुसरे बोल उठे, “महाराज, कोंढाणा किले को में जीत लूँगा”
41- शिवाजी ‘महाराज’ : औरंगजेब की जुल्म-जबर्दस्ती खबरें आ रही थीं, महाराज बैचैन थे
40- शिवाजी ‘महाराज’ : जंजीरा का ‘अजेय’ किला मुस्लिम शासकों के कब्जे में कैसे आया?
39- शिवाजी ‘महाराज’ : चकमा शिवाजी राजे ने दिया और उसका बदला बादशाह नेताजी से लिया
38- शिवाजी ‘महाराज’ : कड़े पहरों को लाँघकर महाराज बाहर निकले, शेर मुक्त हो गया
37- शिवाजी ‘महाराज’ : “आप मेरी गर्दन काट दें, पर मैं बादशाह के सामने अब नहीं आऊँगा”
36- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी की दहाड़ से जब औरंगजेब का दरबार दहल गया!
35- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठे थके नहीं थे, तो फिर शिवाजी ने पुरन्दर की सन्धि क्यों की?

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Neelesh Dwivedi

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