ब्रिटिश भारत में कानून संहिता बनाने की प्रक्रिया पहली बार कब पूरी हुई?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 11/10/2021

मैकॉले ने ब्रिटिश-भारत में कानून का राज स्थापित करने के लिए बड़े क्रांतिकारी सुधार सुझाए थे। उनका दृष्टिकोण भी सिर्फ कानूनी ढाँचे और न्यायिक प्रशासन तक सीमित नहीं था। उदाहरण के लिए उन्होंने दिसंबर 1835 में एक समिति गठित करने का प्रस्ताव रखा था। इस समिति को जेलों से संबंधित मामले और वहाँ के अनुशासन आदि की जाँच का जिम्मा सौंपा जाना था। इसके पीछे उनका तर्क था, “सबसे अच्छी आपराधिक दंड संहिता भी तब तक अल्प-उपयोगी ही है, जब तक कि सज़ा सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी मशीनरी न हो।” सो, उनके सुझाव पर यह समिति बनी भी, लेकिन गृह विभाग ने 1838 में आई इसकी रिपोर्ट को ख़ारिज़ कर दिया। दलील दी कि “इसे लागू करने के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं है।” सरकार का यह रवैया लंबे समय तक बना रहा। हालाँकि 1835 में ही विधायी परिषद की प्रवर समिति ने मैकॉले द्वारा तैयार मसौदे और उनके सुझावों के पक्ष में राय दी थी। इसे बाद इसी मसौदे पर आधारित विधि-संहिता के निर्माण का काम भी शुरू हो चुका था।

फिर 1860 में मैकॉले की बनाई विधि संहिता लागू हुई। उन्होंने जिस भाषा, जिस सोच और जिन विशिष्टताओं को इसमें समाहित किया, सब उसी रूप में लागू हुईं। बस, इसमें न्याय क्षेत्र में आमूलचूल बदलाव की भावना नहीं थी क्योंकि इससे भारतीय समाज में ज़बर्दस्त दख़लंदाज़ी होती। विधि आयोग ने भी सिफ़ारिश की थी कि हिंदुओं और मुसलमानों के धार्मिक कानूनों को नई कानून संहिता के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। फिर भी भारत के सभी वर्गों पर सामान्य रूप से लागू कानूनी प्रणाली का लगभग सभी ने स्वागत किया। सर जॉर्ज ट्रेवेलियन के शब्दों में, “इसने भारतीयों की कृतज्ञता हासिल की। ख़ासतौर पर लोकसेवा के सदस्यों की, जिन्हें इस नए बंदोबस्त को आगे ले जाना था।” इस संहिता ने कई भारतीय विषयों को नियमबद्ध किया। जैसे- बहुविवाह प्रथा। इसमें पारंपरिक कानून को जारी रखने की इजाज़त दी गई। हालाँकि बाल विवाह आदि के ख़िलाफ़ कानून अब भी नहीं था।

सजा के प्रावधानों में भी मानवीय पहलुओं का विशेष ध्यान रखा गया था, जो उस समय के हिसाब से काफ़ी आगे की सोच थी। जैसे- मृत्य दंड का प्रावधान सिर्फ़ देशद्रोह और हत्या के अपराधों में ही किया गया, लेकिन उसे भी अनिवार्य नहीं बनाया गया। इसका निर्णय अदालत और न्यायाधीशों के विवेक पर छोड़ दिया गया। शारीरिक दंड का प्रावधान भी मूल मसौदे में नहीं था। उसे 1864 में, विशेष अधिनियम के जरिए शामिल किया गया। फिर आगे इस संहिता में और भी संशोधन हुए।  
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इसके बाद दिसंबर 1861 में एक आयोग गठित किया गया। इसे अपेक्षित कानूनी इकाई का स्वरूप प्रस्तावित करने की ज़िम्मेदारी दी गई। इस आयोग ने स्पष्ट किया कि अंग्रेजी कानून नींव के तौर पर तो इस्तेमाल हो लेकिन उस पर बना ढाँचा ऐसा हो जिसमें “भारतीय परिस्थितियों, उसकी संस्थाओं, धर्म, चारित्रिक विशिष्टताओं, आदि का पूरा सम्मान किया जाए।” आयोग का पहला निष्कर्ष था कि संपत्ति से जुड़े मामलों के निपटारे के लिए तुरंत एक कानून की ज़रूरत है। हिंदु, मुसलमानों के लिए नहीं क्योंकि उनके धार्मिक कानूनों में तो पहले से इस संबंध में प्रावधान हैं। लेकिन अन्य लोगों के लिए यह ज़रूरी है। इसके बाद आयोग की सिफारिश पर 1865 में भारतीय उत्तराधिकार कानून पारित किया गया। आगे जाकर 1872 में भारतीय संविदा अधिनियम और भारतीय साक्ष्य अधिनियम तथा अन्य कानून पारित किए गए। इस तरह 1882 में कानूनों को संहिताबद्ध करने की प्रक्रिया पूरी हुई। 

इस बीच 1859 और 1861 में जो अधिनियम आए, उनमें प्रक्रिया संहिता की ज़रूरत भी महसूस की गई। इसके तहत पहले नागरिक कानून प्रक्रिया संहिता बनी। फिर आपराधिक कानून प्रक्रिया संहिता। इन संहिताओं में सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान मामला दायर करते समय लिखित अभिवचनों (रिटेन प्लीडिंग्स) की समाप्ति का था। यह थका देने वाली प्रक्रिया थी। इससे साधारण मामलों में भी वकीलों की मदद की ज़रूरत पड़ जाती थी। फ़ैसला आने में भी तीन-तीन महीने लग जाते थे। हालाँकि इस प्रावधान के बावज़ूद प्रक्रिया संहिता अपील के तौर-तरीकों में बड़ा बदलाव नहीं ला सकी। यह पहले की तरह जटिल, धीमी और खर्चीली बनी रही। एक दिलचस्प मामला मुकदमा दायर कराते वक्त लगने वाले मुद्रांक शुल्क (स्टांप ड्यूटी) का भी था। यह भी अभी बना हुआ था क्योंकि इससे सरकार को अच्छी-खासी कमाई होती थी। इसके अलावा इसे बनाए रखने का एक कारण यह मान्यता थी कि इससे अनावश्यक मुकदमे दायर करने से लोग परहेज करते हैं। मगर इस व्यवस्था ने न सिर्फ गरीबों के साथ भेद किया, बल्कि जिम्मेदारीपूर्वक और उचित कारणों से दायर किए जाने वाले मुकदमों को भी हतोत्साहित किया।

ब्रिटिश सरकार ने 1861 में उच्च न्यायालय अधिनियम पारित किया था। इसमें अपील के लिए दो ऊपरी अदालतों- सदर और उच्चतम न्यायालय का प्रबंध किया गया। इससे भी न्याय में अधिक सहयोग नहीं मिला। निचली अदालतों में भी अधिक सुधार नहीं हुए। पूरे देश में एक जैसे न्याय प्रशासन की व्यवस्था होने में कुछ वक्त लगा। इससे 1882 तक मद्रास, बंबई और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत मुख्य रूप से बंगाल के सिद्धांतों का पालन करते रहे। जबकि मध्य प्रांतों (पंजाब, सिंध, अवध और असम) तथा ब्रिटिश बर्मा में न्यायिक व कार्यपालिक प्रशासन एकीकृत रहा। दीवानी मामलों में भी मौद्रिक शर्तों की वज़ह से अदालतों के न्याय क्षेत्र की हद बँधी रही। इस व्यवस्था ने समस्याएँ बढ़ाईं और वकीलों की अनावश्यक ज़रूरतों को भी प्रोत्साहित किया। बल्कि निचली अदालतों में तो एक अलग ही तरह की न्याय प्रणाली थी, जिसके फ़ैसलों के ख़िलाफ़ अपील नहीं होती थी। इसी तरह कई उच्च अदालतें थीं, जो किसी ऊपरी अदालत के लिए उत्तरदायी नहीं थीं। उनकी कानूनी संहिताएँ अलग-अलग और अव्यवस्थित थीं।  

बहरहाल, इस सबके बावज़ूद अंग्रेजों ने भारत के विकासशील समाज को पश्चिम की नीतियों पर आधारित कानूनी ढाँचा तो उपलब्ध करा ही दिया था। इसका दायरा काफी विस्तृत था। इसमें जेल, कंपनी कानून से लेकर उत्पाद एवं सीमा शुल्क और औद्योगिक श्रमिकों की सुरक्षा तक तमाम चीजें शामिल थीं। हालाँकि, स्वतंत्र भारत के नज़रिए से देखें तो संभव है कि यह ढाँचा दिग्भ्रमित लगे, लेकिन विदेशी साम्राज्य के हिसाब से देखें तो वह पर्याप्त संवेदनशील भी था।
(जारी…..)
अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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पिछली कड़ियाँ : 
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38. भारत में पहली बार प्रेस पर प्रतिबंध कब लगा?
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36. राजा राममोहन रॉय के संगठन का शुरुआती नाम क्या था?
35. भारतीय शिक्षा पद्धति के बारे में मैकॉले क्या सोचते थे?
34. पटना में अंग्रेजों के किस दफ़्तर को ‘शैतानों का गिनती-घर’ कहा जाता था?
33. अंग्रेजों ने पहले धनी, कारोबारी वर्ग को अंग्रेजी शिक्षा देने का विकल्प क्यों चुना?
32. ब्रिटिश शासन के शुरुआती दौर में भारत में शिक्षा की स्थिति कैसी थी?
31. मानव अंग-विच्छेद की प्रक्रिया में हिस्सा लेने वाले पहले हिन्दु चिकित्सक कौन थे?
30. भारत के ठग अपने काम काे सही ठहराने के लिए कौन सा धार्मिक किस्सा सुनाते थे?
29. भारत से सती प्रथा ख़त्म करने के लिए अंग्रेजों ने क्या प्रक्रिया अपनाई?
28. भारत में बच्चियों को मारने या महिलाओं को सती बनाने के तरीके कैसे थे?
27. अंग्रेज भारत में दास प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथाएँ रोक क्यों नहीं सके?
26. ब्रिटिश काल में भारतीय कारोबारियों का पहला संगठन कब बना?
25. अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों ने भारतीय उद्योग धंधों को किस तरह प्रभावित किया?
24. अंग्रेजों ने ज़मीन और खेती से जुड़े जो नवाचार किए, उसके नुकसान क्या हुए?
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22. स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्था क्यों लागू की गई थी?
21: अंग्रेजों की विधि-संहिता में ‘फौज़दारी कानून’ किस धर्म से प्रेरित था?
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19. रेलवे, डाक, तार जैसी सेवाओं के लिए अखिल भारतीय विभाग किसने बनाए?
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