सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 13/7/2021

हम अपने जीवन में लोगों के बारे में धारणाएँ अक्सर बाहरी आवरण देखकर बना लेते हैं। रूप, रंग, वस्त्र के आधार पर व्यक्ति की छवि बना लेते हैं कि वह ऐसा होगा, वैसा होगा। मेरे एक मित्र हैं। वे दो भाई हैं। उनमें छोटा आधुनिक विचारों से युक्त सदैव अद्यतन (Update) रहता है। उसकी दिनचर्या में नियमित जिम शामिल है। वह अपने शरीर की सुडौल बनावट का ख्याल रखता है। खाना ऐसा खाता है, जो शरीर में वसा आदि की मात्रा को न बढ़ने दे। 

जबकि मेरे मित्र मानव हित के कार्य के प्रति तत्पर रहने वाले हैं। यूँ ही एक दिन उनसे बात करते हुए मैंने कहा, “आप भी अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखा कीजिए। जिम न भी जाएँ तो योग को सम्मिलित कीजिए।” मित्र ने बढ़ा सुन्दर उत्तर देते हुए कहा, “मेरा जन्म सामाजिक दायित्वों के निर्वाह स्वरूप हुआ। तो मेरा जीवन समाज के लिए है। अगर अन्य चीजों पर ध्यान दूँगा तो सामाजिक दायित्व छूटने लगेंगे। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए सम्यक आहार लेता ही हँ। बस सम्यक आत्म के लिए सदा प्रयासरत हूँ।” यह दृष्टि ही दृश्यमान मानव को वास्तविक मानव में बदल देती है।

मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी को निमंत्रण मिला और वे सामान्य वेशभूषा में पहुँच गए। दरबारी ने प्रवेश ही नहीं करने दिया। अन्तत: निमंत्रण अनुरूप परिधान पहनकर वापस आए और भोजन भी परिधानों को खिलाने लगे। निमंत्रण कर्ता ने इस व्यवहार का कारण पूछा तो उन्होंने पूरी घटना का विवरण दिया। निश्चित ही दरबारी की दृष्टि में वेशभूषा अत्याधिक महत्त्वपूर्ण थी।

लेकिन सम्यक दृष्टि वाले व्यक्ति के लिए व्यक्ति के आत्मिक गुण महत्वपूर्ण हैं, न कि बाहरी आवरण। यह सम्यक दृष्टि ही भगवान बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग का पहला अंग है। यह सम्यक ज्ञान का भाग है। जब सम्यक दृष्टि होगी तब हम सम्यक संकल्प ले पाएँगे। देखने के दृष्टिकोण में परिवर्तन और यह परिवर्तन सद हो तभी सम्यक दृष्टि हासिल होती है। मित्र की तरह अन्न ग्रहण जीवनचर्या हेतु और जीवनचर्या सामाजिक दायित्वों हेतु।

हम जब भी समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है। समाज की बेहतरी ही मानव की बेहतरी है। अच्छा समाज अच्छे मानव का निर्माण करता है। जैसा समाज होगा हमारे संस्कार वैसे ही बनेंगे हमारा चारित्रिक विकास वैसा ही होगा। अगर यह मानवोन्मुख है तो सम्यक दृष्टि का विकास हो रहा है। सम्यक दृष्टि सम्यक संकल्पों का निर्माण कर देगी और यही ज्ञान में परिवर्तित हो जाएगा। 

ज्ञान वही है जो समाज, राष्ट्र, विश्व के कल्याण में योगदान दे। अन्यथा वह ज्ञान कहाँ रहा? वह कुत्सित सूचनाओं का भंडार है, जो केवल प्राणियों को कष्ट देने के कार्य में आता है। वह ज्ञान है जो मानव को मानव बना दे।

बुद्ध के सामने भगवान कृष्ण का यह कथन “ऋते ज्ञानात न मुक्तिः” रहा होगा। भगवान कृष्ण तो ज्ञान के विषय में बहुत कुछ कहते हैं। जैसे भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं, “सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ( ४/३३)”। अर्थात् हे पार्थ! सभी कर्मों का परिसमापन ज्ञान में प्रतिष्ठित होने पर हो जाता है।

और यह भी कि “नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते (४/४८)”। अर्थात् ज्ञान से पवित्रतर कुछ है ही नहीं’। 

सम्भवत: इन्ही वचनों की दृष्टि में भगवान बुद्ध भी अष्टांगिक मार्ग के सर्वप्रथम अंग के रूप में “सम्यक ज्ञान” प्रतिष्ठित करते हैं।

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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 19वीं कड़ी है।)
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं….

18वीं कड़ी : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है

17वीं कड़ी : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं?

16वीं कड़ी : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला?

15वीं कड़ी : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है?

14वीं कड़ी : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है?

13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं?

12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन

11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई?

10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है?

नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की!

आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है? 

सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे?

छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है

पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा?

चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं?

तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए!

दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा?

पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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