अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 14/12/2021
पृथ्वी पर तीन रत्न हैं। पहला- जल, दूसरा- अन्न और तीसरा- अच्छे बोल (पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्)। हम अक्सर जो भी बेहतर होता है, उसके प्रति उदासीन ही रहते हैं। क्योंकि हम एकदम आकर्षित करने वाली चीजों के प्रति आसक्त रहते हैं। यह एक सामान्य स्वभाव है और इसको बदलना कठिन है। इसीलिए कठिन चीजों को अपनाना तप हो जाता है। तप सामान्य सी दिखने वाली चीजें अपनाना भी है। इसलिए भगवान महावीर ने अपने उपदेशों में तीन रत्नों की चर्चा की है। जो जैन मत के मुख्य आधार हैं। पहला- सम्यक् दर्शन, दूसरा- सम्यक् ज्ञान और तीसरा- सम्यक् चरित्र। इनमें सम्यक् दर्शन से तात्पर्य है- गुरु अर्थात् जिन के वचनों के प्रति श्रद्धा (रुचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु सम्यक्श्रद्धानमुच्यते)। यह श्रद्धा या तो स्वभाव से उत्पन्न होती है या फिर गुरु के सानिध्य में आने से आती है।
एक बार श्रीरामकृष्ण अपने एक सरल परन्तु वादप्रिय स्वभाव वाले शिष्य को कोई बात समझा रहे थे। लेकिन उसकी विचार शक्ति में वो बात नहीं आ रही थी। वह विवाद कर रहा था। श्रीरामकृष्ण के तीन-चार बार समझाने पर भी जब शिष्य का तर्क और वाद-विवाद बन्द नहीं हुआ, तब गुरु कुछ क्रुद्ध होकर बोले, “तू कैसा व्यक्ति है रे ? मैं जब स्वयं कहता हूँ, तो भी तुझे निश्चय नहीं होता?” तब उस शिष्य का गुरुप्रेम जागृत हो गया और उसने लज्जित होकर कहा, “स्वामी जी मुझसे भूल हो गई। जब आप ख़ुद मुझे समझा रहे हो और मैं न मानूँ, यह कैसे हो सकता है? इतनी देर तक मैं व्यर्थ वाद कर रहा था।” तब प्रसन्न होकर हँसते हुए स्वामी जी ने कहा, “गुरु के प्रति भक्ति कैसे होनी चाहिए बताता हूँ। गुरु जैसा कहे वैसा ही तुरन्त दिखने लग जाए। ऐसी भक्ति अर्जुन की थी। एक दिन रथ में बैठकर अर्जुन के साथ श्रीकृष्ण यूँ ही घूम रहे थे। एकदम आकाश को देखकर श्रीकृष्ण बोले- अर्जुन! यह देखो कैसा सुन्दर कपोत उड़ता जा रहा है! तब आकाश की ओर देखकर अर्जुन भी तुरन्त बोले- हाँ महाराज, यह कैसा सुन्दर कपोत है। परन्तु पुनः फिर श्रीकृष्ण ऊपर की ओर देखकर बोले- नहीं, नहीं अर्जुन यह तो कोई कपोत नहीं है। अर्जुन पुनः ऊपर देखकर बोले- हाँ सचमुच, प्रभो यह तो कपोत नहीं मालूम पड़ता। अब इतना ध्यान में रख कि अर्जुन बड़ा ही सत्यनिष्ठ था। व्यर्थ श्रीकृष्ण की चापलूसी करने के लिए उसने ऐसा नहीं कहा। परन्तु श्रीकृष्ण के वाक्य पर उसकी इतनी भक्ति और श्रद्धा थी कि जैसा कहा बिल्कुल वैसा ही अर्जुन को दिखने लगा। यह ईश्वरी शक्ति सभी मनुष्यों के मन में कम या अधिक रहती है। इसलिए हमें गुरु के वचन पर विश्वास करना चाहिए।”
भगवान महावीर ने इसलिए अपने त्रिरत्नों में सर्वप्रथम श्रद्धा को रखा। जब हम किसी से कुछ सीखने जाएँ तो सीखने वाले के मन में सिखाने वाले के प्रति श्रद्धा का भाव हो। मैं ज्ञानी हूँ, यह भाव आ गया तो सीखेगा क्या? अत: हृदय रिक्त हो। मन साफ हो। जिससे गुरु अपने उदात्त विचारों को, सद् ज्ञान को शिष्य को प्रदान कर सके। इसीलिए गुरु कहते हैं, “मेरे अन्दर जो कमियाँ हैं, उन्हें नज़दरंदाज़ करो और जो सद् गुण हैं, उन्हें अपना लो (यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि॥तैत्ति॰।) ऐसी उदात्त भावना गुरु के अलावा किसमें हो सकती है? अत: गुरु के प्रति श्रद्धा भाव हो, तभी कल्याण सम्भव है।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 39वीं कड़ी है।)
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां…
38. जाे जिनेन्द्र कहे गए, वे कौन लोग हैं और क्यों?
37. कब अहिंसा भी परपीड़न का कारण बनती है?
36. सोचिए कि जो हुआ, जो कहा, जो जाना, क्या वही अंतिम सत्य है
35: जो क्षमा करे वो महावीर, जो क्षमा सिखाए वो महावीर…
34 : बौद्ध अपनी ही ज़मीन से छिन्न होकर भिन्न क्यों है?
33 : मुक्ति का सबसे आसान रास्ता बुद्ध कौन सा बताते हैं?
32 : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं?
31 : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30 : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29 : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28 : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27 : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26 : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25 : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24 : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23 : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा!
22 : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो
21 : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो?
20 : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है
19 : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है
18 : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है
17 : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं?
16 : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला?
15 : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है?
14 : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है?
13 : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं?
12 : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन
11 : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई?
10 :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है?
9 : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की!
8 : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?
7 : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे?
6 : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है
5 : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा?
4 : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं?
3 : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए!
2 : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा?
1 : भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?