भारतीय पुरातत्व का संस्थापक किस अंग्रेज अफ़सर को कहा जाता है?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 25/8/2021

संख्या भले कम थी, लेकिन अंग्रेजों में कई लोग मानते थे कि भारत के बारे में अधिक जानना चाहिए। जैसे- सर विलियम जोन्स। उन्होंने 18वीं सदी के अंत में संस्कृत साहित्य की समृद्धता के बारे में जानकारियां दीं। उन्होंने ही 1785 में ‘द एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल’ की स्थापना की, जो आगे भारत से जुड़ी अंग्रेजों की जिज्ञासाओं की पूर्ति का केंद्र बन गई। सोसायटी ने ‘एशियाटिक रिसर्चर्स’ के नाम से एक अख़बार भी निकाला। इसके पहले ही संस्करण में बम्बई के नज़दीक एलीफेंटा की गुफाओं से जुड़े प्रसंग शामिल किए गए। प्राचीन अभिलेखों की कई प्रतिलिपियों और दिल्ली की तमाम दुर्लभ सामग्रियों की भी इसमें जानकारी दी गई। ये जानकारियाँ कंपनी के कुछ प्रशासनिक और सैन्य अफ़सरों ने ही उपलब्ध कराई थीं। उदारहण के लिए कैप्टन होअर ने 1801 में दिल्ली और इलाहाबाद से कुछ अभिलेख और चित्रों की किताब सोसायटी को भिजवाई। इसी तरह लेफ़्टिनेंट प्राइस ने 1813 में संस्कृत के कुछ शिलालेख उपलब्ध कराए। यह सिलसिला आगे भी जारी रहा। 

अंग्रेजों ने 19वीं सदी के शुरू में पंजाब में विशेष रुचि दिखाई। यह राज्य उनके नियंत्रण में नहीं था। लेकिन वहाँ के राजा ने कई यूरोपीय सैन्य-असैन्य कर्मचारी नियुक्त कर रखे थे। उन्होंने अंग्रेजों को इस सिलसिले में अहम सूचनाएँ उपलब्ध कराईं। ऐसे ही एक सैन्य अफसर थे जनरल वेंचुरा। उन्होंने मिस्र के पिरामिडों की कहानियों से प्रेरित होकर पंजाब के मैदानी इलाकों में कुछ खंडहरों की खुदाई कराई। इसमें उन्हें बहुत से प्राचीन सिक्के मिले। इसी तरह कुछ अन्य लोगों को भी खुदाई में काफ़ी सिक्के मिले। इनमें कुछ यूनानी शासन के थे। कुछ रोमन और कई उस समय पहचाने नहीं जा सके। खुदाई में कुछ मूर्तियाँ भी मिलीं, जो ऊपरी तौर पर यूनानी शिल्प का हिस्सा लग रही थीं। 

इस तरह के कई सिक्के, मूर्तियाँ आदि जब कलकत्ता पहुँची तो वहीं की होकर रह गईं। कलकत्ता में टकसाल के एक अधिकारी थे जेम्स प्रिंसेप। उन्होंने जब इन पुरातात्विक वस्तुओं को देखा तो उनका ध्यान भारतीय पुरातत्व की तरफ़ गया। बल्कि बाद में तो इतना केंद्रित हो गया कि उन्हें ‘भारतीय पुरातत्व के संस्थापक’ की संज्ञा दे दी गई। सिक्कों और उनके शिल्प-विज्ञान में प्रिंसेप की रुचि तो पहले ही थी। उनके पास जो सिक्के आए, उनकी लिखाई दो लिपियों- यूनानी और खरोष्ठी में थी। प्रिंसेप ने इनका अध्ययन किया। इससे मौर्य सम्राट अशोक के दौर के शिलालेखों की तरफ़ उनका ध्यान दिया। उन शिलालेखों के अध्ययन से सिकंदर सहित कुछ अन्य यूनानी राजाओं के बारे में पता चला।

प्रिंसेप का 1840 में निधन हो गया। इसके बाद अलेक्जेंडर कनिंघम ने उनके काम को आगे बढ़ाया। कनिंघम सेना के इंजीनियर थे। उन्होंने 1842 में महत्वपूर्ण स्थल संकिसा की खोज की। इसके बाद लंदन में अपने मित्र को पत्र लिखकर इस बारे में बताया। उन्होंने लिखा, “अगर हिंदुस्तान में पुरातात्विक सर्वेक्षण शुरू किया जाए तो इससे भारत सरकार को काफ़ी लाभ होगा। इससे एक तो यह स्थापित होगा कि भारत हमेशा से रियासतों में बँटा रहा है। इसीलिए भारत के ख़िलाफ़ हमलावरों को सफलताएँ मिलीं। हालाँकि जब भी भारत किसी एक सम्राट के शासन में रहा, यहाँ से विदेशी आक्रांता मार भगाए गए। दूसरी बात- सर्वेक्षण से यह भी पता चलेगा कि भले ही सदियों से ब्राह्मणवाद को अपरिवर्तनीय और लगभग स्थायी व्यवस्था कहा जाता रहा हो, लेकिन सच ये है कि इसमें समय के साथ कई बदलाव हुए हैं। नई चीजें जुड़ी हैं। इस तथ्य से भारत में ईसाई धर्म के प्रसार में मदद मिलेगी”।

वैसे सर्वेक्षण का विचार कोई नया नहीं था। इससे पहले सन् 1800 में डॉक्टर बुचानन ने मैसूर के अंग्रेजी कब्ज़े वाले इलाकों में कृषि सर्वेक्षण कराया था। यह इतना सफल रहा कि 1811 में बंगाल में इसी तरह की क़वायद करा ली गई। इन दोनों सर्वेक्षणों के दौरान भारतीय पुरातात्विक अवशेष भी चिन्हित किए गए। इस तरह भारत में वैज्ञानिक आधार पर मानचित्र (नक़्शा) निर्माण की प्रक्रिया भी शुरू हुई। हालाँकि पुरातात्विक सर्वेक्षण पहली बार 1835 से 1842 के बीच हुआ। इसे जेम्स फर्ग्युसन ने कराया। मूल रूप से स्कॉटलैंड निवासी फर्ग्युसन नील बाग़ानों के मालिक थे।

इस तरह 1858 से पहले तक कई सैन्य, असैन्य अफ़सरों ने भारत के अतीत की खोज में अहम भूमिका निभाई। इन्हीं में एक कर्नल टॉड भी थे। वे राजपुताना में अंग्रेजों के स्थायी प्रतिनिधि थे। उन्होंने न सिर्फ़ कथा-वृत्तांतों का संकलन किया, बल्कि दुर्लभ चित्रों, वस्तुओं, आदि का संग्रह भी किया। यूरोप में भी कई विद्वान पूरब के ऐसे विषयों में रुचि रखते थे। जैसे, फ्रांसीसी विद्वान एबेल रैमसे। उन्होंने जब फाह्यान के ‘भारत यात्रा वृत्तांत’ (सन् 405 से 441 के बीच) का अनुवाद किया तो कई ऐसे स्थलों का पता चला, जो भुला दिए गए थे। हालाँकि इसके बाद भारत में शोधकर्ताओं ने इनके बारे में और पता लगाया।

कंपनी शासन के दौरान ऐसे शोध-अध्ययनों से भारत की महानता के बारे में, विशेषकर भारतीयों को नया बोध हुआ। यह भारत के राष्ट्रवादी नेताओं के लिए बड़े काम का साबित हुआ। इससे वह ये धारणा तोड़ने में लग गए कि पश्चिम की सभ्यता भारत से श्रेष्ठ है।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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