टीम डायरी, 5/7/2021
उसके घर के बाहर चबूतरे पर कुछ बच्चे बैठे-ठाले पहेलियाँ बुझा रहे थे। इन्हीं में से एक पहेली थी, “मुर्गी पहले आई या अंडा आया।” पूछने और बताने वाले, दोनों के लिए ही यह पहेली बड़ी मज़ेदार थी। क्योंकि जब कोई कहता कि मुर्गी पहले आई तो अगला बोल उठता, “पर मुर्गी तो अंडे से पैदा होती है।” ऐसे ही, अगर कोई कहता कि अंडा पहले आया तो दूसरे बच्चे उसकी खिंचाई करते, “बुद्धू, अंडे तो मुर्गी देती है। इतना भी नहीं जानता।” फिर सब के सब जोर से ठहाका लगाकर हँसते।
इन बच्चों की बातें सुनकर उसे भी अपना बचपन याद आ गया। उस समय भी यह पहेली ऐसी ही थी। और इस पर होने की हंसी-ठिठोली भी ठीक इसी तरह की। पर अब, जब वह बचपन से बरसों दूर निकल आया है तो उसके लिए यह महज़ एक पहेली नहीं थी। वह सोच और समझ पा रहा था कि जिसने भी पहली बार इसकी कल्पना की होगी, वह शायद खेल-खेल में ही जीवन का गूढ़ रहस्य छुटपन के दिमागों में डालना चाहता होगा। ‘माँ’ और मातृशक्ति का महत्त्व समझाना चाहता होगा।
पहेली का उत्तर हमें उसी ओर ले जाता है। इस तार्किकता के साथ कि अंडा जन्म नहीं दे सकता। वह तो सिर्फ़ एक खोल है, जिसमें कुछ निश्चित समय के लिए जीव के आकार लेने की प्रक्रिया चलती है। तय समय पर वह फूटता है। और उस वक़्त भी जन्म मुर्गी का ही होगा, ये तय नहीं होता। मुर्गा भी हो सकता है। वहीं, मुर्गी के मामले में सबको पहले से पता होता है कि वह माँ है। इसलिए जन्म तो देगी ही। उसके अंडों से मुर्गियाँ भी होंगी और मुर्गे भी। और उनकी जाति-प्रजाति आगे बढ़ेगी।
इसीलिए निश्चित है कि आई तो पहले मुर्गी ही। क्योंकि ‘माँ’ के बिना, ‘मातृ-प्रकृति’ के बिना जीव, जन्म, जीवन, सम्भव नहीं है। और ‘माँ’, वह तो अपने आप में पूर्ण होती है।