भारत में रहे अंग्रेज साहित्यकारों की रचनाएँ शुरू में किस भावना से प्रेरित थीं?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 26/8/2021

ब्रिटिश भारत के शुरुआती दौर में कई सैन्य-असैन्य अंग्रेज लेखक उभरे। इन्ही में एक थे, रॉबर्ट ऑरमे। उनकी क़िताब- ‘हिस्ट्री ऑफ मिलिट्री ट्रांजेक्शन ऑफ द ब्रिटिश नेशन इन इंडोस्तान’ 1763 में प्रकाशित हुई। जबकि जॉन मैल्कम की ‘पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ 1826 में आई। वहीं, मॉन्सटुअर्ट एल्फिंस्टन की ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ 1841 और जेम्स ग्रांट डफ की ‘हिस्ट्री ऑफ मराठा’ 1826 में आई। इनमें से मैल्कम ने अंग्रेजों के तौर-तरीकों को सही ठहराने की ही कोशिश की। वे लिखते हैं, “इंग्लैंड ने पूरब में जो साम्राज्य स्थापित किया, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए महान् आश्चर्य से कम नहीं होगा”। हालाँकि एल्फिंस्टन ने इस तथ्य को भी स्वीकारा कि भारत में प्राचीन काल से ही कई महत्व के संस्थान थे। पर वे भी जोड़ते हैं कि भारत को अब पश्चिम, ख़ासकर ब्रिटेन से सीखना चाहिए। वहीं, डफ ने तो जैसे मराठाओं के ख़िलाफ़ अंग्रेजों का अभियान उचित बताने के लिए ही पुस्तक लिखी थे। 

इसी क्रम में टीबी मैकॉले ने भारत से लौटकर क्लाइव और हेस्टिंग्स के शासनकाल पर निबंध लिखे। ताकि पता चल सके कि भारत में ब्रिटिश शासन ने कितनी तरक्की की है। इसी तरह, जेडी कनिंघम ने ‘हिस्ट्री ऑफ सिख्स’ (1849) लिखी। इससे कुछ समय पहले अंग्रेजों ने पंजाब को हड़पा था। उसे ध्यान में रखकर कनिंघम लिखते हैं, “भारत के लाखों मेहनक़शों की भलाई का मसला अब सुदूर पश्चिम के राष्ट्र (ब्रिटेन) से जुड़ चुका है। अब रोमन व्यवस्था के प्रतिनिधि सिद्धांतों की लंबी लड़ाई छेड़ेंगे। यह लड़ाई अपने चिंतन में रहने वाले ब्राह्मणों, बाइख़्तियार मुल्लों और मुश्किल से मानने वाले सिखों के विरुद्ध होगी।” ऐसे ही, जेडब्ल्यू काय, भारत में अंग्रेज शासकों के इतिवृत्तकार थे। उस दौर की घटनाओं को सिलसिलेवार दर्ज़ करते थे। वे ‘हिस्ट्री ऑफ द वॉर इन अफ़ग़ानिस्तान’ (1851) में अंग्रेजों को याद दिलाते हैं कि सिर्फ़ “विस्तार के लिए विस्तारवादी नीति कई बार घातक सिद्ध होती है।” 

तमाम ब्रिटिश नागरिकों, उनकी पत्नियों आदि ने यात्राओं के विवरण लिखे। इनमें अंग्रेजों की जीवन शैली की स्पष्ट झलक थी। इस विवरणों ने डेनियल्स जैसे कलम के कलाकारों को शब्दचित्र गढ़ने में मदद की। जेम्स फोर्ब्स भी इसी श्रेणी के थे। उनकी ‘ओरिएंटल मेमोरेयर’ नामक पुस्तक 1813 में प्रकाशित हुई। इसमें वे बताते हैं कि दरअसल उन्होंने “अकेलेपन से उकताकर यह पड़ताल शुरू की थी कि भारत के स्थानीय निवासी कैसे रहते हैं। किस तरह की परंपराओं का पालन करते हैं। यहाँ का प्राकृतिक इतिहास क्या और कैसा है।”

हर्बर्ट एडवर्ड्स सैन्य लेखक थे। उन्होंने 1851 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ए ईयर इन द पंजाब फ्रंटियर’ में नई सरहदों और नए जीते हुए इलाकों के बारे में लिखा। इसी तरह, चार्ल्स ऑकलैंड ने ‘ए पॉपुलर अकाउंट ऑफ द मैनर्स एंड कस्टम्स ऑफ इंडिया’ (1843) लिखी। इसमें बताया, “ईसाई मिशनरियाँ मूर्तिपूजा करने वाले भारत की कई प्रथाएँ समाप्त करने का इरादा रखती हैं।” विलियम स्लीमैन ने ‘रैंबल्स एंड रिकलेक्शन ऑफ इंडियन ऑफिशियल’ (1844) में भारत की वह तस्वीर पेश की जो पश्चिम से अनछुई या क्षतिग्रस्त थी। 

हालाँकि अधिकांश लेखक, पर्यटक हों या इतिहासकार, भारत और भारतीयों के आलोचक ही रहे। उन्होंने ऐसा लेखन किया कि अंग्रेजों की राय, उनके नज़रिए को प्रभावित किया जा सके। ऐसा हुआ भी। अंग्रेजों के एक विशिष्ट वर्ग, जिसमें नीति नियंता भी थे, ने स्लीमैन जैसे चुनिंदा लेखकों की कृतियों को ख़ेदजनक बताया। वहीं, उन रचनाओं को प्राथमिकता दी जिनमें भारत के पिछड़ेपन और बुराईयों का ज़िक्र था। इस तरह ब्रिटेन में यह माहौल बनाया कि भारत के लिए पश्चिमी शैली का प्रशासन और आर्थिक नीतियाँ ही सही हैं।

उस दौर में हुआ कल्पनाशील लेखन भी ज़्यादातर अंग्रेजों में नस्लीय श्रेष्ठता के भाव का प्रतिनिधित्व करने वाला रहा। लेकिन कुछ अपवाद भी रहे। जैसे- श्रीमती शेरवुड की बच्चों पर लिखी किताबें- ‘लिटिल हेनरी एंड हिज बियरर’ और ‘द फेयरचाइल्ड फेमिली’। ये 1818 के आस-पास आईं। इनमें ब्रिटिश समुदाय के कई अच्छे कार्यों का उल्लेख है। जेडब्ल्यू काय का उपन्यास, ‘पेरेगरीन पलटन’ और डब्ल्यूबी हॉकली का ‘पांडुरंग हरी’ (1826) भी उल्लेखनीय है। मीडोज़ टेलर की ‘कन्फेसन ऑफ ए ठग’ (1837) कथेतर (नॉन-फिक्शन) श्रेणी की पुस्तक है। इसमें टेलर ने ठगी के उन्मूलन से जुड़े अनुभव बताए हैं। हालाँकि जाने-अनजाने इससे ब्रिटेन में यह धारणा भी बनी कि भारतीय नैतिक रूप से कमज़ोर होते हैं। इस क्रम में कवि मैथ्यू अरनोल्ड के भाई विलियम डेलाफील्ड अरनोल्ड की ‘फेलोशिप इन द ईस्ट’ (1853) सबसे रुचिकर उपन्यासों में शुमार होती है। इसमें भारत में रह रहे अंग्रेजों की चहुँमुखी बुराइयों का ख़ुलासा किया गया। यहाँ तक कहा गया, “अंग्रेजों के नैतिक मानदंडों में सुधार नहीं हुआ तो भारत को ब्रिटिश शासन से किसी बड़े लाभ की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।”

अंग्रेज जिस तरह के शौक़िया कथाकार, कलाकार थे, वैसे ही कवि थे। यही वज़ह है कि उन्होंने जो लिखा, उनमें कई काव्य-रचनाएँ ख़ासी हास्यास्पद रहीं। मगर सर विलियम जोन्स जैसे रचनाकारों ने, अनुवाद के साथ ही भारतीय देवी-देवताओं पर कुछ मौलिक कविताएँ भी लिखीं। अंग्रेजों की काव्य-कृतियों की शुरुआत निर्वसन-काव्य से होती है क्योंकि उन्होंने कई साल उन लोगों के बीच गुजारे, जिन्हें वे अशिष्ट और बर्बर मानते थे। उनके दुख-अवसाद की शुरुआती झलक बिशप हैबर और जॉन लेडेन जैसे कवियों की कविताओं में दिखी। जॉन लेडेन का 1811 में तेज बुखार से निधन हो गया। उनकी काव्य रचना, ‘ओड टु एन इंडियन गोल्ड क्वाइन’ में पहली बार इस तरह की विषय-वस्तु सामने आई। हैबर का भी 1826 में भारत में ही निधन हुआ। वे सिर्फ़ तीन साल यहाँ रहे। इस दौरान उनकी लिखी कविता, ‘एन ईवनिंग वॉक इन बंगाल’ में अपने घर के लिए उनकी ‘तड़प’ स्पष्ट रूप से झलकती है। बाद के सालों में अन्य ब्रिटिश काव्य-रचनाकार भी इसी विषय-वस्तु को आगे बढ़ाते रहे।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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