महिला दिवस जैसे मौकों पर होने वाले स्त्री-विमर्श में भाषा को नपुंसक क्यों करना?

अनुज राज पाठक, दिल्ली

आजकल भाषा में स्त्री- विमर्श जोर पकड़ रहा है। ऐसा नहीं कि यह कोई नया विषय है। भाषा में लैंगिक भेद सम्भवत: प्रायोजित नहीं अपितु स्वाभाविक रहा है। इसका कारण समाज में जैसा व्यवहार होगा वैसा व्यवहार भाषा की सहज प्रवृत्ति है। पाओले फ्रेरे अपनी पुस्तक ‘उम्मीदों का शिक्षाशास्त्र’ में लिखते हैं, ‘जैसे-जैसे परिस्थिति के बारे में उनकी चेतना समर्थ होती जाती है, एक ऐतिहासिक हकीकत के बतौर पुरुष उस परिस्थिति का अपने लिए दोहन करने लगते हैं। यानी कि अब वह उनके द्वारा किए जाने वाले रूपान्तरण के अधीन हो जाती है।”

‘महिला दिवस’ के अवसर पर इसी तरह से भाषा में लैंगिक विमर्श पर एक लेखिका का लेख पढ़ा, जैसे-जैसे उस लेख को पढ़ता गया वैसे-वैसे लगा कि भाषा का ‘नपुंसकीकरण या बधियाकरण’ करने की चर्चा हो रही हो ।

आज इस तरह का विमर्श कोई नई चीज नहीं है। विमर्श होना ही चाहिए पाउलो फ्रेरे उक्त विमर्श पर अपनी पुस्तक में बड़े सुन्दर तरीके से लिखते हैं, ”जब मैं ‘पुरुष’ कहता हूँ तो उसमें ‘औरतें’ भी तो शामिल रहती हैं। जब हम कहते हैं कि महिलाएँ दुनिया को बदलने के लिए कृतसंकल्प हैं, तो पुरुष खुद-ब-खुद अपने को शामिल क्यों नहीं मान लेते? अगर महिला श्रोताओं के बीच दो-तीन पुरुष भी बैठे हों और मैं सबको ‘टोडास वॉसे डिवीरियम (स्त्रीलिंग में सम्बोधन)’ कहकर बात शुरू करूँ तो सबको नागवार गुजरेगा। यह बात तो उनकी कल्पना में भी नहीं आएगी कि मैंने उन्हें भी अपने सम्बोधन में शामिल किया है।…..और फिर अन्त में सारी क्रियाएँ पुल्लिग में इस्तेमाल की जाती हैं, क्यों? सचमुच, यह व्याकरण सम्बन्धी नहीं, एक विचारधारात्मक समस्या है।”

ऐसे में, आज के लेखक हर चीज को महिला सशक्तिकरण के नाम पर ‘लिंग विहीन’ करना चाहते हैं। यह कहाँ तक उचित है? वस्तुत: हम उन ऐतिहासिक परिस्थितियों को बदलना नहीं चाहते। हम शिक्षा और मानसिकता को बदलने की कवायद नहीं करना चाहते। हम व्यक्ति को मानवीय मूल्यों से युक्त करने का परिश्रम करना नहीं चाहते। मानव व्यवहार को बेहतर बनाने की न सदिच्छा है, न इतना समय। इसलिए सरल उपाय अपनाना है। और यही सरल उपाय दिखाई देता है।

जिस लेखिका का मैंने शुरू में जिक्र किया उन्होंने अपनी बात को हिन्दी भाषा के सन्दर्भ में लिखा। जैसे, हिन्दी कोई पुरुषवादी मानसिकता की भाषा हो। हिन्दी की आलोचना सरल भी है। दरअसल, हिन्दी में तीन लिंगों की अवधारणा संस्कृत से आई है। और संस्कृत स्वयं में अपने नियमों और भाषावैज्ञानिक मानकों पर श्रेष्ठ है। संस्कृत को किसी भाषा के मानकों के आधार पर कहें तो वह विश्व में ज्ञात सभी भाषाओं में सबसे समृद्ध दिखाई देती है। अब भाषा के तौर पर संस्कृत की आलोचना कठिन है। इसलिए हिन्दी की आलोचना से काम चलाना पड़ रहा है।

लेकिन समस्या यहाँ लिंग प्रयोग की नहीं है। समस्या लिंग के प्रति चेतना की है। हम लैंगिक सम्वेदनाओं को कितना महत्व देते हैं? उनके प्रति कितना सम्वेदनशील व्यवहार करते हैं? उनके प्रति कितनी आत्मीयता है? उन्हें हम कितना मनुष्य मानते हैं? अब इस वाक्य में देखिए, “उन्हें कितना मनुष्य मानते हैं”। इस वाक्य में ‘उन्हें’ शब्द में पुरुष और स्त्री दोनों समाहित हैं। अर्थात् स्त्री को भी मनुष्य मानने की बात की जा रही है। वास्तव में, एक लम्बे अन्तराल के सांस्कृतिक संघर्ष ने भारतीय अवधारणाओं को दूषित किया। इस कारण अन्य समाजों की बुराइयों को हमने आत्मसात कर लिया, जिनका निराकरण जरूरी है।

आधुनिक भारत में ‘महिला सशक्तिकरण’ के क्षेत्र में महर्षि दयानन्द के प्रयासों को हम देख सकते हैं, जिन्होंने भारतीय संस्कृति की प्राचीन अवधारणाओं के अनुसार महिला सशक्तिकरण हेतु प्रयास प्रारम्भ किए। वैसे तो यहाँ ‘महिला सशक्तिकरण’ शब्द भी भ्रामक ही है। जो अशक्त हो उसका सशक्तिकरण होता है। महिलाएँ अशक्त नहीं हैं। हाँ, लम्बे काल खंड में सांस्कृतिक विद्रूपताओं के आगमन से उनकी स्थिति कमतर जरूर हुई। वह भी इसलिए क्योंकि वह प्राकृतिक तौर पर आत्मोन्मुख थी। उसकी सहृदयता उसकी त्याग और समर्पण की प्राकृतिक चेतना ने उसको न्यूनतर या अशक्त बनाने में योगदान दिया।

वस्तुत: लिखते समय लेखिका और लेखक अपने अपने लिंग अनुसार कर्ता और क्रिया का चयन करते हैं। लेखक होगा तो पुलिंग की क्रिया का प्रयोग करेगा। वहीं लेखिका स्त्रीलिंग की क्रिया का प्रयोग करेगी। यही इन दोनों वाक्यों में ही देखिए यहाँ लेखक लिखने वाला पुल्लिंग है, लेकिन लेखक और लेखिका के प्रयोग से भाषा में कर्ता अनुसार क्रिया का लिंग निर्धारण होता है। वही मैंने इन वाक्यों में किया। अब मैं पुल्लिंग में स्त्रीलिंग की क्रिया का प्रयोग करता अच्छा तो नहीं ही लगूँगा।

ऐसे प्रयोग का एक संस्मरण याद आ रहा है। कुछ दिन पहले मेरे मित्र की बेटी मुझसे बात कर रही थी। वह बार-बार अपने लिए पुल्लिंग क्रियाओं का प्रयोग कर रही थी। उसके लगभग सभी वाक्यों में पुल्लिंग क्रियाएँ थी। जिस पर मेरा ध्यान गया। अन्तत: मैंने पूछ ही लिया “बेटा, आप ऐसा प्रयोग क्यों कर रहे हो?” तब उसका उत्तर था, “मैं पापा का बेटा हूँ न।” यहाँ मैंने भी उसे सम्बोधित करने के लिए ‘बेटा’ ही प्रयोग किया था। यह मेरे स्वभाव में है। शायद, इसे भी लैंगिक भेद का उदाहरण कहा जा सकता है। और बेटी ने उसी परम्परागत भेद से उत्पन्न कारण से अपने आप को पुरुष के तौर पर, कम से कम भाषा में तो अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया। ताकि वह खुद को सशक्त दिखा सके। जबकि उसे और मुझे दोनों को सही भाषिक प्रयोग करने थे। और समाज में सही अवधारणाओं के प्रति सम्वेदनशील होना था। तब न महिला के प्रति भाषा में न समाज में भेदभाव दिखाई देता।

अन्त में लेनिन के शब्दों में कहना चाहता हूँ, “क्रान्तिकारी सिद्धान्त के बिना कोई आन्दोलन सम्भव नहीं।” इसका अर्थ यह है कि क्रान्ति शब्दाडंबर से नहीं होती है। क्रान्ति होती है, आचरण से। हमें अपने आचरण को बेहतर करने की जरूरत है, भाषा को लिंगविहीन करने की नहीं।

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