जाे जिनेन्द्र कहे गए, वे कौन लोग हैं और क्यों?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 30/11/2021

इन्द्रियों को जीत लिया है जिस व्यक्ति ने, वह जिन या जिनेन्द्र आदि विशेषणों से पुकारा जाता है। भारतीय धर्म-दर्शन इन्द्रियों पर विजय पाने की महत्त्वपूर्ण चर्चा करता है। प्रत्येक महर्षि, प्रत्येक महात्मा जितेन्द्रिय होने का उपदेश देते हैं। कठोपनिषद में ऋषि कहते हैं कि इन्द्रिय आदि का संयुक्त रूप यह शरीर मैं नहीं हूँ। इससे अलग विलक्षण नित्य चेतना हूँ। जो ऐसा जान लेता है, वह व्यक्ति सदा के लिए दुःख से रहित हो जाता है। 

इन्द्रियाणां पृथग्भावमुदयास्तमयौ च यत् ।
पृथगुत्पद्यमानानां मत्वा धीरो न शोचति ॥ (कठो.अध्याय 2, वल्ली 3/6) 

इसी इन्द्रिय जय का महत्त्व पहचानने के कारण जैन धर्म में तीर्थंकर जिनेन्द्र होते हैं। यह इन्द्रिय जय आसान नहीं है। आसान होता तो हम सब सुखी होते।

श्रीमद् भगवद् गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसी की बुद्धि प्रतिष्ठा को प्राप्त करती है।(वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।2.61)

जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जो वीतराग हैं, अर्थात् राग और द्वेष को विशेष रूप से छोड़ दिया है, उससे रहित हैं, वे मोह नाश करने वाले और केवल्य ज्ञान वाले जैन मत के तीर्थकर हैं।

राग द्वेष छोड़ना क्यों सर्वप्रथम है? क्योंकि यह राग द्वेष ही दुःख प्राप्ति का मुख्य कारण है।

एक अनुश्रुति के अनुसार एक बार राजा भर्तृहरि के दरबार में एक साधु आए। राजा के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए उन्होंने उन्हें एक अमर फल प्रदान किया। इस फल को खाकर राजा या कोई भी व्यक्ति अमर को सकता था। राजा ने इस फल को अपनी प्रिय रानी को खाने के लिए दे दिया। किन्तु रानी ने उसे स्वयं न खाकर अपने प्रिय सेनानायक को दे दिया, जिसका सम्बन्ध राजनर्तिकी से था। उसने भी फल को स्वयं न खाकर उस राजनर्तिकी को दे दिया। इस प्रकार यह अमर फल राजनर्तिकी के पास पहुँच गया। फल को पाकर उस राजनर्तिकी ने इसे राजा को देने का विचार किया। वह राजदरबार में पहुँची तथा राजा को फल अर्पित कर दिया। रानी को दिया हुआ फल राजनर्तिकी से प्राप्त कर राजा आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने वह फल उसके पास पहुँचने का वृत्तान्त पूछा। राजनर्तिकी ने संक्षेप में राजा को सब कुछ बता दिया। कहते हैं, यह सुनते ही महाराज भर्तृहरि का मोह भंग हो गया। उन्होंने अपना राजपाट भाई को देकर तुरन्त संन्यास ले लिया। 

स्पष्ट है कि जब तक मोह रहा, राग रहा, राजा दुःखी रहे। सत्य से साक्षात् हुआ, मुक्त हुए। जिन होने के लिए इसी राग, मोह से मुक्त हो जाना है। संयस्त हो जाना है।
—-
(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 38वीं कड़ी है।) 
— 
डायरी के पाठक अब #अपनीडिजिटिलडायरी के टेलीग्राम चैनल से भी जुड़ सकते हैं। जहाँ डायरी से जुड़ अपडेट लगातार मिलते रहेंगे। #अपनीडिजिटिलडायरी के टेलीग्राम चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करना होगा। 
—- 
अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां… 
37. कब अहिंसा भी परपीड़न का कारण बनती है?
36. सोचिए कि जो हुआ, जो कहा, जो जाना, क्या वही अंतिम सत्य है
35: जो क्षमा करे वो महावीर, जो क्षमा सिखाए वो महावीर…
34 : बौद्ध अपनी ही ज़मीन से छिन्न होकर भिन्न क्यों है?
33 : मुक्ति का सबसे आसान रास्ता बुद्ध कौन सा बताते हैं?
32 : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं? 
31 : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30 : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29 : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28 : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27 : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26 : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25 : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24 : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23 : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22 : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21 : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20 : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19 : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18 : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17 : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16 : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15 : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14 : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13 : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12 : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11 : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10 :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
9 : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
8 : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
7 : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
6 : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
5 : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
4 : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
3 : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
2 : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
1 : भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *