अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को किसकी मदद से मारा?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 22/8/2021

अब तक दक्षिण में मैसूर के सुल्तान हैदर अली की फ्रांसीसियों से दोस्ती हो चुकी थी। वे अंग्रेजों के ख़िलाफ़ संघर्ष में उसकी सहायता कर रहे थे। इससे उत्साहित हैदर अली ने 1780 में लगभग 90,000 सैनिकों और 100 से ज़्यादा तोपों के साथ मद्रास पर धावा बोल दिया। उसके सैनिकों ने फोर्ट सेंट जॉर्ज  को हर तरफ़ से घेर लिया। ऐसे में मद्रास की प्रशासक परिषद ने वॉरेन हेस्टिंग्स से मदद माँगी। हेस्टिंग्स ने तुरंत सर आयर कूट के नेतृत्व में काफ़ी धन और बड़ा सैन्य बल मद्रास भेजा। आयर कूट छापामार युद्ध के विशेषज्ञ थे। उन्होंने पोर्टो नोवो की लड़ाई में हैदर अली को हरा दिया। इस पराजय के एक साल बाद 1782 में हैदर अली का निधन हो गया। इसके बाद उसके बेटे टीपू ने गद्दी संभाली।

तभी, 1785 में ब्रिटेन की सरकार ने हेस्टिंग्स से इस्तीफ़ा ले लिया। उन पर भारतीय राजाओं से अच्छा बर्ताव न करने के आरोप थे। इसलिए उनके ख़िलाफ़ ब्रिटिश संसद के उच्च सदन हाउस ऑफ लॉर्ड्स में महाभियोग चलाया गया। लेकिन उन पर कोई आरोप साबित नहीं हुए। बहरहाल, इस तरह हिंदुस्तान में ब्रिटिश साम्राज्य की शुरूआत हुई। अनगढ़, बेढंग, अनौपचारिक।

हेस्टिंग्स के इंग्लैंड लौटने के बाद लगभग 20 महीने तक भारत में गवर्नर जनरल नहीं थे। सर जॉन मैकफरसन के पास प्रभार था। लेकिन जल्द ही लॉर्ड कॉर्नवालिस नए गवर्नर जनरल के रूप में हिंदुस्तान भेज दिए गए। वे व्यवस्था में भ्रष्टाचार तुरंत पकड़ लेने और उसे कुचलने में माहिर थे। उनके कार्यकाल में सिविल सेवा दो भागों- कार्यपालिका और न्यायपालिका में बाँट दी गई। कर्मचारियों की तनख़्वाह बढ़ा दी गई। अर्थ-दंड की व्यवस्था भी लागू की गई। हालाँकि कॉर्नवालिस को भी आस-पास फैली अराजकता से निपटने के लिए लड़ाईयों में उलझना पड़ा। कारण कि कर्नाटक लगातार अंग्रेजों के लिए चुनौती बना हुआ था। मराठा शासक सिंधिया भी अपनी स्थिति मज़बूत कर रहे थे। उन्होंने अपनी सेना में फ्रांसीसी अफ़सर नियुक्त किए, जो उनके सैनिकों को यूरोपीय शैली का सैन्य-प्रशिक्षण दे रहे थे।

मगर इसी बीच, 1795 में ब्रिटिश शासन ने कॉर्नवालिस की जगह सर जॉन शोर को गवर्नर जनरल बना दिया। वह अपने आप में रहने वाले शख़्स थे। इसलिए उनका कार्यकाल शांत ही रहा। उनके बाद 1798 में रिचर्ड वैलेज़्ली गवर्नर जनरल बने। वे महात्वाकाँक्षी और ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के लिए प्रतिबद्ध थे। उस दौर में फ्रांस का शक्तिशाली शासक नेपोलियन साम्राज्य विस्तार में लगा था। इससे इधर हिंदुस्तान में फ्रांसीसियों का हौसला भी बुलंद था। वे अब तक कई भारतीय राजाओं को मित्र बना चुके थे। साथ ही भारतीय राजदरबारों में अंग्रेजों के ख़िलाफ सक्रिय थे। ऐसे में वैलेज़्ली ने सबसे पहले टीपू सुल्तान पर ध्यान केंद्रित किया। वह फ्रांसीसियों का निकट मित्र था। उनके साथ मिलकर अपने राज्य की सीमाएँ बढ़ा रहा था। इसलिए वैलेज़्ली ने मराठाओं और निज़ाम पर दबाव बनाया कि वे टीपू पर हमला करें, जो उन्होंने किया भी। इसी मौके का फ़ायदा उठाकर वैलेज़्ली ने टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्‌टनम को घेर लिया। उस लड़ाई (1799) में टीपू मारा गया। टीपू के मारे जाते ही अंग्रेजों ने धीरे-धीरे पूरे कर्नाटक क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया। 

उधर, 1794 में शक्तिशाली मराठा सरदार महादजी सिंधिया का भी निधन हो गया था। महादजी के बाद उनके भतीजे दौलत राव सत्ता संभालते ही 1802 तक एक अन्य मराठा सरदार जसवंत राव होल्कर से लड़ाई में उलझे रहे। होल्कर इंदौर रियासत के प्रमुख थे। इस लड़ाई में जीत होल्कर की हुई। लेकिन इस आपसी झगड़े का फ़ायदा अंग्रेजों ने उठाया। उन्होंने मराठाओं को हराकर दिल्ली में प्रवेश कर लिया। वहाँ बूढ़े और कमज़ोर हो चुके मुग़ल बादशाह शाह आलम को क़ैद से आज़ाद कर अपना पेंशनर बना लिया। फिर 1804 में अंग्रेजों ने होल्कर को भी पराजित कर दिया। 

इस तरह हिंदुस्तान के अधिकांश राजे-रजवाड़ों का सूर्य अस्त हो चुका था। वैलेज्ली ने अपना मक़सद हासिल कर लिया था। सभी रियासतों में कंपनी के स्थायी राजनीतिक प्रतिनिधि नियुक्त किए जा चुके थे। सिर्फ़ राजपुताना, सिंध और पंजाब ही कंपनी के अधिकार से बाहर थे। हालाँकि वैलेज़्ली की इन सफलताओं को ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक ही संभाल नहीं पाए। ब्रिटिश सरकार को भी दिक्क़त हो रही थी क्योंकि तब यूरोप में ब्रिटेन और फ्रांस के बीच जीवन-मृत्यु का संघर्ष चल रहा था। ऐसे में किसी दूसरी तरफ़ ध्यान लगाने से संघर्ष के परिणाम उलट सकते थे। लिहाज़ा ब्रिटिश सरकार ने वैलेज़्ली को वापस बुला लिया। उनकी जगह दूसरी बार कॉर्नवालिस को गवर्नर जनरल बनाकर भेजा। लेकिन भारत पहुँचने के दो महीने बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। 

फिर लॉर्ड मिंटो-प्रथम गवर्नर जनरल (1807-1813) बने। वे जब आए, तब कंपनी सैन्य शक्ति के बल पर तानाशाही अंदाज़ में भारत में शासन कर रही थी। लेकिन वह जब यहाँ से विदा हुए, तो सभ्य प्रशासनिक व्यवस्था शुरू हो चुकी थी। वह सच्चे और सरल व्यक्ति थे। शायद इसीलिए उन्होंने सेना को छोटी-मोटी लड़ाईयों तक सीमित कर दिया था। स्थानीय राजाओं से सीधे भिड़ने के बज़ाय उन्हें अपने साथ लाने के लिए मिंटो ने कूटनीति का रास्ता अपनाया। उदाहरण के लिए पंजाब, जो शक्तिशाली राज्य था और अंग्रेजों के आधिपत्य से दूर भी। महाराजा रणजीत सिंह यहाँ के शासक थे। उन्होंने स्थानीय सिख लड़ाकों को अपने सैनिकों में तब्दील कर लिया था। सेना में यूरोपीय सैन्य अधिकारी भी नियुक्त कर रखे थे। लिहाज़ा, अंग्रेजों ने उनसे संधि (अमृतसर की संधि-1809) कर लेना बेहतर समझा। 

लेकिन गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823) के समय अंग्रेजों की विस्तारवादी गतिविधि फिर शुरू हो गई। उस दौर में अंग्रेजों का नेपालियों से युद्ध हुआ। यह सुगौली (1816) की संधि के साथ ख़त्म हुआ। नेपालियों को अपना एक-तिहाई भू-भाग अंग्रेजों को देना पड़ा। साथ ही अंग्रेजों को अपनी फौज के लिए गोरखा सिपाही भी मिल गए। तब मध्य भारत में पिंडारी लुटेरे भी सक्रिय थे। उन्हें मराठा सरदारों का समर्थन हासिल था। इसके मद्देनज़र अंग्रेजों ने पिंडारियों को कुचलने के लिए इतनी फौज़ उतार दी कि मराठा सकते में आ गए। नतीज़तन, रहे-सहे मराठा सरदारों ने भी 1816 से 1818 के बीच अंग्रेजों के सामने घुटने टेक दिए। इस तरह पूरा मध्य भारत अंग्रेजी साम्राज्य का हिस्सा बन गया। 

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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