भारत में कलेक्टर और डीएम बिठाने की शुरुआत किसने की थी?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 28/8/2021

जब अंग्रेजों ने सत्ता संभाली तो शुरू में उनके पास शासन करने के लिए न पर्याप्त लोग थे, न क्षमता। मग़र वे शासन करते रहना चाहते थे। लिहाज़ा सबसे पहले रॉबर्ट क्लाइव ने ‘दोहरे शासन’ का नुस्खा आज़माया। इसमें राजाओं-नवाबों के शासन को मुखौटे की तरह चलने दिया गया। जबकि, अंग्रेज परदे के पीछे सक्रिय रहते थे। यह व्यवस्था अंग्रेजों को शुरू में फ़ायदे की लगी। क्योंकि सीधी ज़िम्मेदारी के बिना वे व्यवस्था से पूरे लाभ ले रहे थे। यह उनका मुख्य मक़सद भी था। इस समय तक मोटे तौर पर, उनका मानना था कि हमें भारत में बसना नहीं है। लिहाज़ा वे पारंपरिक भारतीय शासन प्रणाली में मामूली बदलाव कर के ही संतुष्ट थे। लेकिन इसके बावज़ूद उनकी इस शैली ने भी स्थानीय शासन पर असर छोड़ा। 

दोहरे शासन का सिलसिला 1772 में जब थमा तो अंग्रेजों के सामने दूसरा असमंजस पेश आया कि भारतीय शासन प्रणाली का कितना अंग्रेजीकरण करें? मौज़ूदा संस्थानों का संरक्षण करें या उन्हें ख़त्म कर दें? तब इस बारे में वॉरेन हेस्टिंग्स ने तय किया कि भारतीय संस्थानों को जहाँ तक संभव हो, बचाए रखा जाए। इसलिए उनके शासनकाल के दौरान हिंदु और मुसलमानों के धार्मिक कानूनों (पर्सनल लॉ) को चलने दिया गया। मुसलिम आपराधिक कानून को क़ायम रखा गया। प्रशासन में भारतीयों को नौकरियाँ भी दी गईं। बस, अब फ़र्क इतना था कि शासन का संचालन सीधे अंग्रेज कर रहे थे। अंग्रेजी कानूनों के हिसाब से। उन कानूनों के संरक्षण का ज़िम्मा उच्चतम न्यायालय के पास था, जिसे अंग्रेजों ने 1773 में विनियमन कानून (रेगुलेटिंग एक्ट) के जरिए स्थापित किया था।

लेकिन हेस्टिंग्स के उत्तराधिकारी लॉर्ड कॉर्नवालिस (1786) जब भारत आए तो उन्हें लगा कि भारतीय शासन-व्यवस्था ठीक से कसी नहीं गई है। इसलिए उन्होंने तय किया कि अंग्रेजी संविधान और उसके प्रावधानों के हिसाब से भारत की शासन-व्यवस्था चलाई जाएगी। उनका मक़सद भारत में कानून का शासन स्थापित करने का था। ताकि आम लोगों को समान रूप से सुनिश्चित, अपरिवर्तनीय स्थितियाँ मिल सकें। उनका मानना था कि कम तनख़्वाह वाले कंपनी के कर्मचारियों को बहुत अधिकार मिले हुए हैं। वे भारतीय शासकों के साथ घुल-मिल भी गए हैं। यह शासन में भ्रष्टाचार और दुर्दशा का बड़ा कारण है। इसलिए उन्होंने “नए सिरे से सभी चीजों को जमाया। इसमें सबसे पहले लोगों की संपत्ति की सुरक्षा को प्राथमिकता दी। फिर आपराधिक, नागरिक और न्याय के शासन को नियमों के हिसाब से संचालित करने की व्यवस्था की। इसमें व्यक्ति-विशेष की इच्छा-अनिच्छा का कोई ख़ास मतलब नहीं था।” 

कॉर्नवालिस के सामने तब भू-राजस्व का भी एक मसला अहम था। इसमें उन्होंने नियम बनाया कि भू-राजस्व के रूप में एक निश्चित राशि सरकार को दी जाएगी। उनका मानना था कि साल-दर-साल भू-राजस्व की माँग कम-ज़्यादा होने से अफ़सरों की मनमानी बढ़ जाती है। उनका यह भी मानना था कि कार्यपालिका को न्यायपालिका से अलग होना चाहिए। कानून के शासन का पालन कार्यपालिका को भी करना चाहिए। यह विचार उस समय भारत के लिए क्रांतिकारी था, क्योंकि भारतीय शासन परंपरा में तब तक कानून बनाने और उसका पालन कराने वालों के बीच कोई भेद नहीं था। राजस्व संग्रह करने वाले लोगों को भी तब न्यायिक शक्तियाँ मिली थीं। लेकिन कॉर्नवालिस ने इस सबका अंत करने की कोशिश की।

कार्नवालिस की किताब ‘बंगाल रेगुलेशन-II’ 1793 में आई। इसकी प्रस्तावना में वे लिखते हैं, “राजस्व संग्रह करने वालों को उनके अपने हिसाब से फ़ैसले लेने की जो शक्तियाँ मिली हैं, वे छीन लेनी चाहिए। उन्हें न्यायिक अदालतों के प्रति उत्तरदायी बनाना चाहिए। उनसे राजस्व की वह पूरी राशि वापस लेनी चाहिए जो उन्होंने जनता से, निजी अभियोगों के आधार पर, तय सीमा से ज़्यादा वसूली है। राजस्व संग्रह के नियमों का उल्लंघन कर उन्होंने जितनी बार अतिरिक्त वसूली की, वह पूरी रकम उनसे वापस लेनी चाहिए।”

कॉर्नवालिस इस व्यवस्था को बिना किसी बदलाव के ब्रिटिश भारत में लागू करना चाहते थे। इसलिए भारतीयों को छोटे-बड़े दफ़्तरों से बर्ख़ास्त किया जाने लगा। बंगाल में ज़मींदारों को सशस्त्र-सेवक रखने का अधिकार था। ये ज़मींदार के अधिकार वाले जिलों में कोतवाल की तरह काम करते थे। कार्नवालिस ने ज़मीदारों के ऐसे अधिकारों को भी छीन लिया। बंगाल की हर प्रशासनिक इकाई के लिए एक ब्रिटिश अफ़सर नियुक्त कर दिया, जो कलेक्टर कहलाता था। उसे सिर्फ़ राजस्व संग्रह की ज़िम्मेदारी दी गई। राजनीतिक-न्यायिक शक्तियों के साथ हर इलाके में जिला न्यायाधीश एवं जनपदाधिकारी (डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या डीएम) बिठाए गए। जिलों में पुलिस और प्रशासनिक कामकाज़ के संचालन का पूरा जिम्मा उन्हें सौंपा गया।

इस तरह शासन के सभी स्वरूपों का सोचे-समझे तरीके से अंग्रेजीकरण किया जा रहा था। वैसे, भारत की सामाजिक-व्यवस्था में दख़लंदाज़ी का कोई इरादा अब भी नहीं दिख रहा था। लेकिन अंग्रेजों ने निजी संपत्ति के अधिकार की जो अवधारणा कानूनी प्रक्रिया के जरिए लागू की, उससे भारतीय समाज में उथल-पुथल ज़रूर थी। हालाँकि बंगाल की प्रशासनिक व्यवस्था अब उदासीन-सी हो चुकी थी क्योंकि वहाँ अंग्रेजों का शासन स्थिर हो चुका था। लेकिन बंगाल से बाहर अन्य ठिकानों पर अंग्रेजों में इस व्यवस्था के लिए कोई उत्साह नहीं था। कारण कि इसमें उनके लिए अपने साहस के प्रदर्शन की गुंज़ाइश नहीं थी।

इसके बाद मुनरो, मैलकम, एल्फिंस्टन, मैटकाफ आदि प्रशासक अपना अलग नज़रिया लेकर भारत आए। जैसे, मुनरो मानते कि भारतीय राजाओं और उनकी शासन-व्यवस्थाओं को ब्रिटिश शासन के साथ मिला लेना ज़्यादा अच्छा है। लेकिन मेटकाफ इसके पक्ष में नहीं थे। हालाँकि इन सभी प्रशासकों का समान रूप से यह मानना था कि भारतीय उपमहाद्वीप को, ब्रिटिश समाज के प्रतिरूप में बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इसके बजाय स्थानीय पारंपरिक संस्थानों के संरक्षण की कोशिश करनी चाहिए। इसीलिए 1820 के आस-पास जब फिर भारतीय शासन के अंग्रेजीकरण की कोशिशें हुईं तो इन लोगों को बुरे परिणामों का भय सताने लगा। मुनरो ने तो 1824 में इस बारे में लिखा भी, “यह नवाचार, हमारी सरकार का सबसे बड़ा अवगुण है। हमें समझना चाहिए कि तरक़ीबों से न तो अचानक किसी देश का चेहरा सुधारा जा सकता है, न उसका समाज। हाँ, यह ज़रूर हो सकता है कि हम जितनी इसकी कोशिश करें, उतना उसे चोटिल करते जाएँ।”

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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