भारतीयों को सिर्फ़ ‘सक्षम और सुलभ’ सरकार चाहिए, यह कौन मानता था?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 1/9/2021

ईसाई पंथ के कट्‌टर समर्थकों को पहली बड़ी सफलता 1813 में मिली। उस साल के अधिकार पत्र अधिनियम के जरिए ब्रिटेन की सरकार ने भारत में बिशप (ईसाई धर्मगुरु) की नियुक्ति के लिए कंपनी को बाध्य किया। बिशप का मुख्यालय कलकत्ता में रखा गया। अंग्रेजों के अधिकार वाला पूरा भारतीय इलाका उनका कार्यक्षेत्र बनाया गया। उन्हें ज़िम्मेदारी दी गई कि इस पूरे इलाके को ईसाई मिशनरियों के कामकाज के लिए सुलभ बनाएं। इस कानून ने कंपनी को उसका व्यावसायिक एकाधिकारवाद थोड़ा और छोड़ने के लिए विवश किया। वैसे, कंपनी ने जब से 1757 में बंगाल पर आधिपत्य किया, तभी से व्यापार का मसला उसके लिए दूसरे दर्ज़े पर था ही। फिर जैसे-जैसे उसके अधिकार वाले क्षेत्रों का विस्तार और हुआ तो वह सैन्य और प्रशासनिक शक्ति बनकर रह गई। हालाँकि भारत में अफ़ीम के व्यापार में उसका एकाधिकार अब भी था। इससे होने वाले मुनाफ़े को चीन में चाय के व्यापार में लगा रही थी। तब चीन की चाय की यूरोप में काफ़ी माँग थी। इसीलिए उसके व्यापार से होने वाला मुनाफ़ा कंपनी के निदेशकों की जेबें भर रहा था। अलबत्ता, इन स्थितियों के बावज़ूद कंपनी ने भारत के संपूर्ण व्यापार में उसका एकाधिकार ख़त्म करने के प्रस्ताव का विरोध किया। इसका आधार यह बताया कि मुक्त व्यापार से आंतरिक सुरक्षा को ख़तरा पैदा हो सकता है। 

लेकिन कंपनी का नज़रिया उस समय की भावना के अनुरूप नहीं था। इसीलिए जब 1833 में अधिकार पत्र अधिनियम ब्रिटिश संसद में नवीनीकरण के लिए आया तो उसमें कट्‌टर ईसाई मत के समर्थकों के साथ ही मुक्त व्यापार की वकालत करने वालों के विचारों को भी जगह दी गई। इसके बाद ही ईसाई मत के समर्थक भारत में सामाजिक और अन्य सुधारों की प्रक्रिया के कुछ साल देख सके। जबकि मुक्त व्यापार के समर्थकों को भारत में व्यासायिक विस्तार की संभावनाओं का अंदाज़ा हुआ। बने-बनाए सूती कपड़ों के मुक्त-व्यापार में सफलताओं ने उनका अनुमान सही भी ठहराया। लेकिन इस दिशा में अभी कुछ संदेह थे। कारण कि बहुसंख्य भारतीय ग़रीब थे। ख़रीदारी की उनकी क्षमताएँ सीमित थीं। यह स्थिति बदलने के लिए अंग्रेजों को विशेषज्ञता के इस्तेमाल की ज़रूरत थी। अच्छे पैमाने पर निवेश चाहिए था। ज़मीन के मामले में यूरोपीय लोगों के स्वामित्व पर लगा प्रतिबंध हटाना ज़रूरी था। साथ ही देश में व्यावसायिक परिवहन पर हो रही भेदभावपूर्ण वसूली ख़त्म करना भी।

यूरोप में वह औद्योगिक क्रांति का दौर था। मुक्त व्यापार के समर्थक मानते थे कि इस औद्योगिक क्रांति के लाभ दूसरी जगहों तक पहुँचाना न सिर्फ उनके लिए फायदेमंद है, बल्कि उनका ईश्वरीय कर्त्तव्य भी। यह सिर्फ़ अंग्रेजी शिक्षा और संस्थानों के जरिए संभव है। लिहाज़ा एक विधि आयोग बनाया गया। इसे पश्चिमी सिद्धांतों के हिसाब से भारत के लिए विधि-संहिता बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई। ये भी तय किया गया कि अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार को भारत सरकार पूरा समर्थन दे। इस तरह, अंग्रेजों के प्रयास अब भारतीयों को सभ्यता सिखाने का अभियान बन रहे थे। जैसा मैकॉले ने कहा भी, “गँवार लोगों पर शासन की तुलना में सभ्य लोगों के साथ व्यवहार-व्यापार करना हमेशा ज़्यादा फायदेमंद रहा है।”

हालाँकि विरोधाभास लग सकता है कि ईसाइयत के कट्‌टर समर्थक और मैकॉले जैसे उदारवादी दोनों यह भी मानते थे कि लोगों को बदलने के लिए मज़बूर करना सरकार का काम नहीं है। उसका काम सिर्फ़ बदलाव का माहौल बनाना है। ऐसे साधन मुहैया कराना है, जिनके जरिए लोगों को बदलाव के लिए राज़ी किया जा सके। इसके साथ वे यह भी मानते थे कि सरकार पूरी ब्रिटिश होनी चाहिए। यानि, अंग्रेजीकरण का आंदोलन जितना भारतीय समाज की तरफ लक्षित था, उतना ही भारत सरकार की ओर भी। ऐसा कि भारतीय समाज और सरकार का स्वरूप पूरा अंग्रेजियत में ढल जाए।

लेकिन यहीं उपयोगितावादी विचारक ईसाइयत के कट्‌टर समर्थकों और उदारवादियों के विचारों से सहमत नहीं थे। अंग्रेजी शिक्षा में किसी पुनरुद्धारवादी तत्त्व के निहित होने के विचार से वे असमत थे। इनका मुताबिक भारतीय समाज में तेज बदलाव भू-राजस्व व्यवस्था, उसके निर्धारण और मूल्यांकन के ज़रिए ही हो सकता है। इन लोगों में जेम्स मिल का नाम प्रमुख है। वह 1830 में कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी थे। इसी तरह जेरेमी बेंथम, जो वायसराय विलियम बेंटिंक के बौद्धिक सलाहकार थे। इन्हीं बेंटिंक के काल में भारतीय व्यवस्था में काफ़ी सुधार हुए। इसीलिए उन्हें सुधारवादी वायसराय भी कहा जाता है। ऐसे ही विलियम एम्पसन, जो हेलीबरी स्थित कंपनी के महाविद्यालय में ‘आम राज्य-व्यवस्था और कानून’ के व्याख्याता थे। कंपनी के प्रशासक इसी महाविद्यालय में प्रशिक्षण लेते थे। 

इस तरह ईसाइयत के कट्‌टर समर्थक और उपयोगितावादी, दोनों समान रूप से भारतीय समाज और संस्थानों के प्रति तिरस्कार का भाव रखते थे। लेकिन इसके आगे, क्रियाशील कानून की अवधारणा को लेकर दोनों के विचारों में भेद साफ था। जैसे- ईसाइयत के समर्थक ‘ईश्वरीय विधान’ पर आस्था रखते थे। वहीं, उपयोगितावादियों के विचार में ईश्वर का स्थान नहीं था। उनके मुताबिक, पाप कोई मौलिक कर्म नहीं है। यह ग़रीबी से उपजता है। जैसा कि जेम्स मिल लिखते हैं, “ग़रीबी ख़राब सरकार और बुरे कानूनों का प्रभाव होती है। जिन लोगों को अच्छा शासन मिलता है, ग़रीबी उनकी विशेषता नहीं होती।” उन्होंने आगे लिखा, “शिक्षा कोई बड़ा नतीज़ा दे, उसके लिए ज़रूरी है कि पहले ग़रीबी का उन्मूलन किया जाए।” मिल का मानना था कि भारतीयों को ‘सक्षम और सुलभ’ सरकार चाहिए। उन्हें इससे ज़्यादा मतलब नहीं कि सरकार किसकी है। बस, वह इन दो मापदंडों पर खरी उतरनी चाहिए। उन्होंने भारत में रह रहे अंग्रेजों के विधायिका संबंधी विचार को भी ख़ारिज़ किया। उनके मुताबिक, “पूरी दुनिया में राष्ट्रीय और व्यक्ति विशेष की समृद्धि के लिए बस दो चीजों से ज़्यादा कुछ नहीं चाहिए। एक- करों का कम बोझ, दूसरा- अच्छे कानून।” इसीलिए उन्होंने ऐसी कानून संहिता पर जोर दिया, जिसकी प्रक्रिया सरल और विधि-सम्मत हो। साथ ही वह सभी पर समान रूप से लागू हो। इससे भी अहम ये कि वे मद्रास और बम्बई प्रांतों को मिली अर्ध-स्वायत्तता ख़त्म कर शक्तिशाली केंद्रीय प्राधिकरण की स्थापना के पक्ष में भी थे।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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