आख़िर क्यों बाज़ार में खड़ी कोई कम्पनी कभी भी, ‘परिवार’ नहीं हो सकती?

नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश से

इस, 15 मई को ‘परिवारों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस’ (इंटरनेशनल डे ऑफ फैमिलीज़) मनाया गया। वैसे, इसके अलावा भी एक ‘परिवार दिवस’ यानि ‘फैमिली डे’ मनाया जाता है। वह इस बार 19 नवम्बर को पड़ रहा है। हालाँकि आज ‘परिवारों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस’ को भी बाज़ार ने ख़ूब मनाया है। मीडिया, सोशल मीडिया पर अच्छे परिवारों की तमाम नज़ीरें दी गई हैं। उनके फ़ायदे गिनाए गए हैं। देश के एक बड़े अख़बार ने तो यह भी बताया है कि जिन परिवारों में सदस्यों के आपसी सम्बन्ध प्रगाढ़ होते हैं, उनके बच्चों के बिगड़ने की सम्भावना कम होती है। गोया कि यह कोई ऐसा ज्ञान है, जिसका हिन्दुस्तान के लोगों को इल्म ही न हो। वह हिन्दुस्तान, जहाँ समाज और सामाजिकता की नींव ही पारिवारिक इकाई पर टिकी है, और जो पूरी दुनिया के लिए इस मामले में आदर्श है, आज भी। 

लेकिन बाज़ारवाद का भी क्या कीज़ै। उसे अपना काम करना है, सो वह कर रहा है। इन्हीं कामों के तहत बीते कुछ सालों में बाज़ार की हिस्सेदार कई बड़ी कम्पनियों में एक और चलन ने ज़ोर पकड़ा है। वह है ख़ुद को ‘परिवार’ बताने का। जो लोग निजी क्षेत्र में काम करते हैं, उन्होंने कम्पनियों की अन्दरूनी कार्यसंस्कृति के दौरान उनके नामों के साथ अक्सर ‘परिवार’ शब्द को चिपका हुआ पाया होगा। लेकिन सवाल ये है कि क्या कोई कम्पनी कभी ‘परिवार’ हो सकती है? यक़ीनी तौर पर नहीं। क्योंकि अगर ऐसा होता तो एपीजे अब्दुल क़लाम जैसी महान् शख़्सियत को ये क्यों कहना पड़ता कि, “अपने काम से प्रेम कीजिए, कम्पनी से नहीं। क्योंकि आपको नहीं पता है कि आपकी कम्पनी कब आप से प्रेम करना बन्द कर देगी।” क़लाम साहब का ये सन्देश सबके लिए है। 

उनके इस सन्देश को और बेहतर तरीक़े से समझना चाहें तो ज़रा अपनी ही कम्पनी के किसी साथी कर्मचारी के बारे में याद कीजिए। ऐसा, जो अपनी कम्पनी के साथ बेहद भावनात्मक तौर पर जुड़ा रहा हो। लेकिन जब वह कभी किसी बड़ी मुश्क़िल में पड़ा तो उसे ‘कम्पनी-परिवार’ की तरफ़ से कोई मदद नहीं मिली। अभी कुछ सालों पहले की बात है। एक बहुत बड़े अख़बार के ‘सबसे बड़े सम्पादक’ के मामले ने मीडिया के गलियारों में काफ़ी चर्चा पाई थी। वे सम्पादक जी ख़ुद इस विचार के बड़े समर्थक थे कि उनकी कम्पनी उनके परिवार की तरह है। और इसके मालिक उनके परिवार के संरक्षक सदस्यों की तरह। लिहाज़ा, उन्होंने उस ‘परिवार’ के लिए अपनी ज़िन्दगी लगा दी। वह सब किया, जो परिवार की बेहतरी के लिए कोई भी समर्पित सदस्य करेगा। हमेशा ही किया करता है। 

लेकिन अन्त में हुआ क्या? वह ‘सबसे बड़े सम्पादक’ एक बड़ी मुश्क़िल में पड़ गए। वह मुश्क़िल ऐसी कि जो सीधे तौर पर उनसे और उनके ‘कम्पनी-परिवार’ से जुड़ी हुई थी। दोनों की छवि पर प्रश्नचिह्न लगाने वाली थी। लिहाज़ा कम्पनी ने अपना चेहरा बेदाग रखने का विकल्प चुना। उन सम्पादक जी से साफ़ कह दिया कि इस “समस्या से आप अपने स्तर पर ही निपटें। क्योंकि यह ज़्यादा मात्रा में आपसे ही जुड़ी है।” सम्पादक जी उस समस्या से निपट नहीं पाए और उन्होंने उसी ‘कम्पनी-परिवार’ की इमारत की तीसरी मंज़िल से कूदकर आत्महत्या कर ली। ऐसा एक और उदाहरण है। पूना में एक सॉफ्टवेयर कम्पनी में काम करने वाले युवा कर्मचारी का। वह मधुमेह यानि डायबिटीज़ से पीड़ित था। इसी बीच, शरीर में कहीं कुछ फोड़े-फुंसी उभर आए। तक़लीफ़ बढ़ी तो कुछ दिन की छुट्‌टी माँगी। लेकिन वह मिली नहीं। सो, दर्दनाशक दवाएँ खाकर ड्यूटी बजाता रहा। इन दवाओं ने उसके लिवर पर असर डाला और आख़िरकार उसकी मौत हो गई। याद करें तो ऐसे एक-दो नहीं, हज़ारों उदाहरण ध्यान में आ जाएँगे।

अब इन मिसालों के बरअक़्श सोचकर देखिएगा। क्या कोई ‘परिवार’ अपने किसी भी सदस्य के साथ ऐसा बर्ताव करता है? ख़ास तौर पर भारतीय परिवार में? नहीं न? हालाँकि यक़ीनी तौर पर तथाकथित ‘कम्पनी-परिवारों’ के बीच भी कुछ अच्छे उदाहरण होंगे ही। लेकिन इतना तय है कि उन अच्छे उदाहरणों की संख्या बेहद अल्प होगी। और ऐसे उदाहरण तो ढूँढ़ने से भी शायद ही मिलें, जब किसी कारण से अक्षम हो गए कर्मचारी की ज़िम्मेदारी ‘कम्पनी-परिवार’ निरन्तर उठाता रहा हो। लेकिन वहीं दूसरी तरफ़, बाज़ारवाद के प्रभाव से टूटती-चरमराती भारतीय परिवारों की व्यवस्था में बावज़ूद आज भी ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलेंगे, जब ‘परिवार’ ने अपने किसी भी अक्षम सदस्य का अन्त तक भी साथ नहीं छोड़ा। बल्कि मुश्क़िल वक़्त में, निदान होने तक, सब एक साथ खड़े रहे। 

इसीलिए क़लाम साहब की बात पर फिर ग़ौर कीजिएगा। याद रखिएगा कि बाज़ार में खड़ी कोई भी कम्पनी आपका ‘परिवार’ नहीं हो सकती। उसका ऐसा दावा है, तो तय मानिएगा कि वह आपसे छलावा कर रही है। सिर्फ़ इसलिए कि आप उसके लिए ख़ुद काे, अपने घर-परिवार को भूलकर, जी-जान लगाकर बस, काम करते रहें। लिहाज़ा बेहतर है कि इस छलावे से दूर रहें। अपने काम से प्रेम करें और परिवार से भी उतना ही। उसका ख़्याल रखें। अपने हिस्से का पूरा वक़्त अपने परिवार से लें और उसे उसके हिस्से का भरपूर वक़्त दें भी। क्योंकि मुश्क़िल वक़्त में सिर्फ़ आपका यही परिवार है, जो आपके साथ खड़ा रहने वाला है। कोई ‘कम्पनी-परिवार’ नहीं।

मसला ‘रोचक-सोचक’ है। ‘परिवारों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस’ के बहाने ही सही, इस पर विचार ज़रूर कीजिएगा।

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Neelesh Dwivedi

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