हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं? 

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 12/10/2021

भगवान बुद्ध अपने अन्तिम उपदेश में बड़ी कठोर बात करते हैं। हालाँकि अभी तक हम बुद्ध को जहाँ भी देखते हैं हमेशा सौम्य, शान्त, सहज दिखाई देते हैं। लेकिन अन्तिम उपदेश के समय बुद्ध कठोर हो उठते हैं। सदा क्षमा करने वाले बुद्ध दंड देने की बात कहते हैं।

दरअसल, हर किसी को क्षमा करना सम्भव भी नहीं। बुद्ध सौम्य हैं। लेकिन व्यवहारिक भी हैं। बुद्ध केवल श्रद्धा की बात करते तो अपने उपदेश कैसे करते? श्रद्धा रहती तो प्राचीन सिद्धान्तों को यथावत् ही न मान लेते? अपने नए व्यवहारिक उपदेशों की आवश्यकता ही क्या थी?

हर समय सहज ही रहते तो सिद्धान्तों का पालन कैसे होता? सिद्धान्त स्वयं कठोर ही होते हैं। जो सिद्ध है, निश्चित है, वह कठोर ही होगा। अब बुद्ध कहते- जो मन करे करो.. तो कैसे किसी नियम का, उपदेश का, आदेश का पालन सम्भव होता? अगर कठोर नहीं होगें तो संघ टिकेगा कैसे? बुद्ध जानते हैं कि मेरे बाद “मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना” अर्थात् हर मस्तिष्क में अलग बुद्धि और विचार होगा। अलग-अलग बुद्धि संघ को कहाँ संघ रहने देगी। अलग-अलग मत, अलग-अलग संघ बन जाएँगे।

कहीं बुद्ध का पूरा आन्दोलन, जीवन भर का तप, सम्मत साधना का सार तत्त्व समाप्त न हो जाए। इसलिए सदा शान्तचित्त रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में अपने शिष्य आनन्द से कहते हैं, “आनन्द! मैंने जो धर्म और विनय के उपदेश दिए हैं, वही तुम्हारे गुरु हैं। आनन्द! मेरे बाद “छन्न भिक्षु” को ब्रह्मदंड करना चाहिए।” (दीर्घ निकाय , महापरिनिर्वाण सुत्त 2/3) । अर्थात् उस भिक्षु से कोई व्यवहार नहीं करना चाहिए, जो संघ के नियमों को न माने। 

जो बुद्ध वचन नहीं मानेगा, जो बुद्ध वचन पर सन्देह करेगा, वह आचरण कैसे करेगा? इसलिए बुद्ध सन्देह को जगह नहीं देते। 

ऐसे ही, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, “संशयात्मा विनश्यति” जो सन्देहयुक्त होगा, वह नष्ट हो ही जाएगा। गुरु पर सन्देह क्यों? सन्देह होने से व्यक्ति नष्ट हो जाएगा। सन्देहयुक्त हम कब होते हैं? जब हम धर्म पर नहीं होते। जब अपने धर्म का पालन नहीं करते। भगवान गीता में कहते हैं, “स्वधर्मे निधनं श्रेय:” अपने धर्म के पालन करने में मृत्यु का वरण करना भी कल्याणकारक है। लेकिन सन्देह नष्ट कर देता है। इसीलिए सन्देह नहीं। इसलिए भगवान का स्पष्ट आदेश है, “मामेकं शरणम् व्रज”, अर्थात् मेरी शरण आओ, सिर्फ़ कल्याण ही होगा।
 
हमें अपने धर्म पर सन्देह है, इसकी पहचान क्या है? जब हम अपने सिद्धान्तों, आदर्शों, धर्म-वचनों पर नहीं रहते। हम दूसरों के बहकावे में आकर अन्यान्य मतों, उपदेशकों से अपने कल्याण की कामना करने लगते हैं। 

अपने गुरु के प्रति आस्था का अभाव, नष्ट हो जाने की प्रथम सीढ़ी है। इसलिए संघ के नियमों का पालन अनिवार्य है। तभी कल्याण सम्भव है।
 

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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 32वीं कड़ी है।) 
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां… 

31वीं कड़ी : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30वीं कड़ी : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29वीं कड़ी : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28वीं कड़ी : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27वीं कड़ी : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26वीं कड़ी : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25वीं कड़ी : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24वीं कड़ी : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23वीं कड़ी : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22वीं कड़ी : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21वीं कड़ी : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20वीं कड़ी : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19वीं कड़ी : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18वीं कड़ी : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17वीं कड़ी : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16वीं कड़ी : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15वीं कड़ी : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14वीं कड़ी : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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