नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 28/6/2022
यूँ ही बैठे-ठाले ज़ेहन में सवाल आया, ‘भीड़ के साथ हमेशा ‘भाड़’ क्यों रहता है?’ वैसे, तो इसका ज़वाब बहुत मुश्किल नहीं है। लेकिन अगर किसी को ‘भाड़’ का मतलब न पता हो तो ज़रूर मुश्किल हो सकती है। इसलिए पहले यह जानना बेहतर होगा कि आख़िर ‘भाड़’ है क्या? बहुत से लोग जो ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले हैं, वे शायद जानते हों।
दरअसल, ‘भाड़’ एक ख़ास तरह के मिट्टी के बर्तन को कहते हैं। काफ़ी कुछ मटके जैसा। बस, इसका ऊपर का मुंह मटके की तरह सँकरा न होकर चौड़ा होता है। कई जगहों पर ‘भाड़’ को कुछ-कुछ तन्दूर की तरह मिट्टी में दबाकर भी शक़्ल दी जाती है। इस ‘भाड़’ में आग दिखाकर इसमें सूखा अनाज भूँजा जाता है। चने, जौ, गेहूँ वग़ैरा।
बीते ज़माने में, ग्रामीण इलाकों में ये अनाज भूँजने का एक अच्छा-ख़ासा पेशा हुआ करता था। कई लाेगों की रोज़ी-रोटी चलती थी इससे। इस पेशे में लगे समुदाय को ‘भाड़-भूँजा’ कहा जाता था। सम्भव है, कुछ जगहों पर आज भी ये लोग पाए जाते हों। अपना पेशा करते हों। हालाँकि बदलते वक़्त ने बहुतायत ये पेशा लगभग ख़त्म कर दिया है। बहरहाल, इस संक्षिप्त परिचय के साथ अब मूल सवाल पर कि ‘भीड़’ के साथ ‘भाड़’ आख़िर क्यों?
तो ज़वाब यूँ कि बहुत गम्भीर मतलब है इसका। असल में, ‘भाड़’ की प्रकृति पर गौर कीजिए। यह बिल्कुल ‘भीड़’ की तरह होती है। जिस तरह, ‘भीड़’ में किसी भी व्यक्ति की अपनी कोई पहचान नहीं होती, वैसे ही ‘भाड़’ में गए अनाज का भी अपना अलग कोई मतलब नहीं, कोई रुतबा नहीं। ‘भाड़’ में हर दाने की एक ही नियति होती है, ‘समान रूप से भुँज जाना’। इसी तरह ‘भीड़’ में हर व्यक्ति की समान नियति होती है, ‘खप जाना’, ‘गुम हो जाना’।
यही वज़ा है कि ‘भीड़’ जब कोई भी अच्छा या बुरा काम करती है तो न किसी को उसका श्रेय मिलता है और न ही उसकी किसी पर कोई जवाबदेही होती है। जैसे ‘भाड़’ में गए सब दाने बराबर, वैसे ही ‘भीड़’ में घुसे सब मुंड भी बराबर। कुछ अलग नहीं। कोई भेद नहीं।
इसीलिए ऐसा कहने में भी कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि अगर कोई ‘भीड़’ में शुमार है तो समझिए उसे ‘भाड़’ में जाने की ज़रूरत नहीं है। वह पहले से ‘भाड़’ में ही है। सो, बेहतर है ‘भीड़’ से अलग अपनी पहचान बनाने की कोशिश की जाए ताकि ‘भाड़’ में जाने से, भुँजने से बचा जा सके।
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