अंग्रेज भारत में दास प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथाएँ रोक क्यों नहीं सके?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 12/9/2021

ब्रिटेन में 18वीं सदी के ख़त्म होने तक सरकार पर यह दबाव बनाया जाने लगा था कि कंपनी के अधिकार वाले इलाकों को ईसाई धर्मप्रचार के लिए खोला जाए। यह दबाव बनाने वाले पूरी तरह आश्वस्त थे कि ख़ासकर भारतीय समाज को बड़े बदलाव की ज़रूरत है। वे मानते थे कि सरकार के माध्यम से कुछ ऐसे कार्यों, प्रथाओं का रुकवाया जा सकता है जो ‘नैतिक कानून’ के ख़िलाफ़ हैं। इस दृष्टिकोण से हालाँकि कंपनी डरी हुई थी। इसलिए उसने पहले मिशनरियों, सुधारवादियों और सुधारों का विरोध किया। पर 1813 के अधिकार पत्र अधिनियम ने उसे मज़बूर किया कि वह अपने अधिकार क्षेत्रों में ईसाई गतिविधियों की इजाज़त दे। इस बीच, कंपनी के कई सैन्य और नागरिक प्रशासन के अफ़सर, कर्मचारी भी अपने ‘ईसाइयत से जुड़े कर्त्तव्यों’ के प्रति सजग हो गए। जैसे- सर थॉमस मुनरो। वे पहले स्थानीय समाज में दख़लंदाज़ी न करने के पक्षधर थे। लेकिन 1821 तक इसके विरोध के लिए मज़बूर हो गए। 

इस तरह भारतीय समाज में व्याप्त ‘अमानवीय प्रथाओं’ को बर्दाश्त न करने का दबाव लगातार बढ़ रहा था। लिहाज़ा इन हालात में, ब्रिटिश शासन का ध्यान सबसे पहले दास प्रथा की ओर गया। इस बारे में पहली बार 1774 में वॉरेन हेस्टिंग्स ने राय रखी कि यह प्रथा ख़त्म की जानी चाहिए। कलकत्ता में एक कार्यक्रम में सर विलियम जोंस ने भी 1785 में इसका उल्लेख किया। उन्होंने कहा था, “इस शहर में शायद ही कोई पुरुष या औरत हो, जिसने किसी बच्चे को ग़ुलाम न बना रखा हो। वह बच्चा या तो बेहद मामूली मूल्य पर ख़रीदा गया होता है या फिर दुख-तक़लीफ़ से जूझती ज़िंदगी से बचाया गया। मैं मानता हूँ, आप में से कई लोगों ने ऐसे बच्चों से भरी नाँवों को नदी के रास्ते बिक्री के लिए कलकत्ता आते देखा होगा। आप इस तथ्य से भी अनजान नहीं होंगे कि इनमें से कई बच्चे उनके माता-पिता के पास से चुराए गए या अकाल के दौर में थोड़े से चावल के बदले ख़रीदे गए थे।”

इसके बाद लॉर्ड कॉर्नवालिस ने 1789 में घोषणा कराई कि वयस्कों या बच्चों को ग़ुलामों की तरह दूसरे देशों में भेजे जाने या देश के भीतर अन्य स्थानों में लाने-ले जाने पर पूरी रोक रहेगी। फिर 1807 में ब्रिटिश संसद ने दास प्रथा के ख़िलाफ़ जब कानून बनाया तो भारत में प्रचलित दास-प्रथा पर नए सिरे से बहस शुरू हुई। उस वक़्त दासता पूरे देश में फ़ैली थी। ग़ुलामों के व्यापार में खूब मुनाफ़ा होता था। इसमें शक्तिशाली व्यावसायिक हित निहित थे। इसलिए सरकार इस पर सीधे आघात करने से क़तरा रही थी। लिहाज़ा उसने धीरे-धीरे इसके उन्मूलन की तरफ़ कदम बढ़ाए। इसके तहत पहले 1811 में ब्रिटिश भारत में ग़ुलामों के आयात पर प्रतिबंध लगाया गया। हालाँकि 1812 में चार्ल्स मेटकाफ ने पाया कि दिल्ली में ग़ुलामों के व्यापारियों का आँकड़ा तो असल में बढ़ा हुआ था। लिहाज़ा, उन्होंने पहले इसके ख़िलाफ़ कार्रवाई की। फिर सरकार को सूचना दी, “इससे पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद कि इस अन्यायपूर्ण व्यापार को रोका जाना चाहिए, मैंने दिल्ली राज्य और क़स्बे में इंसानों की ख़रीद-फ़रोख़्त रोक दी है।” उन्होंने पूर्व में ख़रीदे-बेचे जा चुके ग़ुलामों की फिर ख़रीद-फ़रोख़्त पर भी रोक लगाई, लेकिन उनके इस निर्णय में ऊपरी स्तर पर काट-छाँट कर दी गई। कारण कि “वायसराय की परिषद ऐसा प्रतिबंध लगाने को अब भी तैयार नहीं थी।” इस तरह पहले से ग़़ुलाम बनाए जा चुके लोगों की ख़रीद-फ़रोख़्त जारी रही।

इसके बाद 1832 में एक जिले से दूसरे में ग़ुलामों की ख़रीद-फरोख़्त पर प्रतिबंध लगाया गया। मगर जिले के भीतर यह व्यापार अभी कानूनन मान्य था। फिर 1833 के अधिकार पत्र अधिनियम में वायसराय से अपेक्षा की गई कि वे दास प्रथा को ख़त्म करें, लेकिन तभी जब ऐसा करना व्यावहारिक और सुरक्षित हो। वास्तव में सरकार जहाँ बैठती थी, उस कलकत्ता में भी बच्चों तक की ख़रीद-फ़रोख़्त अभी जारी ही थी। यह तब तक जारी ही रही, जब तक 1843 में कानून के जरिए दासता को कानूनी मान्यता देने पर रोक नहीं लगा दी गई। यह एक तरह से दासप्रथा के अप्रत्यक्ष उन्मूलन का प्रयास था। लेकिन इस कानून का असर बहुत धीमा रहा। कारण कि इसमें ग़ुलामों के उद्धार की मंशा ज़्यादा नहीं थी, बल्कि बेहद धीरे से लोगों को दूसरे व्यवसायों की तरफ़ मोड़ने का इरादा अधिक था।

इसके बाद मानवबलि और कन्या भ्रूण हत्या जैसी समस्याओं पर सरकार का 1802 में ध्यान गया। उस समय बैप्टिस्ट मिशनरी से जुड़े विलियम कैरी ने अपनी एक जाँच में पाया कि मानवबलि की प्रथा के पीछे धार्मिक कारण थे। लोग इसकी वज़ह से अपने बच्चों को बंगाल के सागर द्वीप में शार्क मछलियों का निवाला बनने के लिए भी फेंक देते थे। यह तथ्य सामने आने के बाद लॉर्ड वेलेज़्ली ने इस प्रथा को ख़त्म करा दिया। लेकिन, कन्या भ्रूण हत्या की प्रथा बड़े क्षेत्र में फैली थी। यह न सिर्फ आदिवासियों में, बल्कि राजपूत जातियों में भी बड़े पैमाने पर व्याप्त थी। लिहाज़ा 1795 के बंगाल अधिनियम के जरिए इस कुप्रथा को संगठित हत्या जैसा घोषित कर दिया गया। यह कानून 1804 में अंग्रेजों के प्रभाव वाले अन्य क्षेत्रों में भी लागू किया गया। इसके बावज़ूद कुप्रथा पूरी तरह ख़त्म नहीं की जा सकी। 

विलियम स्लीमैन अपने विवरण में इसका ज़िक्र करते हैं। उन्होंने 1849-50 में अवध प्रांत की यात्रा की थी। वहाँ एक राजपूत ज़मींदार ने उन्हें बताया था कि इस कुप्रथा का मुख्य कारण बच्चियों की शादी में आने वाली समस्याएँ हैं। तब स्लीमैन को लगा कि ‘निसंदेह प्रथा दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन इससे छुटकारा पाना मुश्किल है।’ वे लिखते हैं, “पहली बार जब किसी माँ से उसकी बच्ची छीनकर मौत के हवाले की जाती, तो वह रोती-चीखती है। लेकिन दो-तीन बार बच्चियों को जन्म देने और हर बार उनकी वही दुर्गति देखने के बाद वह भी शांत हो जाती है।” कुछ ग़रीब लोग तो बेटियों को मोटी रकम लेकर बेच तक देते थे। लेकिन ऐसा करने के बाद उन पर हमेशा के लिए जाति से बाहर होने का ख़तरा मँडराता रहता था। इसीलिए लोग अधिकांशत: बच्चियों को पैदा होने पर या गर्भ में ही मार देते थे।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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