अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 29/6/2021
बुद्ध होने के लिए इच्छाओं को त्यागना पड़ता है। यह त्याग अत्यधिक कठिन है। इस त्याग को, इस निरोध को मोक्ष का मार्ग भी कहा गया है।
“क्षणिकाः सर्व संस्कारा इत्येवं वासना यका।
स मार्ग इह विज्ञेयो निरोधो मोक्ष उच्यते”।। ( षड्दर्शन समुच्चय, बौद्ध मत कालिका 7)
अर्थ- समस्त संस्कार अर्थात पदार्थ क्षणिक हैं, इस क्षणिक भावना को, मार्गतत्त्व को और विषय भोगों के प्रति रागादि को, वासनाओं के नाश को, निरोध अर्थात मोक्ष कहते हैं।
यह त्याग बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह निरोध ही अमृतत्त्व है। यही निर्वाण है। दुःख का निरोध अर्थात मोक्ष। बुद्ध संसार की समस्त इच्छाओं का त्याग कर देते हैं। अपना समस्त संसार त्याग देते हैं। समृद्ध राज्य, सुन्दर पत्नी, प्राणप्रिय पुत्र, समस्त भोग साधन और समस्त सुख भी त्याग देते हैं। इस त्याग को, कठिनता को हम ऐसे समझ सकते हैं कि चूँकि इस निरोध को ही मोक्ष कहा है तो जैसे ही छोड़ना शुरू करते हैं, मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर होने लगते हैं। सुख मिलने लगता है।
प्रसंगवश एक कहानी का यहाँ उल्लेख कर सकते हैं…
एक बहुत कंजूस सेठ जी रोज सत्संग सुनने जाते। सत्संग के समय सबसे पीछे बैठकर सुनते और घर वापस आ जाते। कंजूसी की आदत के कारण लोग सेठ को पसन्द नहीं करते थे। यह बात प्रवचन करने वाले महात्मा जी को पता चली। लेकिन महात्मा जी ने कभी सेठ जी से आगे बैठने के लिए नहीं कहा। कथा सुनते हुए कई दिन बीत गए। क्रम चलता रहा। महात्मा जी ने एक दिन त्याग के महत्त्व पर प्रवचन दिया। उसे सुनकर सेठ जी ने सोचा आज मैं भी कुछ त्याग कर पुण्य अर्जित कर लूँ। सो, सत्संग के बाद सेठ जी ने कुछ सोने के सिक्के महात्मा जी के चरणों में अर्पित कर दिए। इसके बाद अगले दिन जब सत्संग में पहुँचे तो महात्मा जी ने सेठ को आगे बैठने के लिए आमंत्रित कर दिया। इस पर सेठ जी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि आप सोने के सिक्कों के बदले मुझे आगे बैठने को कह रहे हैं। क्योंकि इससे पहले आप ने कभी आगे बैठने को नहीं बुलाया। तब महात्मा जी ने बड़े महत्त्व की बात कही। महात्मा जी कहते हैं यह सम्मान आप के धन के कारण नहीं है। बल्कि आप के “धन त्याग के कारण” यह सम्मान है।
कल्पना करें, चन्द सिक्कों के त्याग से उन सेठ जी को वहाँ सत्संग में अग्रिम पंक्ति में स्थान मिल गया। तो इस त्याग को विस्तृत करने पर भला मोक्ष क्या मुश्किल है? बुद्ध ने यही किया। अपना सर्वस्व त्याग दिया। इस महान त्याग ने ही सिद्धार्थ को बुद्ध बनाया।
इसीलिए बुद्ध इस त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय कराते हैं।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 17वीं कड़ी है।)
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं….
16वीं कड़ी : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला?
15वीं कड़ी : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है?
14वीं कड़ी : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है?
13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं?
12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन
11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई?
10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है?
नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की!
आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?
सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे?
छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है
पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा?
चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं?
तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए!
दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा?
पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?
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