अवध का इलाका काफ़ी समय तक अंग्रेजों के कब्ज़े से बाहर क्यों रहा?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 18/8/2021

19वीं सदी की शुरुआत में मध्य और उत्तर भारत मराठा राजाओं के नियंत्रण में था। ये सब पेशवा के लिए निष्ठावान कहे जाते थे। पर नाममात्र के लिए। इनके प्रशासन का स्वरूप कुछ ऐसा था कि प्रभावी तरीके से राजकोष में राजस्व आता रहे, बस। राजकोष के लिए राजस्व इकट्‌ठा करने के तीन मुख्य तरीके थे। पहला- सीधे जनता से कर वसूली। दूसरा- युद्धों में लूटी गई दौलत। तीसरा- पराजित राजाओं से उनकी सुरक्षा के बदले मिलने वाला धन। लेकिन ये तरीके ज़्यदा सफल नहीं हुए। धीरे-धीरे बड़े इलाके मराठाओं के प्रभुत्व से बाहर होने लगे। इस कारण उनमें से अधिकांश को अपनी संपत्तियाँ सालों-साल के लिए गिरवी रखकर महाजनों से काफ़ी धन उधार लेना पड़ा। छोटे-बड़े कार्यालयों की नीलामी तक करनी पड़ी। इधर, उनके राज में किसान भी परेशान थे क्योंकि उनकी उपज का बड़ा हिस्सा राजाओं के पास चला जाता था। जबकि वे ख़ुद और उनके परिवार भूखों मरने की स्थिति में आ जाते थे। अकाल-महामारी की घटनाएँ भी होती रहती थीं। इनमें कई बार तो गाँवों, कस्बों, नगरों की तीन-चौथाई आबादी तक काल के गाल में समा जाती थी। गाँव के गाँव खंडहरों में तब्दील हो जाते थे। तिस पर ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी कर संग्रह करने वाला अमला, सैनिक और डाकू-लुटेरे आम जनता को लूटने से बाज नहीं आते थे।  

न्याय व्यवस्था का सिर्फ़ एक हिस्सा मराठा शासकों ने छेड़ा नहीं था। वह थी पंचायतें। ये पंचायतें गाँवों के सभी मामले देखती थीं। सभी विवादों पर फ़ैसले सुनाती थीं। हालाँकि इनका न्याय लगभग स्वेच्छाचारी था। इसमें दुर्लभ ही ऐसे मौके आते थे जब ऊँची जातियों के आरोपितों को दंड दिया जाता हो। रिश्वतख़ोरी भी न्याय को प्रभावित करती थी। नागरिक प्रशासन तो नहीं के बराबर ही था। इसके बावज़ूद पुरानी पारंपरिक व्यवस्था के बल पर ग्रामीण समुदाय किसी तरह अस्तित्व बनाए हुए थे। मगर कस्बों, नगरों को नागरिक प्रशासन की अनुपस्थिति से नुकसान उठाना पड़ा। वे लुटेरों, चोरों, डाकुओं के आसान शिकार बन गए। इससे जो शहर कभी व्यापार, वाणिज्य, उद्योग, संस्कृति के केंद्र होते थे, धीरे-धीरे चौपट व्यवस्था के शिकार हो गए। शहरों के नागरिक, शिल्पकार, व्यापारी मौका मिलते ही पलायन करने लगे। वे यूरोपीय संस्थानों की सुरक्षा-संरक्षा में आसरा लेने लगे। उस दौर में मराठाओं ने सार्वजनिक इमारतों, मुग़लों के महल-अटारियों, मसजिद-मकबरों आदि को बड़ी क्षति पहुँचाई। उधर, पंजाब में शक्तिशाली सिख शासक राजा रंजीत सिंह ने 18वीं सदी के अंत तक अनुशासित व्यवस्था लागू कर रखी थी। लेकिन 1839 में उनके निधन के बाद वहाँ भी अराजकता फैल गई। कारण कि रंजीत सिंह के उत्तराधिकारी बहुत सक्षम शासक नहीं थे।

इस तरह पूरे देश में गृह युद्ध जैसी स्थिति थी। ग्रामीण सामुदायिक व्यवस्था भी ढहने लगी थी। लिहाज़ा, 1849 तक अंग्रेजों ने आख़िरकार देश के बड़े हिस्से को अपने अधिकार में ले लिया। उनके अधिकार में आने वाला आख़िरी बड़ा राज्य अवध था। वहाँ मुग़ल बादशाह के पूर्व सूबेदार ने सल्तनत की ताक़त कम होते ही ख़ुद को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया था। यह इलाका लंबे समय तक अंग्रेजों के कब्जे़ से बाहर रहा। कारण कि अवध का मुखिया अंग्रेजों को उनके सैन्य अभियानों में लगातार माली मदद दे रहा था। बदले में अंग्रेजों ने भी उसे 1819 में ‘नवाब’ की पदवी दी थी। लेकिन एक अवसर ऐसा आया जब अंग्रेजों ने उसे चेतावनी दे दी। कह दिया कि वह अपनी शासन-व्यवस्था से भ्रष्टाचारियों को बाहर करे। अनुशासन की स्थिति बेहतर बनाए। नवाब ने इसकी कोशिश भी की, लेकिन वह बेनतीज़ा रही। लिहाज़ा, हालात जाँचने के लिए 1849-50 में सर विलियम स्लीमैन ने अवध की यात्रा की। अपनी रपट में उन्होंने लिखा, “ज़मींदारों ने प्रांत में अशांति फैला रखी है। सामान्य जन-जीवन अस्त-व्यस्त कर रखा है। जब भी वे किसी कारण से आपस में या स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों से संघर्ष में उलझते हैं तो बुरी तरह लूट-खसोट, मार-काट मचाते हैं। अपनी जाति के अलावा दूसरी जातियों को ख़ासतौर पर निशाना बनाते हैं। कोई गली, कस्बा, गाँव, शहर उनके दुर्दांत हमलों से सुरक्षित नहीं रहता। ऐसे समय लूट और हत्या तो उनका खेल बन जाता है। महिलाओं और बच्चों तक को प्रताड़ित करने, उन्हें मौत के घाट उतारने से वे नहीं चूकते। जिन इलाकों में वे हमला करते हैं, वहाँ पूरी व्यवस्था नेस्तनाबूद कर दी जाती है।”

हालाँकि इस स्थिति में भी कुछ चीजें किसी न किसी तरह बची हुई थीं। मसलन- हिंदू सामाजिक व्यवस्था। इसी व्यवस्था की वज़ह से जब तक कोई गाँव पूरी तरह ध्वस्त नहीं हो जाता था, उसके धार्मिक स्थल अमूमन बचे रहते थे। इसी तरह गाँवों की अपनी कृषि-व्यवस्था भी पूरी तरह ढहती नहीं थी। हालात से हिल ज़रूर जाती थी। इसी कारण माहौल शांत होते ही अक्सर किसान अपने गाँवों, खेतों में लौट आते थे। फिर खेती-बाड़ी शुरू कर देते थे। आर्थिक गतिविधियाँ बड़े पैमाने पर प्रभावित होती थीं लेकिन किसी न किसी तरह उत्पादन में गति बनी रहती थी। विभिन्न उत्पादों की सतत् आपूर्ति ब्रिटिश कारोबारियों को, खासकर, होती थी। शिक्षा-संस्थान, कवि, चित्रकार, आदि अपना काम बेरोकटोक कर रहे थे। अपनी पारंपरिक संस्कृति का संरक्षण कर रहे थे।

अलबत्ता बाद में जब भारत अराजकता से बाहर आया तो यहाँ के पारंपरिक संस्थानों और संस्कृति को लगभग उलट विचारों का सामना करना पड़ा। फिर चाहे वह न्याय का मसला हो या प्रशासन का। दर्शन हो राजनीति का। लिहाज़ा इन विचारों-नवाचारों के अनुरूप भारतीय संस्थानिक और सांस्कृतिक व्यवस्था को ख़ुद में तब्दीली लानी पड़ी। पश्चिम के प्रभाव में उसे कुछ मामलों में सतही तौर पर तो कई में मूलभूत बदलावों से दो-चार होना पड़ा।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
——
(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
——
पिछली कड़ियाँ : 
3. हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों के आधिपत्य की शुरुआत किन हालात में हुई?
2. औरंगज़ेब को क्यों लगता था कि अकबर ने मुग़ल सल्तनत का नुकसान किया? 
1. बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के बावज़ूद हिन्दुस्तान में मुस्लिम अलग-थलग क्यों रहे?

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *