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हमास के हमले पर इजराइली प्रतिकार से भारतीय जनमानस क्यों अभिभूत है?

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश

जब इजराइल में युवाओं, बच्चों, वृद्धों और स्त्रियों पर खूनी हमले हुए और उन्हें मध्ययुगीन गुलामों के मानिन्द बंधक बनाकर हमास के हमलावर ले जाते दिखे तो इससे जुड़ी तस्वीरों ने दुनिया को कुछ घंटों के लिए स्तब्ध कर दिया। इसके बाद से सब लोग यह जानने को बेताब थे कि इजराइल इसका कैसे और क्या जवाब देगा? आखिर दुनिया भर में एक अलहदा रूतबा रखने वाली इजराइली सुरक्षा प्रणाली, गुप्तचर संस्था ‘मोसाद’, सेना और तकनीकी ताकत के वजूद पर सवाल जो खड़ा हो गया था। सो, इजराइल ने भी प्रत्याक्रमण में लेबनान, गाजा पट्‌टी पर रॉकेटों की बरसात कर दी। हमास के नेता और हमलावरों का चुन-चुन कर खात्मा करना शुरू किया। इस प्रत्याक्रमण की चपेट में आए निरपराध गाजावासी बच्चों की दर्दनाक तस्वीरें, युवाओं और महिलाओं की आपबीती कहानियाँ सामने आईं। इसके बावजूद इजराइल ने अपराधियों को दंडित करने के अपने निश्चय को कमजोर नहीं होने दिया। 

अब आते हैं भारत पर। इजराइल के प्रतिकार पर जिस तरह से भारतीयों ने समर्थन जताया, वह लक्षणीय है। सोशल मीडिया दलगत राजनीति, जाति, समाज और क्षेत्रीय संकीर्णताओं से परे भारतीय जोर-शोर से इजराइल के साथ खड़े दिखे। आज भी केरल, बंगाल के मुस्लिम बहुल इलाकों में इस्लामी इन्फ्लूएंसर्स, धुर वामपंथी और दबी जुबां वाले कुछ कांग्रेसी नेताओं को छोड़कर हमास के समर्थन में कोई गम्भीर व्यक्ति नहींं दिखता। यह घटना दो बातें इंगित करती है। पहला कि इजराइल का जवाब आम भारतीयों की नजर में न्याय, अन्याय के प्रतिकार (कुछ संकीर्णचित्त लोगों के लिए प्रतिशोध) के पैमाने पर खरा उतरता है। दूसरी बात यह है कि हमारा संवैधानिक गणतंत्र उपनिवेशी सोच या लोकतांत्रिक ढाँचागत त्रृटियों से प्रभावित है। इसके चलते राजनीतिक दल बहुसंख्य नागरिकों की समझ, पसन्द-नापसन्द और मूल्यों की अनदेखी करके भी सत्ता पा लेते हैं। 

इसे समझाते है 23 साल पहले की एक घटना से। आपकी उम्र अगर 30-35 साल से ऊपर है तो बहुत सम्भव है कि आपके जेहन में कंधार विमान अपहरण कांड की धुंधली यादें कहीं दफन हों। हरकत-उल-मुजाहिदीन और आईएसआई 24 दिसंबर 1999 को इंडियन एयरलाइंस फ्लाईट-184 का काठमांडू से अपहरण कर उसे अमृतसर, दुबई होते हुए कंधार ले गए थे। देश सदमें में था और बेकसूर यात्रियों के परिजन उन्हें किसी भी कीमत पर छुड़ाने के लिए रोते-बिलखते प्रदर्शन कर रहे थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयीजी ने स्पष्ट कह दिया था कि आतंकियों से किसी तरह का समझौता नहीं करेंगे। यह वास्तव में परीक्षा की घड़ी थी।

लेकिन फिर गठबंधन सरकार के नेता कविहृदय प्रधानमंत्री की सरकार ने वही निर्णय लिया, जिसका अन्देशा था। अपहृत नागरिकों को छुड़ाने के लिए कोई गम्भीर कार्रवाई नहीं हुई। स्थितियाँ हाथों से बाहर जाने पर तीन आतंकियों के बदले 159 नागरिकों को छुड़ाया गया। भारत में इस तरह के कमजर्फ निर्णय लेने के सैकड़ों उदाहरण हैं। जो गुलामी के कारण अपने मित्र और शत्रु के बोध को खो देने की पुरानी आदत से ग्रस्त हैं। यह दलीय राजनीति का नहीं, राष्ट्र के चरित्र का विषय है। क्या यह उदाहरण आपको कुछ संकेत करते हैं? इस घटना की तुलना आप हमास के हमले के बाद इजराइली नागरिकों के व्यवहार से करें तो शायद आप मेरा इशारा समझ सकेंगे।

इजराइल पर हमले के बाद नागरिक और विपक्षी दलों ने मिलकर कड़ी कार्रवाई की भूमिका बना दी। छोटे बच्चे-बच्चियाें, महिलाओं और युवा और वृद्ध लोगों को आतंक बर्दाश्त करने की कीमत पर छुड़ाने के लिए किसी ओर से कोई माँग नहीं उठी। इजराइल के नागरिकों ने जिस गम्भीरता से इस दु:खद घटना को सहा, वह साभ्यतिक चरित्र को दर्शाता है। दु:ख की महान घड़ी में भी धैर्य के साथ कैसे स्वयं को संभाला जाता है, अपने व्यवहारिक बुद्धि का सही प्रयोग किया जाता है और स्वयं के लिए घातक विचारों का कैसे परहेज किया जाता है – यह सब हमें इजराइल के आम लोगों के व्यवहार में देखने को मिलता है। यही वह बात है जो भारतीयों को इजरायल का कायल बनाती है।

इसमें कोई दोराय नहीं कि भारतीय इजराइल की दृढ़ता और अनुशासन के मुरीद दिखते हैं। असल में भारतीयों के साधारण ज्ञान में इजराइल उन तमाम बातों का प्रतीक है, जो प्रभावशाली, मजबूत और अपने मूल्यों के व्यवहारिक स्तर पर लागू करने में समर्थ है। लेकिन बात एकतरफा नहीं है। भारत की ओर से बात करें तो यहाँ हिमाचल, पुष्कर, ऋषिकेश, ओंकारेश्वर, गोवा से लेकर अनजान ग्रामीण स्थानों में शान्ति की खोज में टिके हजारों इजराइली यात्री मिल जाते हैं। स्थानीय संस्कृति के प्रति उनके समादर युक्त व्यवहार और उनकी प्रामाणिक जिज्ञासुवृत्ति उन्हें भारतीय लोगों के दिलों में खास जगह दिलाती है। साथ ही, संकीर्ण मजहबों के उपनिवेशी अनुभव रखने वाली दो प्राचीन सभ्यताओं के संवाहकों के बीच एक-दूसरे के प्रति गहरा आकर्षण भी है।

जबकि इस मित्रता को इस्लामी-वामपंथी कैसे देखते हैं, इसे आप अल-जजीरा, अल-अरबिया, गार्जियन और बीबीसी जैसे मीडिया का समूह के कवरेज से जान सकते हैं। वे हिन्दुत्त्व, राष्ट्रवाद और मोदी के उत्कर्ष के माध्यम से भारत-इजराइल से घनिष्टता सम्बन्ध को देखते हैं। मोटे-तौर यह सोच तेजी से प्रासंगिकता खो रही पुरानी जर्जर विश्वव्यवस्था से आती हैं और वो घड़ी के काँटे को पीछे ले जाना चाहते हैं। दक्षिण अफ्रीकी पत्रकार आजाद इस्सा और पाकिस्तानी मूल के प्रोफेसर मनन अहमद ने हाल ही में प्रकाशित अपनी किताब, ‘होस्टाइल होमलैंड्स : द न्यू अलायंस बिटवीन इंडिया एंड इजराइल’ में इजराइल और भारत की मैत्री को हिन्दुत्त्व और मोदी के आगमन से जोड़कर देखा है।

मतलब अब स्थितियाँ बदल रही है। इस लेखक ने अपने पिछले लेख में बहुराष्ट्रीय संगठनों की बदली स्थिति की ओर इशारा किया था। जॉर्ज सोरस, पियरे आमिडयार, बिल गेट्स जैसे मानवसेवा के धंधे में लगे बहुराष्ट्रीय संगठनों के मालिक, आला यहूदी, मुसलमान, ईसाई व धार्मिक धनाढ्य लोगों से जुड़े वित्तीय संस्थान आज अपने धरातल, हित, वर्तमान और भविष्य की दशा- दिशा पर गहराई से सोच रहे होंगे। जो साभ्यतिक मूल्यों का संघर्ष का मुद्दा उठा है, उस पर सबका भविष्य टिका है। यहाँ गुटनिरपेक्ष रहने का कोई विकल्प ही नहीं है।

स्वतंत्र सोशल मीडिया के काल में ऐसे तमाम किरदारों के डिजिटल फूटप्रिंट्स उनके पक्ष या विपक्ष में साक्ष्य के रूप लेने की शुरूआत हो चुकी है। वो इस संघर्ष में किस ओर हैं और अपने आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हितों को किनके साथ देखते हैं, यह सुनिश्चित करने का समय है। इस मंथन के जो भी परिणाम हों, यह बात तो स्पष्ट है कि मल्टी-कल्चरलिज्म का तुष्टिकरणवादी तर्क अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। हम इजराइलियों के स्वानुशासन की भावना से अभिभूत हैं, जो उन्हेंं वैचारिक स्पष्टता और कर्मकुशलता का नया पैमाना देते हैं।
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(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ भी लिखा लिया करते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराया करते हैं।)

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