स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्था क्यों लागू की गई थी?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 7/9/2021

जब अंग्रेजों ने बंगाल में प्रत्यक्ष रूप से शासन हाथ में लिया तो शुरू में ज़मींदारों के ज़रिए लगान वसूली की। ज़मींदारों के इलाके बँटे हुए थे, जो आकार में अलग-अलग थे। इस व्यवस्था ने नि:संदेह भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित किया। इसके बावज़ूद 1772 तक अंग्रेजों ने इसे ज़ारी रखा। रॉबर्ट क्लाइव ने इसका स्वाभाविक कारण बताया, “शुरू में हमारे लिए ज़रूरी था कि हम सरकारी-तंत्र के पुराने अधिकारियों पर भरोसा करें। उनसे हमें जानकारियाँ जो हासिल करनी थीं। इसीलिए अपने हित की दृष्टि से उन्हें साथ जोड़ना पड़ा। यह व्यवस्था हमें तब तक जारी रखनी थी जब तक हमारा अनुभव उसकी ज़रूरत को न्यूनतम न बता दे। नीति की माँग थी कि हम सरकार में स्थानीय लोगों का सहयोग लेकर चलें।”

लेकिन हेस्टिंग्स के शासनकाल में नई व्यवस्था शुरू की गई, नीलामी की। इसके तहत सबसे ऊँची बोली लगाने वाले को सरकार की तरफ़ से लगान वसूली का अधिकार दिया जाने लगा। इसका नतीज़ा ये हुआ कि यह काम बड़े पैमाने पर ऐसे सट्‌टेबाज़ों के हाथ में चला गया जो सामान्य करदाताओं से मुनाफ़ा वसूलने की मंशा रखते थे। वसूलने लगे थे। इससे राजस्व संग्रह काफ़ी कम हो गया। लिहाज़ा अंग्रेजों ने सीधे अपने अफ़सरों के जरिए लगान वसूली का अगला प्रयास किया। लेकिन इस प्रयास के भी अपेक्षित नतीज़े नहीं निकले। कारण कि कंपनी के प्रतिनिधियों को भारत की ज़मीन से जुड़ी ज़्यादा जानकारी नहीं थी। जैसे, साल में कितनी बार उपज ली जाती है? उपज लेने के तरीके कौन-कौन से हैं, आदि। वे इस बारे में उतना ही जानते थे, जितना कि उन्हें यह काम सौंपने वाले अफ़सर। 

दरअसल, समस्या यह थी कि अंग्रेज अब तक यह नहीं तय कर पा रहे थे कि ज़मीन का मालिकाना हक़ कौन संभाले। वे ऐसे समाज के अस्तित्व को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे जो रीति-रिवाज़ों, परंपराओं के हिसाब से चलता हो। कारण कि उसमें स्पष्टता, सटीकता का अभाव था। वहीं, निजी संपत्ति और निजी अधिकारों की परिभाषा जब तक किसी दस्तावेज में लिखित रूप से दर्ज़ न कर ली जाए, सरकार और व्यक्ति विशेष की भूमिकाओं की हदबंदी नहीं जा सकती थी। लिहाज़ा, ज़मीन के मालिकाना हक़ और काश्तकारी के अधिकारों के मामलों के मद्देनज़र अंग्रेजों ने 1793 में बड़ा कदम उठाया। उन्होंने प्रथम बंगाल अधिनियम (रेगुलेशन-I) लागू किया। इसे आम बोलचाल में ‘स्थायी बंदोबस्त’ कहा गया। लॉर्ड कॉर्नवालिस को इस ‘स्थायी बंदोबस्त’ के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार माना गया। इस ‘स्थायी बंदोबस्त’ के मार्फ़त ब्रिटिश सरकार ने एक तरह से मान लिया कि ज़मींदारों का उनके अधिकार वाली जायदाद पर स्थायी और हस्तांतरणीय हक़ है। ज़मींदार चूँकि ब्रिटिश शासन के पूर्व से ही लगान संग्रह का काम कर रहे थे, इसलिए सरकार ने उन्हें ही आख़िरकार भू-मालिकों का ख़िताब दे दिया।

लेकिन इस नतीज़े पर पहुँचने से पहले बंगाल में अंग्रेजों के बीच ही काफ़ी विवाद की स्थिति बन गई थी। इसमें एक पक्ष की दलील थी कि भारतीय परंपरा के अनुसार पूरी ज़मीन शासक की है। ज़मींदार सिर्फ सरकार का अधिकारी मात्र है, मालिक नहीं। वहीं, दूसरे पक्ष का मानना था, और जैसा इसके मुख्य प्रवक्ता सर जॉन शोर ने कहा भी, “लगान शासक से संबंधित है, जबकि ज़मीन ज़मींदार से।” हालाँकि दोनों विचारों का हिंदु और मुसलिम कानून, दोनों ही पूरी तरह समर्थन नहीं करते थे। 

हिंदुओं की ‘मनु संहिता’ (इसे 300 ईसापूर्व और ईसा के जन्म के बाद 150वें वर्ष के बीच कभी लिखा गया) और उसके बाद की कानून संहिताएँ कहती थीं कि राजा ज़मीन से होने वाली उपज का हिस्सेदार है। कारण कि वह ‘भूमि का रक्षक’ है, ‘भूपाल’ हैं। वहीं, हिंदुओं के ही अन्य स्रोत राजा को ‘भूमि और जल का स्वामी’ बताते थे। इस तरह सभी हिंदु कानूनों में इस बाबत सटीकता का अभाव था। हालाँकि अभ्यास में सामान्य स्वीकृति ये थी कि भूमि का असली मालिक, अंतिम रूप से, शासक ही है। भूमालिक या कृषक ज़मीन को बेच सकेंगे अथवा ज़रूरत पड़ने पर उसे कर्ज़ आदि के बदले ग़िरवी रख सकेंगे, इसका तो हिंदु कानून में कोई उल्लेख ही नहीं था। आधुनिक अर्थों में जिसे मालिकाना कहा गया, हिंदु कानून उससे भी पूरी तरह अनभिज्ञ था।

वहीं, मुसलिम कानून संपत्ति के अधिकार को मान्यता देता था। लेकिन ज़मीन के मामले में यह भी सटीक नहीं था। उनके जीते हुए इलाकों में अलग-अलग कानून था। हिंदुस्तान भी चूँकि उनका जीता हुआ इलाका ही था। लिहाज़ा, यहाँ जो कानून लागू था, उसे ‘हनाफ़ी’ कहा जाता था। इसमें विजेता को यह अधिकार था कि वह चाहे तो जीती हुई ज़मीन अपने दल-बल में न बाँटे। उसे उसके पुराने मालिकों के पास रहने दे। बस, शर्त यह रहे कि मुसलिम भू-मालिकों की तुलना में ग़ैर-मुसलिम ज़मीन मालिक दोगुना कर (ख़राज) सरकार को अदा करें। हनाफ़ी कानून के मुताबिक एक बार यह लागू हुआ तो सरकार ज़मीन पर मालिकाना छोड़ देती थी। कब्ज़ाधारी को ज़मीन मालिक के रूप में मान्यता देती थी। अलबत्ता, अगर भू-मालिक तयशुदा ख़राज अदा न पाया तो सरकार उससे ज़मीन वापस ले लेती थी। फिर उसे किसी तीसरे पक्ष को बेच दिया जाता था। यह तो था कानून। लेकिन हिंदुस्तान में मुसलिम शासकों ने ऐसा व्यवहार किया, जैसे वे ही ज़मीन के असली मालिक हों।

इस तरह, दोनों धार्मिक व्यवस्थाओं में दिक्क़त थी। लिहाज़ा, अंग्रेजों ने बंगाल में लागू की गई ‘स्थायी बंदोबस्त’ की व्यवस्था के ज़रिए इस पर मुहर लगा दी कि ज़मीन की असली मालिक हमेशा से सरकार ही है। हालाँकि पूर्ण स्वामित्व के अधिकारों से लैस ज़मींदार वर्ग बनाकर ज़ाहिर विराेधाभास भी पैदा किया। यह नई स्थिति भारतीय परंपरा के लिए बिलकुल नई थी। ज़मींदार के दर्ज़े वे तमाम लोग शामिल हो गए, जो थे तो कृषक ही लेकिन लगान भरपूर देते थे। बड़ी-बड़ी ज़मीनों के कब्ज़ाधारी कुछ अधिकारी और कई छोटे शासक भी इस वर्ग में शुमार हो गए थे।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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