अनुज राज पाठक, दिल्ली
पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में एक प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ सामूहिक बलात्कार हो गया। फिर उसे दुर्दान्त तरीक़े से मार दिया गया। पूरे देश में इस घटना पर उबाल है। लेकिन सोचिए कि क्या यह कोई पहला मामला है? या फिर आख़िरी होने वाला है? नहीं न? तो साेचिए कि बलात्कार होते क्यों हैं? कभी इस पर विचार करते हैं क्या हम? नहीं करते। हमें ऐसे मसलों पर विचार करने जरूरत ही क्या है? हम मान बैठते हैं कि यह सब हमारे अपनों के साथ थोड़े हो रहा है। अस्ल में, हमारा मन बड़ा अद्भुत है। हम और हमारा मन दूसरे के दुःख में, उसके साथ सहानुभूति दिखाकर ही सन्तुष्ट हो जाता है। हम मान लेते हैं कि हमने सहानुभूति दिखा दी। बस, हमारा काम ख़त्म।
यहाँ कोई तर्क दे सकता है कि क्या हम सबके दुख को खुद पर लाद लें? या जीना छोड़ दें? नहीं, ऐसा नहीं है। हमें ऐसा नहीं करना है। देखिए मैं भी यह इसीलिए लिख रहा हूँ, क्योंकि मुझे भी बलात्कार पीड़ित से सहानुभूति है। लेकिन साथ ही मैं डरा हुआ भी हूँ। रोज सोचता हूँ आत्मरक्षा करना सीखूँ। आत्मरक्षा हेतु हथियार रखने के लिए सरकार को आवेदन करूँ। ऐसे अन्य विकल्प भी मन में आते हैं। क्योंकि मेरी बेटी है, पत्नी है, माताएँ-बहनें हैं। इन उपायों से उनकी सुरक्षा शायद सुनिश्चित कर सकूँ। मगर अन्त में उत्तर मिलता है- नहीं, इतने से नहीं होगा।
तो फिर क्या उपाय है? मुझे भी नहीं पता। किसी को पता हो, तो मुझे बताए। इसीलिए पहले मूल प्रश्न पर लौटते हैं- आख़िर बलात्कार क्यों होते हैं? मेरे ख़्याल से इसके कई कारण हैं। उन पर चर्चा जरूरी है। उनमें एक बड़ा कारण है- ‘धर्म’। दूसरा है- ‘नारीवाद’ और तीसरा- ‘बाज़ारवाद’। पहले दोनों कारणों पर विस्तार से चर्चा करना मेरे खुद के लिए भी समस्या पैदा कर देगा, इसलिए बाज़ारवाद पर विस्तार से चर्चा सम्भव है।
सो कहिए, कई लोग जब अपने लिए चड्डी खरीदने जाते हैं तो उस पर लगी तस्वीर के आकर्षण से ही खरीदते हैं न? इसी तरह, मंजन वह लाते हैं जिसे करने से महिलाएँ आकर्षित हो जाएँ? यहाँ तक कि बच्चे चॉकलेट तक वह खरीदते हैं, जो उन्हें किसी सुन्दर स्त्री का चुम्बन दिला दे? मनोरंजन के नाम कर हमें ‘मस्तराम’ का साहित्य और ‘उल्लू’ सीरीज पसन्द आती है? राष्ट्रीय पुरस्कार भी ऐसे साहित्य को मिलते हैं, जो नग्नता परोसें? उन चित्रकारों को महान् माना जाता है, जो नारी के नग्न शरीर का चित्रण करें? और तो और अश्लीलता की हदें पार कर चुके आजकल के हास्य कार्यक्रम (स्टैंडअप कॉमेडी) भी हमें पसन्द हैं न? इन्हें हमारी स्वीकार्यता हासिल हे न?
यही तो है बाज़ारवाद! अब बताइए, क्या इसके बाद भी कोई बलात्कार के कारणों के बारे में जानना चाहेगा? अस्ल में, हम और हमारा पूरा तंत्र जाने-अनजाने बलात्कार को बढ़ावा दे रहा है। मैं ग़लत कह रहा हूँ क्या? अगर हाँ, तो कुछ और सवालों के ज़वाब दीजिए। बलात्कार के अधिकांश मामलों में लीपापोती कौन करता है? किसी का भाई, किसी का पिता, किसी का पति, किसी की बहन, किसी की माँ ही न? क्या ये लोग किसी और दुनिया के हैं? कोई और हैं? नहीं, ये हम ही हैं। बस,सूरतें अलग-अलग हैं। ये हमारी ही दुनिया के लोग हैं सब।
इसीलिए कहता हूँ, एक बार अपने ग़िरेबान में झाँककर देखिए। अपनी वीभत्स सच्चाई से डरे बिना देखिए। अगर थोड़ी भी मानवता बची है, तो देखिए। लेकिन, क्या ये हो पाएगा हम सभी से? नहीं हो पाएगा। क्योंकि हम में इतना हौसला नहीं है कि हम अपनी सच्चाई को बर्दाश्त कर सकें। हम में इतना साहस नहीं कि हम अपने वीभत्स सच को भीतर से निकाल बाहर करें। क्योंकि ऐसा करने पर हमें हमेशा तथाकथित समाज से, चल रही व्यवस्था से और बाज़ार से अलग-थलग पड़ जाने का डर सताता रहता है। हम आए दिन हो रहे बलात्कारों को भूलकर आगे बढ़ना मंज़ूर कर लेते हैं, लेकिन अपने भीतर और आस-पास पल रही वीभत्स सच्चाई से मुँह मोड़ लेना मंज़ूर नहीं करते।
तो फिर भाई, किसी घटना-विशेष के प्रति दिखावटी सहानुभूति क्यों? ये मोमबत्ती के जुलूस, ये प्रदर्शन किस काम के? छोड़ दीजिए न ये सब। अपने-अपने काम पर लगिए। आखिर काम करेंगे, तभी तो बाज़ारवाद का पेट भर सकेंगे न हम? पर एक बात याद रखिए। बलात्कार करने वाले जितने बड़े अपराधी और दंड के पात्र हैं न, उतने हम सब हैं। क्योंकि हम ही रोज किसी न किसी रूप में इस विकृति के बीज का पालन-पोषण करते हैं।
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)