धार्मिक समाज को इतने अत्याचार क्यों सहना पड़ रहा है?

समीर, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 31/12/2020

परसों शाम अस्पताल से लौटते वक्त मन कुछ अंतर्मुखी हो रहा था। जीवन की सभी परिक्षाओं को लेकर मन में उहापोह हो रही थी और दो सवाल उठे। पहला- धार्मिक समाज को इतने अत्याचार क्यों सहना पड़ रहा है? दूसरा- धर्मविरोधी क्या भगवान का अंश नहीं है, तो उसका प्रतिकार क्यों किया जाए? सवाल उठाकर सद्गुरुदेव का ध्यान कर उनके समक्ष निवेदित कर दिए। फिर मन में जो विचार तरंगें प्रकट हुईं, उससे सारा कुहाँसा छँट गया। उन प्रश्नों और उत्तरों को यहाँ डायरी में दर्ज कर रहा हूँ, शायद और किसी भाग्यवान को लाभप्रद सिद्ध हो जाएँ!

यदि श्रीसीताराम ही सब कुछ हैं तो उन्होंने धार्मिकजन पर इतना अत्याचार क्यों और कैसे होने दिया और अब भी क्यों होने दे रहे हैं? 
सब भगवान श्रीसीताराम की लीला है। हम धर्म का थोड़ा गहनता से जिएँ तो पाएँगे कि हमारे सभी महापुरुषों ने घोर विपरीत परिस्थितियों को अपने प्रिय भगवान का प्रसाद ही माना है। उन्होंने बड़े से बड़ा त्याग किया लेकिन धर्म नहीं त्यागा। अपनी सबसे प्रिय चीज के त्याग में भी उनके मनोबल को कोई तोड़ न पाया। यही धर्म है। हमारी समस्या धर्म को अपनी परम्परा से न समझकर आधुनिक विदेशी नजरिए से देखने की है। उसके अनुसार धर्म को सही ठहराने की या उसमें सुधार की बात करने की है। यह सीखी हुई चतुराई हमें त्याग की जगह स्वार्थी और भोगी बना रही है। इस चतुराई के चलते हम गुलामी के अपने क्षुद्र अस्तित्व को सभी तरह के समझौते कर बचाने में ही अपनी योग्यता समझते हैं। धिक्कारने योग्य कायरता को महान त्यागपूर्ण समर्पण का रूप देकर खुद को धोखा देते हैं। अत्याचार और उससे जनित दु:ख प्रश्न ही नहीं है। प्रश्न है कि हम उस परिस्थिति में अपना धर्मसम्मत कर्त्तव्य निभाते हैं या नहीं। धर्म साधन है और साध्य भी है।

यदि ‘सर्वं खल्विदं राम’ हैं तो फिर आधुनिक प्रस्थान से विधर्मी हत्यारे, पाखंडी लूटेरों से हम अपनी धर्म परम्परा-संस्कृति की रक्षा, उनसे अपना प्रतिरोध कैसे और क्यों करें? 
तत्वत: सर्व जगत विष्णुमय है। वे भगवान विष्णु ही हमारी धर्म सम्बन्धी निष्ठा की परीक्षा लेते हैं। कभी वे स्वयं धर्म की स्थापना के लिए अवतार भी लेते हैं। यह उनकी लीला है। हमारी जिम्मेदारी तो उनके बताए धर्म-मार्ग पर चलने की है। इसके लिए जो कर्त्तव्य हैं, उसे पूर्ण निष्ठा से निभाने की है। जैसे – धर्म के श्रेष्ठ भक्ति के मूल्यों को स्थापित करने के लिए हमें निरन्तर कृतिशील होना चाहिए। धर्म के लिए लड़कर हम दुष्टों का संहार करते हैं, और धर्म की सेवा में थोड़ा भी सफल होते है तो वह श्रेयस्कर है। लेकिन यदि धर्म निभाते हुए अज्ञानी दुष्टों से लड़ते हुए हम अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देते हैं तो वह हमारे लिए परमश्रेयस् है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान द्वारा इसी तत्व की विवेचना है। यदि धर्म के लिए हमें स्वयं भगवान से भी युद्ध करना पड़े तो हमारा कर्त्तव्य उस युद्ध को स्वीकार कर उसमें अपने युद्धकौशल से भगवान को प्रसन्न करना ही होगा। धर्म भगवान का सार रूप है। वह बुद्धि या तर्क के आधार पर अपनी सुविधा, अहंता, भोगवृत्ति के अनुसार तोड़-मरोड़ कर, काट-छाँट कर अपनाने की चीज नहीं है। ध्यान रखना होगा कि देश के जिस भूभाग, समाज या परिवार ने यह गलती की है, वे भ्रम के वन में भटक कर नष्ट भ्रष्ट हो रहे हैं। नशा, भोग, व्याधि, अवसाद सहित आधुनिकता की तमाम गंद उनके यहाँ डेरा डाल देती है।

और अन्त में…
वर्तमान काल कलि का है। कलियुग में धर्म का एक ही चरण रह जाता है- दान। भागवत में कलि को एक कसाई के रूप में दिखाया है जो गाय और उसके बछड़े को सताता है। कलि के इस चित्रण के गहन निहितार्थ हैं। उसके नियम अधर्मसापेक्ष हैं लेकिन सिर्फ इसी युग में गौ के लिए अपना प्राणोत्सर्ग करने वाले माधवदास, तेजाजी महाराज जैसे असंख्य भक्त भगवद् पार्षद बन जाते हैं। जो फल सतयुग में 10 साल की कठोर तपस्या से मिलता है वही त्रेतायुग में एक वर्ष के यज्ञ से, द्वापर युग में एक माह की उपासना-अनुष्ठान द्वारा प्राप्त होता है वह कलियुग में एक दिन के भगवन्नाम संकीर्तन से मिल जाता है। इसीलिए शास्त्र कहते हैं कलियुग की महिमा यह है कि भले ही इसमें वर्णाश्रम धर्म आदि का ह्रास हो लेकिन निष्ठावान भक्तों के लिए यह परम फलदायी काल भी है। यद्यपि कलियुग की परीक्षा कड़ी है, लेकिन जीव अधर्म के आगे न झुक कर यथार्थ में भगवत् नाम-स्मरण-शरण लेता है उसकी तो मौज ही मौज है। आनन्द ही आनन्द है।

बलिहारी बलिहारी… ।

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(समीर, निजी कम्पनी में काम करते हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के नियमित पाठक और लेखक भी हैं। वे हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखते हैं। धार्मिक और सामाजिक मसलों  पर उनकी खास पकड़ है।)

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