शिवाजी ने अंग्रेजों से समझौता क्यूँ किया था?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 19/8/2021

अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी के कारोबारी जब पहली समुद्री यात्रा पर निकले तो भारत नहीं, सुमात्रा पहुँचे थे। लेकिन 1608 में कंपनी के एजेंटों- बैंटम और मॉल्यूकस ने प्रबंधन को बताया कि भारत के कच्चे सूत की ग्राहकों में काफ़ी माँग है। लिहाज़ा भारत में कंपनी का वाणिज्यिक केंद्र होना चाहिए। इससे भारत के कच्चे सूत की ख़रीद-फ़रोख़्त आसान होगी। इसके बाद कंपनी की आग्रह पर तत्कालीन मुग़ल बादशाह शाह जहाँ ने उसे हिंदुस्तान में वाणिज्यिक केंद्र स्थापित करने की अनुमति दी। हालाँकि पुर्तगालियों ने इसका विरोध किया क्योंकि वे भारत में पहले से थे। वे भारत पहुँचने वाले पहले यूरोपीय थे। लेकिन उनका विरोध बेअसर। इस तरह 1612 में पश्चिमी भारत के मुख्य बंदरगाह सूरत में ईस्ट इंडिया कंपनी का पहला मालगोदाम स्थापित हुआ। इसके बाद अहमदाबाद, बुरहानपुर, अजमेर और आगरा में कंपनी के वाणिज्यिक केंद्र बने। इन्हें फैक्टरियाँ कहा जाता था। 

कंपनी 1647 तक भारत में 23 व्यावसायिक केंद्र स्थापित कर चुकी थी। लेकिन इसी समय इंग्लैंड में राजा (चार्ल्स-प्रथम) और संसद के बीच टकराव की स्थिति बन गई। इससे कंपनी की स्थितियाँ ख़राब हो गईं। लेकिन चार्ल्स-द्वितीय ने जब ब्रिटेन की गद्दी संभाली तो स्थितियों में सुधार आया। कंपनी को नया विशेषाधिकार पत्र (चार्टर) प्राप्त हुआ। उसे अपनी मुद्रा चलाने का अधिकार तथा पूरब में ब्रिटिश समुदाय से जुड़े मामलों में फ़ैसले लेने के लिए न्यायाधिकार भी मिले। इसी दौरान 1668 में राजा ने कंपनी से लिया एक कर्ज़ चुकाने के लिए बम्बई उसके सुपुर्द कर दिया। उससे पहले बम्बई चार्ल्स-द्वितीय की संपत्ति था और उनसे भी पहले पुर्तगालियों की। लेकिन जब पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन की शादी चार्ल्स-द्वितीय से हुई तो पुर्तगालियों ने दहेज के रूप में बम्बई ब्रिटेन के राजा को सौंप दी। 

इसी दौर में इधर, हिंदुस्तान के तत्कालीन मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की हिंदु विरोधी नीतियों का दबाव बढ़ रहा था। इससे हिंदु व्यापारी सुरक्षित ठिकाने तलाश रहे थे। कंपनी को संकेत दे रहे थे कि उन्हें सुरक्षा मिले तो वे परिवार और कारोबार सहित बम्बई आ सकते हैं। कंपनी के लिए यह आकर्षक प्रस्ताव था। क्योंकि उसी समय भारत में मलाबार के तट पर पुर्तगालियों के ठिकानों को डच अपने कब्ज़े में ले रहे थे। फ्रांसीसियों की व्यावसायिक कंपनी का 1668 में गठन हुआ था। वे भी भारत के तटीय इलाकों में फैक्टरियाँ बना रहे थे। व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा बढ़ रही थी। उधर, मराठाओं की सैन्य शक्ति बढ़ रही थी। वे 1664 में सूरत पर हमला कर चुके थे। इसके बाद सूरत के मुख्य कारोबारियों ने वैसे भी बम्बई कूच करना शुरू कर दिया था। वहाँ वे लोग कंपनी के भारतीय हितों को मज़बूत करने में मददग़ार बने। इस तरह, यहाँ से भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव पड़ने लगी।

इसी बीच मराठा शासक शिवाजी ने ख़ुद को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। तब उनके राजतिलक समारोह में कंपनी ने अपने प्रतिनिधि हेनरी ऑक्सिन्डेन को भेजा। हेनरी मराठाओं के साथ शांति समझौता करके लौटे। उनके मुताबिक यह कंपनी के लिए ‘लाभकारी’ था। उस समय शिवाजी को भी लगा कि नौसैन्य मामलों में अंग्रेजों की विशेषज्ञता का उन्हें मुग़लों के ख़िलाफ़ लाभ मिलेगा। तब मुग़ल सेना बम्बई के नज़दीक डेरा डाले हुए थी। वह शिवाजी के कब्ज़े वाले तटीय इलाकों पर हमले कर रही थी। इसीलिए शिवाजी को भी अंग्रेजों से मित्रता फ़ायदेमंद लगी। हालाँकि शिवाजी और मुग़लों की लड़ाई और लूटमार ने बम्बई के व्यापार को बहुत चोट पहुँचाई। सन् 1680 में शिवाजी के निधन के बाद भी यह स्थिति बदली नहीं।

इस दौर में कंपनी और उसके कर्मचारियों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी। उसे जब-तब आर्थिक दंड आदि भुगतने पड़ रहे थे। मसलन- जब औरंगज़ेब ने हिंदुओं पर जजिया कर लगाया तो कंपनी ने विरोध कर दिया। नाराज़ बादशाह ने कंपनी के उत्पादों पर सीमा शुल्क दो से बढ़ाकर साढ़े तीन प्रतिशत कर दिया। इसी तरह कंपनी के अधीनस्थ सैनिक भी नाख़ुश थे। कंपनी सेना का बजट कम कर रही थी। सैनिकों की तनख़्वाह में अक़्सर कटौती होती था। छोटी सी ग़लती के लिए उन पर आर्थिक दंड लगा दिया जाता था। सेना में भेदभाव खूब था। इससे सैन्य-विद्रोह की स्थितियाँ बन गईं। लिहाज़ा कंपनी की सेना के कमांडर रिचर्ड कैगविन ने 1683 में बम्बई में शासन के सभी सूत्र अपने हाथ में ले लिए। बम्बई की सुरक्षा सख़्त कर दी। इतनी कि जब 1684 में मुग़ल बादशाह सर्दियों में बम्बई छुटि्टयाँ मनाने आए तो उन्हें भी लौटा दिया गया। नतीज़ा ये कि कैगविन को आख़िर सज़ा मिली। उसे विशेष तौर पर इंग्लैंड के राजा की ओर से भेजी गई फौज़ के सामने समर्पण करना पड़ा।

इधर बंगाल में कंपनी के एक एजेंट थे, जॉब चरनॉक। उन्होंने सीधे मुग़ल सल्तनत के ख़िलाफ़ ही युद्ध की घोषणा कर दी। सल्तनत से उनका झगड़ा 1686 में बकाया सीमा शुल्क के मसले पर हुआ। तब कंपनी के 10 जहाज और 600 सैनिक बंगाल में मौज़ूद थी। लेकिन इतनी सामर्थ्य से काम नहीं चला। नतीज़ा ये कि अंग्रेजों वहाँ से मद्रास भागना पड़ा। हालाँकि कुछ समय बाद अंग्रेजों और मुग़लों के बीच समझौता हो गया। इसके बाद 1690 में कंपनी के जहाज फिर हुगली नदी में लंगर डाल सके। चरनॉक ने ही इस क्षेत्र को ब्रिटिश भारत की राजधानी के लिए उपयुक्त पाया था। फिर 1696 में अंग्रेजों को तत्कालीन हिंदुस्तानी हुकूमत से कलकत्ते में किलाबंदी की छूट मिल गई। इसके बाद 1699 में अंग्रेजों ने वहाँ एक किला बनवाया। नाम रखा ‘फोर्ट विलियम’। इंग्लैंड के पूर्व डच राजा के नाम पर। इसी साल अंग्रेजों ने बंगाल के नवाब से तीन इलाके- सुतनुती, गोबिंदपुर और कलकत्ता पट्‌टे पर ले लिए।

इस तरह कंपनी के कब्ज़े में अब चार अहम जगहें थीं- बम्बई, कलकत्ता फोर्ट सेंट जॉर्ज मद्रास और फोर्ट सेंट डेविड। कंपनी को जब कलकत्ते का पट्‌टा मिला, करीब उसी समय फोर्ट सेंट डेविड पर उसका कब्ज़ा हुआ। यह कोरोमंडल तट पर है। पहले जिंजी का किला कहलाता था। मराठाओं का कब्ज़ा था। उन्होंने इसे नीलाम किया तो अंग्रेजों ने ऊँची बोली लगाकर ख़रीद लिया। किला ही नहीं, आस-पास के कई गाँवों पर भी कब्ज़ा जमा लिया। इसके लिए उन्होंने अनोखी तरक़ीब निकाली थी। इसके मुताबिक जब वे ऐसी प्रक्रिया में कोई किला आदि ख़रीदते तो बेचने वाले के साथ राज़ीनामा करते थे। इसमें उल्लेख होता था कि खरीदी जा रही संपत्ति के सबसे ऊँचे स्थानों पर खड़े होकर अंग्रेज सैनिक चारों दिशाओं में तोप के गोले दागेंगे। ये गोले जितनी दूर जाएँगे, वहाँ तक पूरी ज़मीन अंग्रेजों की होगी।

सो, राजीनामे के तहत जिंजी के किले से गोले दागे गए। मद्रास के तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर इलिहु येल (येल विश्वविद्यालय इन्हीं के नाम पर है) ने इसके लिए सबसे सक्षम तोपची और लंबी दूरी की तोपें जिंजी पहुँचाई। इनकी मदद से किले से लगता कुड्‌डालोर कस्बा और आस-पास के गाँव अंग्रेजों के कब्ज़े में आ गए। इन गाँवों को आज भी ‘कैननबॉल (तोप का गोला) गाँव’ कहा जाता है। कब्ज़े के बाद इलिहु ने किले का नामकरण वेल्स (इंग्लैंड का इलाका) के संत डेविड के नाम पर कर दिया। वह ख़ुद वेल्स से ताल्लुक रखते थे। यह घटना सितंबर 1690 की है। येल 1687 से 1692 तक मद्रास के गवर्नर रहे। उन्होंने समुद्री डकैती के ख़िलाफ़ सख़्त कानून बनाया, जो भारतीयों और अंग्रेजों पर समान रूप से लागू था।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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