सोचना ज़रूरी है कि दिशा रवि मामले में आधी-अधूरी रिपोर्टिंग क्यों हुई?

विकास, दिल्ली से 26/2/2021

पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि मामले में फैसला आए तीन दिन बीत गए हैं। मैंने इसे अभी-अभी तीन दिन किया है। पहले यहाँ दो दिन लिखा था। जैसे ही लिखा, तीन दिन बीत गए हैं, मुझे रामायण का दोहा याद आने लगा- विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीति।

मैं भी जड़वत हो गया हूँ। धीरे-धीरे चेतन की ओर बढ़ रहा हूँ। गति धीमी है। इसीलिए तीन दिन पुरानी बात कर रहा हूँ। लेकिन इसीलिए कर रहा हूँ, क्योंकि एक अग्रज मित्र ने कहा था कि बात करना ज़रूरी है। डायरी में ये बातें दर्ज़ करने का एक कारण यह भी है ताकि कल जब मैं या मेरे जैसा कोई भी नागरिक अपने बीते हुए कल के बारे में जानना चाहे, तो उन बातों को भी जान पाए, जिन्हें अख़बारों, ख़बरिया चैनलों और उनकी वेबसाइटों पर जगह नहीं मिली या दी नहीं गई। 

बात 23 फरवरी, 2021 की है। दिन में दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने दिशा रवि को एक-एक लाख के दो निजी मुचलकों पर जमानत दे दी थी। अलबत्ता वेबसाइटों ने एक लाख के एक ही मुचलके में जमानत दिला दी। मैं दफ़्तर से रात करीब साढ़े दस बजे घर पहुँचा। रास्ते में कुछ वेबसाइटों पर खबरें पढ़ीं। तसल्ली नहीं हुई। यहाँ तक कि बीबीसी हिन्दी की खबर से भी नहीं। रात का खाना निपटाकर लैपटॉप खोला और पटियाला हाउस कोर्ट की वेबसाइट से फैसला डाउनलोड किया। जब मन में घोर बेचैनी होती है, तब खाना भी किसी अनिवार्य काम जैसा ही होता है, जिसे निपटाया जाना है। 

बहरहाल! फैसला पढ़ने बैठा और एक के बाद एक वाक्य हाइलाइट करता चला गया। फिर करीब सवा ग्यारह बजे हिन्दी के एक बड़े अख़बार में काम करने वाले अपने अग्रज मित्र को फोन किया। उनसे कहा, “हर जगह पीटीआई (Press Trust Of India) की अधूरी ख़बर चल रही है। आपने फैसला पढ़ लिया होगा। नहीं पढ़ा हो, तो मैंने डाउनलोड करके हाइलाइट भी कर लिया है। आपको भेज देता हूँ। बड़ी ख़बर है।”

उन्होंने मेरी बेचैन आवाज़ को तसल्लीबख़्स ढंग से सुना। फिर अपने चिर-परिचित ठहराव भरे स्वभाव से बोले, “अरे बेटा चिन्ता मत कर। ख़बर अपन ने ही की है। फैसला भी पढ़ लिया है। मैंने ठीक कर दी है। अब तू कल सवेरे अख़बार देख लेना।” मैं मुतमईन होकर सो गया। फिर सवेरे फेसबुक पर एक और अग्रज मित्र की टाइमलाइन पर टेक्स्ट ग्राफिक देखा तो उनसे कहा कि इससे अच्छा कवरेज तो अख़बार ने किया है।

हालाँकि अख़बार की अपनी मज़बूरियाँ होती हैं। अख़बार के सेठजी की भी अपनी मज़बूरियाँ होती हैं। उन्हें धन्धा भी करना है। हो सकता है, इसीलिए कुछ चीज़ें वहाँ भी छूट गईं। तभी मुझसे मेरे मित्र ने कहा, “जो रह गया, उसे तो तुम लिखो।” मैंने कहा, “नौकरी में फँसकर रह गए हैं।” वे बोले, “समय निकालकर लिखो।” वैसे, मेरे सारे मित्र मुझे कोसते रहते हैं कि समय निकालकर लिखता क्यों नहीं है। इसीलिए, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेन्द्र राणा ने फैसले में जो कहा, उन बातों को सिलसिलेवार ढंग से यहाँ लिख रहा हूँ। इनमें केवल वे टिप्पणियाँ हैं, जो कहीं कही नहीं गईं हैं या छपी नहीं हैं। जैसे…

कोर्ट ने कहा कि दिशा रवि को 13 फरवरी को गलत ढंग से गिरफ्तार किया गया और बेंगलूरु से बिना किसी ट्रांजिट रिमांड के ही दिल्ली ले आया गया। 
भारतीय दंड विधान की धारा-153 जमानती अपराध है। इसमें अर्णेश कुमार बनाम बिहार राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देर्शों के अनुसार, गिरफ्तारी जरूरी नहीं थी। 
जाँच एजेन्सी ने दुर्भावनापूर्ण तरीके से भारतीय दंड विधान की धारा-124-ए जोड़ी। एजेन्सी ने सनसनी फैलाने के मकसद से दुर्भावनापूर्ण तरीके से आरोप लगाए। ‘ग्लोबल कॉन्सपिरेसी’ (वैश्विक षड्यंत्र) जैसे जुमलों का इस्तेमाल किया। 
एजेन्सी ने दिशा रवि को गिरफ्तार करते समय कानूनी प्रक्रिया का पालन ही नहीं किया। उन्हें अपने वकील से भी नहीं मिलने दिया और न ही कोई न्यायिक आदेश हासिल करने दिया। जबकि संविधान के अनुच्छेद-22 के तहत हर नागरिक को उसका अधिकार है। 

सोचने वाली बात केवल इतनी है कि अख़बारों ने ये तमाम बातें क्यों नहीं लिखीं? यही सवाल इस लेख का मकसद है। ताकि हम सोचें कि हमें किस तरह की ख़बरें परोसी जा रही हैं। ये भी कि ऐसा क्यों किया जा रहा है। लिखने को इस मसले पर बहुत कुछ है। लेकिन उससे पहले सोचना ज़रूरी है। मेरा, आपका, हम सबका।

—————————–

(विकास दिल्ली में रहते हैं। एक निजी कम्पनी में काम करते हैं। डायरी के संस्थापक सदस्यों में शुमार हैं। लगातार उस पर अपने विचार, अनुभव साझा करते हैं।)

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *