लोकतंत्र में जैसे ‘नेता’ चाहिए, उसकी मिसालें सिर्फ़ गाँधी-शास्त्री तक क्यों ठहरी है?

नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश

लोकतंत्र में जिस तरह के ‘नेता’ होने की परिकल्पना की गई, वे हिन्दुस्तान तो क्या दुनियाभर में दुर्लभ हैं। हर कहीं कुछ अँगुलियों पर गिनने लायक नाम होते हैं। उन्हीं की बार-बार मिसालें दी जाती हैं। जैसे- अपने देश में महात्मा गाँधी और लालबहादुर शास्त्री जैसे। ऐसे में, सवाल हो सकता है कि आख़िर यह स्थिति क्यों है? इसका ज़वाब सम्भवत: एक ही हो सकता है कि सार्वजनिक जीवन में ‘मेरे आचरण और व्यवहार से आम लोगों पर क्या असर पड़ेगा’, ऐसा सोचकर काम करने वाले बमुश्क़िल ही होते हैं। सबको अपने लाभ, अपने हितों की चिन्ता रहती है। और लोकतंत्र का सबसे सशक्त स्तम्भ ‘राजनीति’ इससे अछूती नहीं है। हालाँकि ‘गाँधी-शास्त्री’ जैसे महान् नेताओं के सोचने और काम करने तरीक़ा ही अलग होता है। वे हमेशा ख़्याल रखते हैं कि उनका सार्वजनिक जीवन ‘सर्वजन’ के लिए है, ‘स्व’ या ‘स्वजन’ के लिए नहीं। इसीलिए वे अपने दौर में और उसके बाद भी भीड़ से हमेशा अलग खड़े दिखते हैं। आज, दो अक्टूबर को, चूँकि महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री जी की जन्मतिथि का प्रसंग है। तो, उन्हीं के जीवन से जुड़े दो वाक़ि’आत् का ज़िक्र इस सन्दर्भ में किया जा सकता है। मिसाल के तौर पर।    

लालबहादुर शास्त्री जी से जुड़ा यह प्रसंग 1965 के आस-पास का है। उनके पुत्र अनिल शास्त्री ने इसका कई बार उल्लेख किया है। उनके मुताबिक, “बाबू जी (शास्त्री जी) तब देश के प्रधानमंत्री बन चुके थे। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बावजूद उनके पास अपना घर तो क्या, एक अदद कार भी नहीं थी। सो, घर के बच्चों ने उन्हें उलाहना दिया कि अब “आप भारत के प्रधानमंत्री हैं। इसलिए हमारे पास कम से कम अपनी कार तो होनी ही चाहिए।” बाबू जी ने भी इस बारे में सोचा और फिएट-पद्मिनी कार ख़रीदने का मन बनाया। उस ज़माने में ये कार 12,000 रुपए में आती थी। तो, उन्होंने अपने एक सचिव से कहा, “ज़रा देखें कि हमारे बैंक खाते में कितने रुपए हैं?” देखने के बाद सचिव ने बताया, ”केवल 7,000 रुपए।” तो बाबू जी ने कहा कि वे बाक़ी पैसों के लिए बैंक से कर्ज़ ले लेंगे। और उन्होंने पंजाब नैशनल बैंक से कार ख़रीदने के लिए 5,000 रुपए का कर्ज़ लिया। हमारी गाड़ी आ गई। पर दुर्भाग्यवश, इस वाक़ि’अे के एक साल बाद ही (जनवरी 1966 में) बाबू जी का निधन हो गया। इसके बाद जब इन्दिरा गाँधी जी प्रधानमंत्री बनीं और उन्हें यह बात पता चली तो उन्होंने प्रस्ताव दिया कि इस कर्ज़ को सरकार के ख़ाते से चुकता कर दिया जाएगा। लेकिन हमारी माँ (ललिता शास्त्री) ने मना कर दिया और अपनी पेंशन से अगले चार साल तक वह ये कर्ज़ चुकाती रहीं।” (यह कार अब भी दिल्ली के लालबहादुर शास्त्री स्मारक में रखी है।

इसी तरह, साल 1917 का एक वाक़ि’आ महात्मा गाँधी से जुड़ा। बिहार के चम्पारण में नील की खेती करने वाले किसान अंग्रेज सरकार की प्रताड़नाओं से तंग आ चुके थे। वे लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। सरकार उन पर झूठे मुक़दमे लादकर उन्हें जेलों में ठूँस रही थी। उस समय गाँधी जी रंगभेद के विरुद्ध सफल सत्याग्रह के बाद दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे ही थे। उन्हें हिन्दुस्तान में भी ‘मुक्तिदाता’ की तरह देखा जाने लगा था। इसी मनोभाव में चम्पारण के एक धनी किसान- राज कुमार शुक्ल तब महात्मा गाँधी से मिलने को व्याकुल हो उठे। किसानों की तरफ़ से वक़ालत करने वाले ब्रजकिशोर प्रसाद भी उनसे सहमत थे। दोनों चाहते थे कि गाँधी जी चम्पारण आकर किसानों का नेतृत्त्व करें। इसमें कुछ समय लगा, लेकिन इन लोगों ने आख़िर गाँधी जो चम्पारण आने के लिए राज़ी कर लिया।

इधर, ब्रिटिश अधिकारियों को जैसे ही ख़बर मिली कि गाँधी जी चम्पारण पहुँचने वाले हैं, तो उनके बीच खलबली मच गई। उन्हें लगा कि गाँधी जी के आने से चम्पारण में हालात बिगड़ सकते हैं। इसलिए धारा-144 लगा दी गई। साथ ही, आदेश ज़ारी कर दिया गया कि जल्द से जल्द गाँधी जी चम्पारण जिला छोड़ दें। जबकि गाँधी जी का कार्यक्रम तब इस जिले के जसौली गाँव के एक पीड़ित किसान से मिलने का था। किसानों पर सरकारी प्रताड़नाओं के क्रम में इस किसान से जुड़ा मामला अभी हाल का ही था, इसलिए। सो, गाँधी जी अपने तय कार्यक्रम के अनुसार, 15 अप्रैल, सन् 1917 को चम्पारण के जिला मुख्यालय- मोतिहारी पहुँचे। वहाँ से जसौली के लिए निकले। 

लेकिन बीच रास्ते में एक सब-इंस्पेक्टर ‘अजोध्या प्रसाद तिवारी’ ने उन्हें सूचित किया, “धारा-144 लगी हुई है। आपको आगे जाने की अनुमति नहीं है। कानून-व्यवस्था बिगड़ सकती है। आपको मोतिहारी लौटना होगा।” गाँधी जी कानून के ख़िलाफ़ नहीं जाना चाहते थे। वे अपने से उम्मीद लगाए लोगों की उम्मीदें भी तोड़ना नहीं चाहते थे। धर्मसंकट की स्थिति में उन्होंने मोतिहारी लौटने का फ़ैसला किया। लौटे भी। लेकिन चम्पारण जिला छोड़ने से साफ़ इंकार कर दिया। जिला मजिस्ट्रेट को पत्र लिखा और कहा, “मैं चम्पारण से नहीं जाऊँगा। इस अवज्ञा का सरकार जो दंड देना चाहे, मैं भुगतने को तैयार हूँ। लेकिन मैं अपने सार्वजनिक उत्तरदायित्त्व से मुँह नहीं मोड़ सकता।”   

परिणामस्वरूप, गाँधी जी पर भी मुक़दमा ठोक दिया गया। इसकी सुनवाई के दिन चम्पारण में अदालत के सामने किसानों की भारी भीड़ जमा हो गई। मुक़दमा शुरू हुआ। वहाँ गाँधी जी ने अपनी वही बात दोहराई, जो पहले मजिस्ट्रेट को भेजे पत्र में लिखी थी। उन्होंने अदालत में बचाव भी पेश नहीं किया। बल्कि सरकार और अदालत पर छोड़ दिया कि वह चाहे तो उन्हें जेल भेज दे या पीड़ित किसानों से मिलने की अनुमति दे। गाँधी जी के रुख़ ने अधिकारियों को चकित कर दिया। अदालत कोई निर्णय नहीं ले सकी। अन्त में, उप-राज्यपाल ने हस्तक्षेप किया और गाँधी जी के विरुद्ध मामले को वापस लेकर उन्हें आगे जाने की अनुमति दी। इस तरह, उन्होंने चम्पारण में सिर्फ़ सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह की ही शुरुआत नहीं की। बल्कि सार्वजनिक जीवन के आदर्शों की मिसाल भी पेश की।

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