श्रीहरिदास, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 7/2/2021
लेखक नरेश मेहता ने अपनी ‘उत्तर कथा’ में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कांग्रेस के गर्म और नर्म दल की नीति का विश्लेषण किया है। उसमें वे लिखते हैं कि नर्म दल की नीति कभी भी अवसरवादी सत्ता लोलुपता तक सिमट सकती है। जबकि गर्म दल की नीति कभी भी स्वयं को नुकसान पहुँचाने वाले अतिवाद का रूप ले सकती है।
उत्तर कथा का यह प्रसंग वर्तमान में श्रीराम मंदिर निर्माण के सन्दर्भ से जुड़ता है। कैसे? वह देखते हैं। यहाँ नर्म दल की प्रतीक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है, जिसने धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए राम को तिलांजलि दे दी है। भारत की जनता जनार्दन को भी अब इस मामले में उससे कोई उम्मीद नहीं। भले वह अब कभी-कभार ‘रामं शरणं गच्छामि’ वाली स्थिति में दिखती हो। वहीं, गर्म दल के प्रतीक और राम के मुद्दे से सत्ता में आए भारतीय जनता पक्ष ने भव्य मंदिर बनाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री करने की तैयारी कर ली है। कम से कम प्रतीत तो ऐसा ही हो रहा है।
हिन्दुत्व का परचम लेकर चलने वाले भाजप ने राम मंदिर के लिए जन-जन से राशि एकत्र कर देश-दुनिया को एक निर्णायक सन्देश देने की तैयारी की है। यहाँ तक तो बात ठीक है, लेकिन तब तक ही जब आप संस्कृति के पुनरोत्थान और विकास के लिए दूरगामी और प्रभावी कार्ययोजना पर काम कर रहे हों। यदि ऐसा नहीं हो रहा तो प्रखर राष्ट्रवाद के नारों के बावजूद आप उसी घटिया पूँजीवाद के मानदंड स्थापित कर रहे हैं, जो सनातन धर्म और संस्कृति के प्रबल विरोधी हैं। इसीलिए भाजप के इस अभियान पर तमाम सवाल भी हैं। जैसे..
राम मंदिर के धन एकत्र करने को भाजप ने अपनी कार्ययोजना में ले लिया है। धार्मिक जनों ने अपने ‘नायक’ के लिए खुले हृदय से दान देना शुरू भी कर दिया है। लेकिन अब तक किसी नेता को ये कहने की आवश्यकता नहीं लगी कि जनता अपनी ईमानदारी की शुद्ध कमाई ही मंदिर निर्माण के लिए दान करे, क्यों?
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मठ-मंदिर का सर्वश्रेष्ठ प्रबन्धन उस विशेष सम्प्रदाय परम्परा के दीक्षित या श्रद्धावान लोग ही कर सकते हैं। सत्ता के नौकर नहीं। इस लिहाज़ से भी श्रीराम मंदिर में पारम्परिक शास्त्रीय संस्कृति के विविध अंगों को पोषित करने के लिए क्या योजना है? इस प्रश्न का भी कोई उत्तर नहीं है।
वैदिक श्रौत परम्परा, दर्शन, उसमें निहित नीति-विज्ञान का संरक्षण, विकास, गौ-आधारित कृषि, भारतीय जैव-सम्पदा पर अध्ययन, आदि की भी योजना नहीं है। अब तक जितना प्रारूप सामने आया है, वह एक भव्य और विशाल पर्यटन स्थल की तर्ज पर जाता दिख रहा है। तो क्या इस प्रारूप को उचित कहा जा सकता है?
निश्चित रूप से यही सवाल वे कारण भी हैं, जो एक पवित्र उद्देश्य से किए जा रहे अभियान पर कुछ वर्गों को उँगली उठाने का मौका भी दे रहे हैं। इसलिए इन पर विचार करना चाहिए। हालाँकि सत्ता को ही सर्वस्व मानने वाली सरकारें नैतिक और पारमार्थिक दृष्टि से धर्म और न्यायसंगत विचार करने में अक्षम ही होती है। फिर भी भाजप यह जितने जल्दी समझ ले उतना बेहतर होगा। अन्यथा, जल्द वह भी हाशिए पर दिख सकती है।
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(श्रीहरिदास भोपाल में रहते हैं। भक्तिमार्गी हैं। निजी कम्पनी में नौकरी भी करते हैं। उन्हें यह नाम उनके आध्यात्मिक गुरु ने दिया है। वे इसी पहचान से लेखन-कार्य करना चाहते हैं। उनकी इच्छा का #अपनीडिजिटलडायरी ने सम्मान किया है। उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी को यह लेख व्हाट्स एप सन्देश के जरिए भेजा है।)
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