टीम डायरी
दुनिया के बड़े रईसों में शुमार मुकेश अम्बानी का इसी रविवार, दो जून को एक बड़े हिन्दी अख़बार में साक्षात्कार छपा। इसमें उन्होंने बहुत प्रेरक बातें बताईं। सफल होने के मूलभूत ज़रूरतें समझाईं। लेकिन इसके साथ ही जो मुद्दे की बड़ी बात कही, वह थी, “ऐसी आवाज़ों को कान तक न पहुँचने दें, जो कहती हों कि ये नहीं हो सकता।” एक पहलू से उनका ऐसा कहना सही कहा जा सकता है। अलबत्ता, दूसरे पहलू से इसी बात को अन्य नज़रिए से भी देख सकते हैं। ख़ासकर तब जब कोई कामयाबी के अव्वल पायदान पर चढ़ चुका हो। उस कामयाबी का नशा उसके दिमाग़ पर छा चुका हो, तब यही सोच उसे किसी ‘अमीर’ तानाशाह की तरह बना दिया करती है। फिर वह न अपने सामने किसी व्यवस्था को कुछ समझता है और न ही किसी शहर को। हर जगह उसे सिर्फ़ अपने मन मुताबिक़ नतीज़े चाहिए होते हैं। उन नतीज़ों के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है। चला जाता है।
इस बात के प्रमाण के तौर पर पहला उदाहरण मुकेश अम्बानी का ही। उनके लड़के अनन्त की शादी होने वाली है। अभी उससे पूर्व के समारोह चल रहे हैं। ऐसा ही एक समारोह इटली के पोरटोफिनो शहर में हुआ, 28 मई से एक जून के बीच। इस पूरे समारोह के दौरान एक जून, शनिवार को मौक़ा ऐसा भी आया जब इस पूरे शहर के कुछ घंटों के लिए बन्धक जैसा बना लिया गया। जब तक अम्बानी परिवार के लगभग 1,200 मेहमान इस शहर में रहे शहर के स्थानीय लोग न तो अपने घरों से बाहर निकल सके और न ही कहीं घूम-फिर सके। दुकानें, होटल, समुद्र तट, हर जगह सिर्फ़ अम्बानी के मेहमानों के घूमने-फिरने के लिए ही आरक्षित रही।
इसमें भी दिलचस्प बात ये है कि यह शहर कोई मामूली नहीं है। दुनिया के कई रईसों का इस शहर में स्थायी-सा डेरा है। शुरू-शुरू में कभी ‘अमीर’ और नामी-गिरामी लोग इस शहर को गर्मी की छुटि्टयाँ मनाने के लिए अस्थायी ठिकाने के तौर पर इस्तेमाल किया करते थे। अब उनमें से क़रीब 1,000 से कुछ अधिक लोग यहाँ स्थायी निवास बना चुके हैं। लेकिन उन अमीरों को भी ‘एक और बड़े अमीर’ ने अपने घरों में बन्द रहने के लिए मज़बूर कर दिया। क्योंकि उनका फ़लसफ़ा है कि “ऐसी आवाज़ों को कान तक न पहुँचने दें, जो कहती हों कि ये नहीं हो सकता।” और उनका गुरूर है कि वह कुछ भी कर सकते हैं। इसलिए कर भी दिखाया, कुछ भी।
अब दूसरा उदाहरण, पुणे का। वहाँ एक ‘अमीर’ के शराबी नाबालिग लड़के ने महँगी कार से दो युवाओं को कुचलकर मार दिया। उस लड़के के पिता, माँ और दादा की सोच में भी शायद यही था कि वे कुछ भी कर सकते हैं। और उन्होंने भी कर दिखाया। कुछ भी। दुर्घटना हुई इसी 19 मई को और महज़ 15 घंटों में ये ‘अमीर’ अपने लड़के को ज़मानत पर छुड़ाकर बाहर ले आए। इसके लिए चिकित्सक को तीन लाख रुपए की रिश्वत देकर लड़के के खून का नमूना बदला गया। ताकि उसके खून में शराब की मौज़ूदगी का पता न चले। किशोर न्यायालय के जज को किसी तरह से प्रभावित किया गया। नतीज़े में उन्होंने लड़के को सज़ा तो दी, लेकिन 300 शब्दों का निबन्ध लिखने और कुछ दिन यातायात पुलिस के साथ सड़क पर यातायात-प्रबन्धित करने की। वह तो भला हो आम जनता का, जो जाग जाने पर सदियों से ‘अमीर तानाशाहों’ पर भारी पड़ती रही है। पुणे के मामले में भी वह भारी पड़ी। आख़िर में नाबालिग आरोपी, उसके पिता, दादा, उसकी माँ, सभी कानून की ग़िरफ़्त में हैं अब।
हालाँकि सवाल फिर भी रह जाते हैं। कि ‘अमीरों’ में आख़िर ऐसी हनक आती क्यों है? कि वे किसी भी क़िस्म के विरोध-प्रतिरोध को बर्दाश्त क्यों नहीं कर पाते? कि हर चीज़ को अपने मन-मुताबिक मरोड़ देने की तत्परता में क्यों रहते हैं वे? जबकि एहसास उन्हें भी रहता ही होगा शायद कि वे सब कुछ नहीं ख़रीद सकते? हर चीज़ नहीं बदल सकते? कभी-कोई उन पर भी भारी पड़ेगा ही? ऊपर के उदाहरणों में इसका संकेत है। फिर भी उनका अजीब-ओ-ग़रीब शग़ल बना रहता है कि ‘मुँह से ‘न’ न निकले।’ आख़िर क्यों? सोचने लायक है!
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