लॉर्ड कर्जन को कुछ भारतीयों ने ‘उच्च शिक्षा के सर्वनाश का लेखक’ क्यों कहा?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 21/10/2021

वायसराय लॉर्ड कर्ज़न (1899-1905) ने सितंबर 1901 में शिमला सम्मेलन आयोजित किया। इसमें भारत की शिक्षा-व्यवस्था पर विचार हुआ। हालाँकि सरकारी अफसरों, शिक्षा अधिकारियों के अलावा किसी भारतीय ने इसमें हिस्सा नहीं लिया। वायसराय ने इसकी अध्यक्षता करते हुए लंबा भाषण दिया। शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी नीतियों का ब्यौरा दिया। कुछ नीतियों की आलोचना भी की। यह भी उल्लेख किया कि तकनीकी विद्यालय स्थापित करने की योजना लागू नहीं की जा सकी क्योंकि भारतीय समाज के मध्य और उच्च वर्गों में उत्साह नहीं दिखा। हालाँकि सरकार को भी डर रहा कि तकनीकी शिक्षा से बेरोजगारी बढ़ सकती है। उनके मुताबिक, जो तकनीकी शिक्षा संस्थान स्थापित हुए भी, उनमें व्यावहारिक महत्ता से विषयों को पढ़ाया नहीं गया। उन्होंने निष्कर्ष दिया, “अगर भारतीय युवाओं के लिए तकनीकी शिक्षा के जरिए नए क्षेत्र खोलना है, तो शिक्षण व्यावसायिक सिद्धांतों के आधार पर दिया जाना चाहिए।” 

कर्ज़न ने माना कि ‘अंग्रेजी शिक्षा का अंधानुकरण’ असल में भारत के देशज साहित्य की अवमानना के भाव से उपजा है। उनका कहना था, “जब से भारतीय भाषाओं, पुस्तकों के बारे में मैकॉले का शब्दाडंबर सामने आया, स्वदेशी भाषा में प्राथमिक शिक्षा का प्रभाव फीका हुआ है।” जबकि भारतीय भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा के लिए कुछ जरूर करना चाहिए था। विश्वविद्यालयों की शिक्षा के मामले में उन्होंने इस पर नाराज़गी जताई कि वहाँ “इतिहास, परंपराओं और पढ़ाने वाले शिक्षकों को भी नज़रंदाज़ किया जा रहा है।” इसके लिए उन्होंने सरकार को ज़िम्मेदार बताया, जिसने अंग्रेजी शिक्षा को सरकारी नौकरी पाने का साधन बना दिया था। इससे परीक्षाओं में अच्छे नंबर लाना पढ़ने-पढ़ाने वालों का मुख्य लक्ष्य हो गया।

कर्ज़न ने सुझाव दिया कि एक शिक्षा महानिदेशक नियुक्त किया जाए, जो शिक्षण संस्थाओं की मदद करे। स्वदेशी भाषाओं में शिक्षण को बढ़ावा दिया जाए जिससे अति-अंग्रेजीकरण के प्रतिकार में मदद मिले। प्राचीन स्मारकों का संरक्षण किया जाए। इससे भारतीय संस्कृति के अध्ययन, उसके पुनरोद्धार, आदि में मदद मिलेगी। स्वदेशी भाषाओं में शिक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने प्राथमिक शिक्षा की अहमियत पर बल दिया। उनका कहना था, “विश्वविद्यालयों के लिए अंग्रेजी भाषा बहुत अच्छी है। लेकिन बड़े पैमाने पर अधिकांश लोगों के लिए ये विदेशी भाषा है। इसे वे बोलते नहीं, सुनते भी कभी-कभार हैं।” राजनैतिक आंदोलनकारियों की गतिविधियों ने कर्जन को आश्वस्त किया कि भारत के चंद शिक्षित लोग, जब चाहेंगे बहुसंख्य अशिक्षित आबादी को अपने हिसाब से मोड़ देंगे। जबकि बहुसंख्य आबादी शिक्षित कर दी जाए तो ये गतिविधियाँ कम हो सकती हैं। उन्होंने कहा था, “भारत में सबसे सबसे बड़ा ख़तरा क्या है? भ्रांतियों, अंधविश्वासों, बार-बार महामारी फैलने, अपराधों का स्रोत क्या है? कृषि के क्षेत्र में व्याप्त असंतोष का कारण क्या है? निश्चित रूप से अशिक्षा। इस अशिक्षा का इलाज़ क्या है? ज्ञान। जितना हम बहुसंख्य आबादी को शिक्षित करेंगे, उतना हम उन्हें खुश रख पाएँगे। वे जितने खुश होंगे, उतने ही हमारी राजनैतिक व्यवस्था के लिए उपयोगी साबित होंगे।”

कर्ज़न ने उच्चतर एवं उच्च शिक्षा में भारतीय अध्ययन अनिवार्य बनाने पर जोर दिया। विज्ञान संबंधी विषयों, उनके शिक्षकों को बढ़ावा देने और शिक्षक-प्रशिक्षण पर बल दिया। इससे उन्हें उम्मीद थी कि एक अलग विशेषज्ञ पेशे की राह खुलेगी। इसके लिए शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय खोले गए थे। पर योग्य, प्रशिक्षित शिक्षकों की संख्या उम्मीद के मुताबिक बढ़ी नहीं। कारण कि युवा भारतीयों में शिक्षण के पेशे का आकर्षण नहीं था। कारण कि इसमें पारिश्रमिक बहुत कम था। दूसरा- सामाजिक प्रतिष्ठा भी नहीं थी। 

तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देने के पीछे उनकी मंशा निजी उद्यमों को प्रोत्साहित करने की थी। ताकि उच्च तकनीकी पदों पर अधिक भारतीयों को नौकरी पर रखा जा सके। तब भारत में करीब सभी उत्पादन इकाईयों का प्रबंधन यूरोपीय लोगों के हाथ में था। मद्रास व्यावसायिक प्रकोष्ठ की इस बाबत एक टिप्पणी ग़ौरतलब है, “जब हमें उच्च पदों पर विशेषज्ञाें की जरूरत होती है तो हम यूरोपीय लोगों को प्राथमिकता देते हैं। उनकी क्षमता और विश्वसनीयता तुलनात्मक रूप से बेहतर होती है।” 

इस स्थिति को बदलने के लिए कर्ज़न ने सरकार की ओर से छात्रवृत्ति देने का सिलसिला शुरू किया था। ताकि भारतीय विद्यार्थी विदेश जाकर ऐसी उच्च तकनीकी शिक्षा हासिल कर सकें, जो भारत में काम आए। हालाँकि वे भी मानते थे कि तकनीकी शिक्षा के विस्तार से बेरोजगारी बढ़ेगी। लेकिन तभी तक, जब तक औद्योगिक विकास तेज नहीं होता। लिहाज़ा उन्होंने मौज़ूद स्थानीय उद्योगों को बेहतरी और नई इकाईयाँ लगाने के लिए प्रोत्साहित किया। अंतत: शिमला शिक्षा सम्मेलन में 150 संकल्प पारित हुए। यद्यपि ये संकल्प सार्वजनिक नहीं किए गए। अलबत्ता, वायसराय के उद्घाटन भाषण के बारे में ख़बर ज़रूर छपी। उसे पढ़ने के बाद अधिकांश भारतीयों ने उनके इरादों की प्रशंसा की।

सम्मेलन में कर्ज़न ने तय किया था कि विश्वविद्यालयों की समस्याओं पर अलग से ध्यान दिया जाएगा। इसी के अनुसार जनवरी 1902 में विश्वविद्यालय आयोग बनाया गया। उसे विश्वविद्यालय प्रशासन से जुड़े विभिन्न पहलुओं की पड़ताल का जिम्मा दिया गया। ताकि ‘विश्वविद्यालयों में अध्यापन का स्तर सुधारा जा सके। इसके अध्यक्ष वायसराय की कार्यकारी परिषद विधिक सदस्य थॉमस रैले थे। आयोग में हैदराबाद रियासत के लोक शिक्षण निदेशक मुसलिम सदस्य के रूप में और कलकत्ता उच्च न्यायालय एक न्यायाधीश हिंदु सदस्य के तौर पर शामिल किए गए। रैले आयोग की सिफ़ारिशें जून 1902 में आईं। उनसे शिक्षित भारतीय वर्ग को लगा, जैसे उनकी स्थिति ख़तरे में है। इस आशंका से कलकत्ता विश्वविद्यालय के सभागारों में कोलाहल भरी बैठकें हुईं। इनके बारे में कर्ज़न ने ब्रिटिश गृह मंत्री को लिखे पत्र में बताया, “तमाम विद्यार्थियों और शिक्षकों ने ऊँची आवाज़ों से मेरा नाम ले-लेकर फुँफकारा। मुझे भारत में उच्च शिक्षा के सर्वनाश का लेखक बताया है।” फिर 1903 में जब विश्वविद्यालयीन शिक्षा में सुधार से जुड़े कर्ज़न के प्रस्ताव का स्वरूप सामने आया तो विरोध उन्माद के स्तर पर पहुँच गया। सरकार के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ मुख्य आरोप था कि वह विश्वविद्यालयों को राज्य का विभाग बना देगी। हालाँकि भारतीय शिक्षित वर्ग का असल डर ये था कि नए सुधारों के बाद उच्च शिक्षण संस्थानों पर उनका प्रभाव ख़त्म हो सकता है। विरोधी आश्वस्त थे कि सरकार युवा भारतीयों के लिए उच्च शिक्षा के अवसर अवरुद्ध करना चाहती है। हालाँकि कर्ज़न के समर्थक ऐसा नहीं मानते थे।

(जारी…..)
अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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पिछली कड़ियाँ : 
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58. प्लास्टिक उत्पादों से भारतीयों का परिचय बड़े पैमाने पर कब हुआ?
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54. अंग्रेजों ने पहली बार लड़कियों के विवाह की न्यूनतम उम्र कितनी तय की थी?
53. ब्रिटिश भारत में कानून संहिता बनाने की प्रक्रिया पहली बार कब पूरी हुई?
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43. क्या अंग्रेज भारत को तीन हिस्सों में बाँटना चाहते थे?
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39. भारत का पहला राजनीतिक संगठन कब और किसने बनाया?
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36. राजा राममोहन रॉय के संगठन का शुरुआती नाम क्या था?
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